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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 87 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 87/ मन्त्र 4
    ऋषिः - उशनाः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ए॒ष स्य ते॒ मधु॑माँ इन्द्र॒ सोमो॒ वृषा॒ वृष्णे॒ परि॑ प॒वित्रे॑ अक्षाः । स॒ह॒स्र॒साः श॑त॒सा भू॑रि॒दावा॑ शश्वत्त॒मं ब॒र्हिरा वा॒ज्य॑स्थात् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒षः । स्यः । ते॒ । मधु॑ऽमान् । इ॒न्द्र॒ । सोमः॑ । वृषा॑ । वृष्णे॑ । परि॑ । प॒वित्रे॑ । अ॒क्षा॒रिति॑ । स॒ह॒स्र॒ऽसाः । श॒त॒ऽसाः । भू॒रि॒ऽदावा॑ । श॒श्व॒त्ऽत॒मम् । ब॒र्हिः । आ । वा॒जी । अ॒स्था॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एष स्य ते मधुमाँ इन्द्र सोमो वृषा वृष्णे परि पवित्रे अक्षाः । सहस्रसाः शतसा भूरिदावा शश्वत्तमं बर्हिरा वाज्यस्थात् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एषः । स्यः । ते । मधुऽमान् । इन्द्र । सोमः । वृषा । वृष्णे । परि । पवित्रे । अक्षारिति । सहस्रऽसाः । शतऽसाः । भूरिऽदावा । शश्वत्ऽतमम् । बर्हिः । आ । वाजी । अस्थात् ॥ ९.८७.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 87; मन्त्र » 4
    अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 22; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (इन्द्र) हे जगदीश्वर ! (सोमः) सोमस्वभावः। अपि च (वृषा) सर्वकामनानां दातासि तथा (पवित्रे) पवित्रान्तःकरणेषु भवान् (पर्यक्षाः) आनन्दवर्षुकोऽस्ति । (वृष्णे) हे व्यापकपरमात्मन् ! (एषः, स्यः) अयं सः (ते) तव (मधुमान्) मधुरतादिगुणानां दाता (शतसाः, सहस्रसाः) शतसहस्रशक्तीनां निधाता (भूरिदावा) अनेककामपूरकः (शश्वत्तमम्) सन्ततफलोत्पादकः (बर्हिः) यो यज्ञस्तथा (वाजी) बलयुक्तोऽस्ति, तं त्वं (अस्थात्) निजसत्तया सुशोभयसि ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे जगदीश्वर ! (सोमः) आप सोमस्वभाव हैं और (वृषा) सब कामनाओं के देनेवाले हैं तथा (पवित्रे) पवित्र अन्तःकरणों में आप (पर्यक्षाः) आनन्द की वृष्टि करनेवाले हैं। (वृष्णे) हे व्यापक परमात्मन् ! (एषः स्यः) वो ये (ते) तुम्हारा (मधुमान्) मधुरतादि गुणों को देनेवाला (भूरिदावा) जो अनन्त प्रकार की कामनाओं को देनेवाला है, (शश्वत्तमम्) निरन्तर फल उत्पन्न करनेवाला (बर्हिः) जो यज्ञ है तथा (वाजी) बलयुक्त है, उसको आप (अस्थात्) अपनी सत्ता से सुशोभित करते हैं ॥४॥

    भावार्थ

    बर्हिः, इति ‘अन्तरिक्षनामसु पठितम्’ नि. अ.।२। खं. १। बर्हिः शब्द के मुख्यार्थ अन्तरिक्ष हैं। जिस प्रकार अन्तरिक्ष नाना प्रकार की ज्योतियों का आधार और अनन्त प्रकार कामनारूप वृष्टियों का आधार है, इसी प्रकार यज्ञ भी अन्तरिक्ष के समान विस्तृत है। यहाँ रूपकालङ्कार से यज्ञ को बर्हिःरूप से वर्णन किया है ॥४॥

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    विषय

    उपासक ज्ञानी का वर्णन।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवान् ! (एषः) वह अति परिचित उपासक (मधुमान्) उत्तम ज्ञानवान् होकर (सोमः) तेरे द्वारा अनुशासित होनेवाला, शिष्यवत् सेवक, (वृषा) बलवान् (ते वृष्णे) तुझ बलशाली, सुखों के वर्षक के लिये (पवित्रे परि अक्षाः) परम पवित्र बल में प्राप्त हो। वह (सहस्र-साः) हज़ारों का दाता (शत- साः) सैकड़ों का दान करनेवाला, (भूरि-दावा) बहुत २ अनेक बार दान करने वाला, (वाजी) बलवान्, ज्ञानवान् होकर (शश्वत्-तमं बर्हिः) अनादि महान् परम आश्रय को (अस्थात्) प्राप्त करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    उशना ऋषिः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्दः- १, २ निचृत्त्रिष्टुप्। ३ पादनिचृत्त्रिष्टुप्। ४,८ विराट् त्रिष्टुप्। ५–७,९ त्रिष्टुप्। नवर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    'सहस्रसाः शतसाः भूरिदावा'

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! (एषः) = यह (स्यः) = वह प्रसिद्ध (सोमः) = सोम (वृष्णे ते मधुमान्) = अपने अन्दर शक्ति कर सेचन करनेवाले तेरे लिये जीवन को मधुर बनानेवाला है। (वृषा) = यह शक्ति का सेचन करनेवाला है। जो भी इस सोम को अपने अन्दर सिक्त करता है, सोम उसे शक्तिशाली बनाता है । यह सोम (पवित्रे) = पवित्र हृदयवाले पुरुष में (परि अक्षा:) = शरीर में चारों ओर क्षरित होता है । (सहस्रसाः) = सहस्र संख्या ऐश्वर्यों को देनेवाला, (शतसा:) = पूर्ण शतवर्ष के जीवन को देनेवाला, (भूरिदावा) = खूब ही शत्रुओं का यह लवन [काटना] करनेवाला है। यह (वाजी) = शक्तिशाली सोम (शश्वत्तमम्) = सदा (बर्हिः) = वासनाशून्य रूप हृदय में (आ अस्थात्) = सर्वथा स्थित होता है। हृदय में वासनाओं के अभाव में सोम का रक्षण होता है। यह सोम हमें सहस्रों धनों को देता हुआ शतवर्ष के जीवन को देनेवाला होता है और काम-क्रोध आदि शत्रुओं को खूब ही काटनेवाला होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- सुरक्षित सोम जीवन को मधुर बनाता है, यह 'ऐश्वर्य व दीर्घजीवन' को देता है, शत्रुओं को काटता है।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, omnipotent generous creator and ruler of the universe, this Soma is your honeyed shower of beneficence and grace which profusely flows over and across the immaculate world of life. May this Soma, giving a thousand boons in a hundred forms of infinite values, a mighty victorious divine force, abide by us and bless the universal vedi of human life with eternal grace.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    बर्हि: इति ‘अन्तरिक्षनामसु पठितम्’ वि.अ. २.१। बर्हि शब्दाचा मुख्य अर्थ अंतरिक्ष आहे. ज्या प्रकारे अंतरिक्ष अनेक प्रकारच्या ज्योतींचा आधार आहे व अनेक प्रकारच्या कामरूप वृष्टीचा आधार आहे. यज्ञ ही तसाच अंतरिक्षाप्रमाणे विस्तृत आहे. येथे रूपकालंकाराद्वारे यज्ञाला बर्हि:रूपाने वर्णन केलेले आहे. ॥४॥

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