यजुर्वेद - अध्याय 14/ मन्त्र 11
ऋषिः - विश्वेदेवा ऋषयः
देवता - इन्द्राग्नी देवते
छन्दः - भुरिगनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
126
इन्द्रा॑ग्नी॒ऽ अव्य॑थमाना॒मिष्ट॑कां दृꣳहतं यु॒वम्। पृ॒ष्ठेन॒ द्यावा॑पृथि॒वीऽ अ॒न्तरि॑क्षं च॒ विबा॑धसे॥११॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्रा॑ग्नी॒ इतीन्द्रा॑ग्नी। अव्य॑थमानाम्। इष्ट॑काम्। दृ॒ꣳह॒त॒म्। यु॒वम्। पृ॒ष्ठेन॑। द्यावा॑पृथि॒वी इति॒ द्यावा॑ऽपृथि॒वी। अ॒न्तरि॑क्षम्। च॒। वि। बा॒ध॒से॒ ॥११ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्राग्नीऽअव्यथमानामिष्टकान्दृँहतँयुवम् । पृष्ठेन द्यावापृथिवी अन्तरिक्षञ्च विबाधसे ॥
स्वर रहित पद पाठ
इन्द्राग्नी इतीन्द्राग्नी। अव्यथमानाम्। इष्टकाम्। दृꣳहतम्। युवम्। पृष्ठेन। द्यावापृथिवी इति द्यावाऽपृथिवी। अन्तरिक्षम्। च। वि। बाधसे॥११॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह॥
अन्वयः
हे इन्द्राग्नी इव वर्त्तमानौ स्त्रीपुरुषौ! युवं युवामव्यथमानां प्रज्ञां प्राप्येष्टकामिव गृहाश्रमं दृंहतम्। यथा द्यावापृथिवी पृष्ठेनान्तरिक्षं बाधेते, तथा दुःखानि शत्रूंश्च बाघेथाम्। हे पुरुष! यथा त्वमेतस्याः स्वपत्न्याः पीडां विबाधसे तथा चेयमपि तव पीडां बाधताम्॥११॥
पदार्थः
(इन्द्राग्नी) इन्द्रो विद्युच्चाग्नी सूर्य्यश्चेव (अव्यथमानाम्) अपीडितामचलिताम् (इष्टकाम्) इष्टं कर्म यस्यास्ताम् (दृंहतम्) वर्धेताम् (युवम्) युवाम् (पृष्ठेन) (द्यावापृथिवी) प्रकाशभूमी (अन्तरिक्षम्) आकाशम् (च) (वि) (बाधसे)। [अयं मन्त्रः शत॰८.३.१.८ व्याख्यातः]॥११॥
भावार्थः
अत्र श्लेषवाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा विद्युत्सूर्य्यावपो वर्षित्वौषध्यादीन् वर्धयतस्तथैव स्त्रीपुरुषौ कुटुम्बं वर्धयेताम्। यथा प्रकाशः पृथिवी आकाशमाच्छादयतस्तथैव गृहाश्रमव्यवहारमलङ्कुर्याताम्॥११॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर भी वही विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे (इन्द्राग्नी) बिजुली और सूर्य्य के समान वर्त्तमान स्त्री-पुरुषो! (युवम्) तुम दोनों (अव्यथमानाम्) जमी हुई बुद्धि को प्राप्त होके (इष्टकाम्) र्इंट के समान गृहाश्रम को (दृंहतम्) दृढ़ करो। जैसे (द्यावापृथिवी) प्रकाश और भूमि (पृष्ठेन) पीठ से (अन्तरिक्षम्) आकाश को बांधते हैं, वैसे तुम दुःख (च) और शत्रुओं को बांधा करो। हे पुरुष! जैसे तू इस अपनी स्त्री की पीड़ा को (विबाधसे) विशेष करके हटाता है, वैसे यह स्त्री भी तेरी सकल पीड़ा को हरा करे॥११॥
भावार्थ
इस मन्त्र में श्लेष और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे बिजुली और सूर्य जल वर्षा के ओषधि आदि पदार्थों को बढ़ाते हैं, वैसे ही स्त्री-पुरुष कुटुम्ब को बढ़ावें, जैसे प्रकाश और पृथिवी आकाश का आवरण करते हैं, वैसे गृहाश्रम के व्यवहारों को पूर्ण करें॥११॥
विषय
राजा सेनापति या पुरोहित का कर्तव्य प्रजापालन।
भावार्थ
हे ( इन्द्राग्नी ) इन्द्र और अग्नि सेनापति और राजा या राजा और पुरोहित ! ( युवम् ) तुम दोनों ( अव्यथमानाम् ) पीड़ा को प्राप्त न होती हुई ( इष्टकाम् ) ऐश्वर्यों को प्रदान करने वाली प्रजा को ( दृंहतम् ) दृढ़ करो। हे प्रजे ! तू ( पृष्ठेन ) अपनी पृष्ट से ( द्यावापृथिवी ) द्यौ, पृथिवी और ( अन्तरिक्षं च ) अन्तरिक्ष तीनों लोकों को, ( विबाधसे ) प्राप्त होती है । सब स्थानों के भोग्य पदार्थों को प्राप्त होती है॥ शत० ८ । ३ । १ । ८ ॥ अथवा – हे इन्द्र और अग्नि के समान तेजस्वी स्त्री पुरुषो ! तुम दोनों अपीड़ित, इष्ट बुद्धि को प्राप्त होकर गृहस्थाश्रम को दृढ़ करो। वह गृहस्थाश्रम आकाश, पृथिवी, और अन्तरिक्ष माता पिता और पति तीनों की सेवा करती है।
टिप्पणी
१ बाधृ विलोडने भ्वादि: । अथ तृतीया चितिः ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वकर्मा ऋषि । इन्द्राग्नी देवता भुरिगनुष्टुप् । गांधारः ॥
विषय
पृष्ठेन
पदार्थ
१. प्रभु पति - पत्नी को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि- ('इन्द्रः अग्निः च') = पति ने 'इन्द्र' बनना है- जितेन्द्रिय होना है तथा ऐश्वर्य को कमानेवाला बनना है, पत्नी ने 'अग्नि' बनकर घर को सदा आगे ले चलना है। घर की उन्नति का बहुत कुछ निर्भर पत्नी पर ही होता है। हे (इन्द्राग्नी) = जितेन्द्रिय पति व अग्नितुल्य पत्त्रि ! (युवम्) = तुम दोनों (अव्यथमानाम्) = [व्यथ् to change, to be disturbed] कभी विहत न होते हुए (इष्टकाम्) = यज्ञ को (दृंहतम्) = घर में दृढ़ करो। घर के अन्दर यज्ञ अविच्छिन्नरूप से अपने समय पर होता रहे। प्रातः का यज्ञ सायं तक, और सायं का यज्ञ प्रातः तक हम सबके मनों को सौमनस्य का देनेवाला हो। घर में यज्ञ के विच्छिन्न न होने से सन्तानों के चरित्र भी विच्छिन्न नहीं होते। २. घर के प्रत्येक व्यक्ति के लिए कहते हैं कि हे गृहजनो! तुम (पृष्ठेन) = ['तेजो ब्रह्मवर्चसं श्रीर्वै पृष्ठानि' ऐ० ६। ५] ब्रह्मवर्चस् के द्वारा (द्यावापृथिवी) = द्यावा मस्तिष्क को तेज के द्वारा पृथिवी- शरीर को, (च) = और (अन्तरिक्षम्) = हृदयान्तरिक्ष को, श्री: [श्रीञ् सेवायाम् = भज्] भक्ति व सेवा के द्वारा (विबाधसे) = विगत बाधावाला करते हो, निर्बाध करते हो। तुम्हारा मस्तिष्क ब्रह्मवर्चस् से दीप्त होता है, शरीर तेज से और हृदयान्तरिक्ष श्री - भक्ति से देदीप्यमान हो उठता है।
भावार्थ
भावार्थ- पति जितेन्द्रिय हो, पत्नी घर की उन्नति-साधिका हो। घरों में यज्ञ अविच्छिन्न रूप से चलें। मस्तिष्क ज्ञानमय, शरीर तेजस्वी व हृदय भक्ति-सम्पन्न हो । +
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात श्लेष व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जसे विद्युत व सूर्य हे जलवृष्टीद्वारे वृक्ष इत्यादी पदार्थांची वृद्धी करतात, तसेच स्त्री-पुरुषांनी कुटुंबाला वाढवावे. जसे प्रकाश व भूमी आकाशाला घेरतात तसे (दुःखाना व शत्रूंना बंदिस्त करून) गृहस्थाश्रमाचे सर्व व्यवहार पूर्ण करावेत.
विषय
पुढील मंत्रातही तोच विषय प्रतिपादित आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे (इंद्राग्नी) विद्युत व सूर्याप्रमाणे असलेल्या पति-पत्नी, (युवम्) तुम्ही दोघे (अव्यथमामाम्) निश्चयात्मक बुद्धीला दृढ करा (आपसातील संशय दूर ठेवा) ज्याप्रमाणे (इष्टकाम्) वीट ही घराला दृढ करते, तद्वत तुम्ही आपल्या गृहाश्रमाला (दृंहतम्) दृढ करा. जसे हे (द्यावापृथिवी) प्रकाश आणि पृथ्वी (पृष्ठेन) आपल्या पाठीशी आकाशाला बांधून ठेवतात (आकाशातील सूर्यप्रकाश पृथ्वीग्रहण करते आणि पृथ्वीचा संबंध आकाशाशीं असतो) तसे तुम्ही दु:ख आणि शत्रू यांना बांधून (कैद करून) ठेवा. हे पती, जसे तू आपल्या पत्नीचे दु:ख व पीडा (विबाधसे) दूर करतोस, तसे तुझ्या पत्नीनेदखील अवश्य तुझे संपूर्ण दु:ख हरावे आणि (सेवा करून) पीडा दूर करावी ॥11॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात श्लेष आणि वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहेत ज्याप्रमाणे विद्युत आणि सूर्य जल, वृष्टी औषधी आदी पदार्थांच्या वृद्धीचे कारण आहेत, त्याप्रमाणे पति-पत्नीने आपल्या परिवाराची वृद्धी उन्नती करावी. जसे प्रकाश आणि पृथ्वी आकाशाचे आच्छादन वा आवरण असल्याप्रमाणे आहेत, तसे पति-पत्नीनी गृहाश्रमाचे सर्व व्यवहार संपूर्णत: कर्तव्य म्हणून पूर्ण करावेत ॥11॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O husband and wife, behaving like lightning and earth, with mature intellect, make your domestic life cemented like a brick. Just as the sun and earth with their might restrict the atmosphere, so should ye bind your foes and remove miseries. O man just as thou removest the affliction of thy wife, so shouldst she remove thine.
Meaning
May Indra and Agni (the sun and universal electric energy), both of you, firm up the unshaken foundation of the yajna of earthly life. And may the heaven and the earth between themselves bind and hold the middle regions of the sky. (The husband and wife both should strengthen the foundations of home-life-yajna beyond disturbance and, with their intelligence and character, bind their love and yajnic life in stability. )
Translation
O Lord resplendent and adorable, may you settle this brick-divine in this place firmly and unshakable. O brick-divine, with your back you overwhelm the heaven and earth and the mid-space. (1)
Notes
In this kandiká the word इष्टका: is mentioned. The ritu- alists interpret it as a brick, while there can be another equally satisfactory meaning, इष्टा एव इष्टका, the desired lady of the house; housewife. Dayananda has interpreted it as इष्टं कर्म यस्यास्तां. the lady whose actions are desirable to us. Avyathamànàm, व्यथारहितां, undistressed, भंगरहितां, un- broken; भंगरहितां, unmoving. Indragni, इंद्रश्चाग्निश्च, the resplendent Lord and the ador- able Lord. Vibadhase, अभिभवसि, overwhelm. Dyava prthivi antariksam ca, the sky, the earth and the mid-space, i. e. whole of the universe.
बंगाली (1)
विषय
পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
পুনঃ সেই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে (ইন্দ্রাগ্নী) বিদ্যুৎ ও সূর্য্যের সমান বর্ত্তমান স্ত্রী-পুরুষগণ ! (য়ুবম্) তোমরা উভয়ে (অব্যথমানাম্) ঘনীভূত বুদ্ধিকে প্রাপ্ত করিয়া (ইষ্টকাম্) ইটের সমান গৃহাশ্রমকে (দৃংহতম্) দৃঢ় কর । যেমন (দ্যাবাপৃথিবী) প্রকাশ ও ভূমি (পৃষ্ঠেন) পৃষ্ঠ দিয়া (অন্তরিক্ষম্) আকাশকে বাঁধিয়া দেয় সেইরূপ তোমরা দুঃখ ও শত্রুদিগকে প্রতিরোধ কর । হে পুরুষ ! যেমন তুমি এই নিজের স্ত্রীর ব্যথাকে (বিবাধসে) বিশেষ করিয়া দূরীভূত কর সেইরূপ এই স্ত্রীও তোমার সকল পীড়া হরণ করে ॥ ১১ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে শ্লেষ ও বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যেমন বিদ্যুৎ ও সূর্য্য জলবর্ষা ওষধি আদি পদার্থগুলিকে বৃদ্ধি করে সেইরূপ স্ত্রী পুরুষ কুটম্বকে বৃদ্ধি করিবে । যেমন প্রকাশ ও পৃথিবী আকাশের আচ্ছাদন করিয়া থাকে সেইরূপই গৃহাশ্রমের ব্যবহারকে পূর্ণ কর ॥ ১১ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
ইন্দ্রা॑গ্নী॒ऽ অব্য॑থমানা॒মিষ্ট॑কাং দৃꣳহতং য়ু॒বম্ ।
পৃ॒ষ্ঠেন॒ দ্যাবা॑পৃথি॒বীऽ অ॒ন্তরি॑ক্ষং চ॒ বি বা॑ধসে ॥ ১১ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ইন্দ্রাগ্নী ইত্যস্য বিশ্বেদেবা ঋষয়ঃ । ইন্দ্রাগ্নী দেবতে । ভুরিগনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
গান্ধারঃ স্বরঃ ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal