यजुर्वेद - अध्याय 14/ मन्त्र 30
ऋषिः - विश्वदेव ऋषिः
देवता - जगदीश्वरो देवता
छन्दः - स्वराड् ब्राह्मी जगती, ब्राह्मी पङ्क्तिः
स्वरः - निषादः, पञ्चमः
205
न॒व॒द॒शभि॑रस्तुवत शूद्रा॒र्य्याव॑सृज्येतामहोरा॒त्रेऽ अधि॑पत्नीऽ आस्ता॒म्। एक॑विꣳशत्यास्तुव॒तैक॑शफाः प॒शवो॑ऽसृज्यन्त॒ वरु॒णोऽधि॑पतिरासी॒त्। त्रयो॑विꣳशत्यास्तुवत क्षु॒द्राः प॒शवो॑ऽसृज्यन्त पू॒षाधि॑पतिरासी॒त्। पञ्च॑विꣳशत्यास्तुवताऽऽर॒ण्याः प॒शवो॑ऽसृज्यन्त वा॒युरधि॑पतिरासीत्। स॒प्तवि॑ꣳशत्यास्तुवत॒ द्यावा॑पृथि॒वी व्यै॑तां॒ वस॑वो रु॒द्रोऽ आ॑दि॒त्याऽ अ॑नु॒व्यायँ॒स्तऽ ए॒वाधि॑पतयऽ आसन्॥३०॥
स्वर सहित पद पाठन॒व॒द॒शभि॒रिति॑ नवऽद॒शभिः॑। अ॒स्तु॒व॒त॒। शू॒द्रा॒र्य्यौ। अ॒सृ॒ज्ये॒ता॒म्। अ॒हो॒रा॒त्र इत्य॑हो॒रा॒त्रे। अधि॑पत्नी॒ इत्यधि॑ऽपत्नी। आ॒स्ता॒म्। एक॑विꣳश॒त्येक॑ऽविꣳशत्या। अ॒स्तु॒व॒त॒। एक॑शफा॒ इत्येक॑ऽशफाः॒। प॒शवः॑। अ॒सृ॒ज्य॒न्त॒। वरु॑णः। अधि॑पति॒रित्यधि॑ऽपतिः। आ॒सी॒त्। त्रयो॑विꣳश॒त्येति॒ त्रयः॑ऽविंशत्या। अ॒स्तु॒व॒त॒। क्षु॒द्राः। प॒शवः॑। अ॒सृ॒ज्य॒न्त॒। पू॒षा। अधि॑पति॒रित्यधि॑ऽपतिः। आ॒सी॒त्। पञ्च॑विꣳश॒त्येति॒ पञ्च॑ऽविꣳशत्या। अ॒स्तु॒व॒त॒। आ॒र॒ण्याः। प॒शवः॑। अ॒सृ॒ज्य॒न्त॒। वा॒युः। अधि॑पति॒रित्यधि॑ऽपतिः। आ॒सी॒त्। स॒प्तविं॑ꣳश॒त्येति॑ स॒प्तऽविं॑ꣳशत्या। अ॒स्तु॒व॒त॒। द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ द्यावा॑पृथि॒वी। वि। ऐ॒ता॒म्। वस॑वः। रु॒द्राः। आ॒दि॒त्याः। अ॒नु॒व्या᳖य॒न्नित्य॑नु॒ऽव्या᳖यन्। ते। ए॒व। अधि॑पतय॒ इत्यधि॑ऽपतयः। आ॒स॒न् ॥३० ॥
स्वर रहित मन्त्र
नवदशभिरस्तुवत शूद्रार्यावसृज्येतामहोरात्रेऽअधिपत्नीऽआस्तामेकविँशत्यास्तुवतैकशफाः पशवोसृज्यन्त वरुणो धिपतिरासीत्त्रयोविँशत्यास्तुवत क्षुद्राः पशवोसृज्यन्त पूषाधिपतिरासीत्पञ्चविँशत्यास्तुवतारण्याः पशवोसृज्यन्त वायुरधिपतिरासीत्सप्तविँशत्यास्तुवत द्यावापृथिवी व्यैताँवसवो रुद्राऽआदित्याऽअनुव्यायँस्तऽएवाधिपतय आसन्नवविँशत्यास्तुवत ॥
स्वर रहित पद पाठ
नवदशभिरिति नवऽदशभिः। अस्तुवत। शूद्रार्य्यौ। असृज्येताम्। अहोरात्र इत्यहोरात्रे। अधिपत्नी इत्यधिऽपत्नी। आस्ताम्। एकविꣳशत्येकऽविꣳशत्या। अस्तुवत। एकशफा इत्येकऽशफाः। पशवः। असृज्यन्त। वरुणः। अधिपतिरित्यधिऽपतिः। आसीत्। त्रयोविꣳशत्येति त्रयःऽविंशत्या। अस्तुवत। क्षुद्राः। पशवः। असृज्यन्त। पूषा। अधिपतिरित्यधिऽपतिः। आसीत्। पञ्चविꣳशत्येति पञ्चऽविꣳशत्या। अस्तुवत। आरण्याः। पशवः। असृज्यन्त। वायुः। अधिपतिरित्यधिऽपतिः। आसीत्। सप्तविंꣳशत्येति सप्तऽविंꣳशत्या। अस्तुवत। द्यावापृथिवी इति द्यावापृथिवी । वि। एेताम्। वसवः। रुद्राः। आदित्याः। अनुव्यायन्नित्यनुऽव्यायन्। ते। एव। अधिपतय इत्यधिऽपतयः। आसन्॥३०॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृश इत्याह॥
अन्वयः
हे मनुष्याः! यूयं येनोत्पादिते अहोरात्रे अधिपत्नी आस्ताम्, येन शूद्रार्यावसृज्येतां तं नवदशभिरस्तुवत। येनोत्पादितो वरुणोऽधिपतिरासीद्येनैकशफाः पशवोऽसृज्यन्त तं परमात्मानमेकविंशत्यास्तुवत। येन निर्मितः पूषाऽधिपतिरासीद्, येन क्षुद्राः पशवोऽसृज्यन्त, तं त्रयोविंशत्यास्तुवत। येनोत्पादितो वायुरधिपतिरासीद् येनाऽऽरण्याः पशवोऽसृज्यन्त, तं पञ्चविंशत्यास्तुवत। येन सृष्टे द्यावापृथिव्यैताम्, येन रचिता वसवो रुद्रा आदित्या अनुव्यायंस्त एवाऽधिपतय आसंस्तं सप्तविंशत्यास्तुवत॥३०॥
पदार्थः
(नवदशभिः) दश प्राणाः पञ्च महाभूतानि मनोबुद्धिचित्ताहंकारैः (अस्तुवत) स्तुवन्तु (शूद्रार्यौ) शूद्रश्चार्य्यो द्विजश्च तौ (असृज्येताम्) (अहोरात्रे) (अधिपत्नी) अधिष्ठात्र्यौ (आस्ताम्) भवतः (एकविंशत्या) मनुष्याणामङ्गैः (अस्तुवत) (एकशफाः) अश्वादयः (पशवः) (असृज्यन्त) सृष्टाः (वरुणः) जलम् (अधिपतिः) (आसीत्) (त्रयोविंशत्या) पश्वङ्गैः (अस्तुवत) (क्षुद्राः) नकुलपर्यन्ताः (पशवः) (असृज्यन्त) (पूषा) पुष्टिकर्त्ता भूगोलः (अधिपतिः) (आसीत्) (पञ्चविंशत्या) क्षुद्रपश्ववयवैः (अस्तुवत) (आरण्याः) अरण्ये भवाः (पशवः) सिंहादयः (असृज्यन्त) (वायुः) (अधिपतिः) (आसीत्) (सप्तविंशत्या) आरण्यपशुगुणैः (अस्तुवत) (द्यावापृथिवी) (वि) विविधतया (ऐताम्) प्राप्नुतः (वसवः) अग्न्यादयोऽष्टौ (रुद्राः) प्राणादयः (आदित्याः) चैत्रादयो द्वादश मासाः प्रथममध्यमोत्तमा विद्वांसो वा (अनुव्यायन्) अनुकूलतयोत्पादिताः (ते) (एव) (अधिपतयः) (आसन्)। [अयं मन्त्रः शत॰८.४.३.१२-१६ व्याख्यातः]॥३०॥
भावार्थः
हे मनुष्याः! येनार्याः शूद्रा दस्यवश्च मनुष्याः सृष्टा, येन स्थूलसूक्ष्मा प्राणिदेहा महद्ह्रस्वाः पशव एतेषां पालनसाधनानि च, यस्य सृष्टावल्पविद्याः समग्रविद्याश्च विद्वांसो भवन्ति, तमेव यूयमुपास्यं मन्यध्वम्॥३०॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वह कैसा है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे मनुष्यो! तुम जिससे उत्पन्न हुए (अहोरात्रे) दिन और रात्रि (अधिपत्नी) सब काम कराने के अधिकारी (आस्ताम्) हैं, जिस ने (शूद्रार्य्यौ) शूद्र और आर्य्य द्विज ये दोनों (असृज्येताम्) रचे हैं, उस की (नवदशभिः) दश प्राण, पांच महाभूत, मन, बुद्धि, चित्त और अहंकारों से (अस्तुवत) स्तुति करो। जिसने उत्पन्न किया (वरुणः) जल (अधिपतिः) प्राण के समान प्रिय अधिष्ठाता (आसीत्) है, जिस ने (एकशफाः) जुड़े एक खुरों वाले घोड़े आदि (पशवः) पशु (असृज्यन्त) रचे हैं, उस की (एकविंशत्या) मनुष्यों के इक्कीस अवयवों से (अस्तुवत) स्तुति करो, जिसने बनाया (पूषा) पुष्टिकारक भूगोल (अधिपतिः) रक्षा करने वाला (आसीत्) है, जिस ने (क्षुद्राः) अतिसूक्ष्म जीवों से लेकर नकुल पर्य्यन्त (पशवः) पशु (असृज्यन्त) रचे हैं, उस की (त्रयोविंशत्या) पशुओं के तेईस अवयवों से (अस्तुवत) स्तुति करो। जिसने बनाया हुआ (वायुः) वायु (अधिपतिः) पालने हारा (आसीत्) है, जिसने (आरण्याः) वन के (पशवः) सिंह आदि पशु (असृज्यन्त) रचे हैं, (पञ्चविंशत्या) अनेकों प्रकार के छोटे-छोटे वन्य पशुओं के अवयवों के साथ अर्थात् उन अवयवों की कारीगरी के साथ (अस्तुवत) प्रशंसा करो, जिसने बनाये (द्यावापृथिवी) आकाश और भूमि (व्यैताम्) प्राप्त हैं, जिस के बनाने से (वसवः) अग्नि आदि आठ पदार्थ वा प्रथम कक्षा के विद्वान् (रुद्राः) प्राण आदि वा मध्यम विद्वान् (आदित्याः) बारह महीने वा उत्तम विद्वान् (अनुव्यायन्) अनुकूलता से उत्पन्न हैं, (ते) (एव) वे अग्नि आदि ही वा विद्वान् लोग (अधिपतयः) अधिष्ठाता (आसन्) होते हैं, उस की (सप्तविंशत्या) सत्ताईस वन के पशुओं के गुणों से (अस्तुवत) स्तुति करो॥३०॥
भावार्थ
हे मनुष्यो! जिसने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र डाकू मनुष्य भी रचे हैं, जिसने स्थूल तथा सूक्ष्म प्राणियों के शरीर अत्यन्त छोटे पशु और इन की रक्षा के साधन पदार्थ रचे और जिसकी सृष्टि में न्यून विद्या और पूर्ण विद्या वाले विद्वान् होते हैं, उसी परमात्मा की तुम लोग उपासना करो॥३०॥
विषय
नाना प्रकार की ब्रह्मशक्ति और राष्ट्र व्यवस्थाओं का देह की व्यवस्थानुसार वर्णन ।
भावार्थ
१०. ( नव दशभि: अस्तुवत) दश हाथों की अंगुलियां और शरीर गत ६ प्रारण ये १६ जिस प्रकार शरीर की रक्षा करते हैं और उसको चेतन बनाये रखते हैं उसी प्रकार १६ धारक और पालक बल विश्व को थामे हैं, उन १६ शक्तियों के वर्णन द्वारा भी उसी परमेश्वर की रचना कोशल की विद्वान् गण स्तुति करते हैं उन १६ अभ्यन्तर और बाह्य अंगों के समान ही ( शूद्रार्यौ असज्येताम् ) शूद्र और आर्य, श्रमजीवी और स्वामी लोगों के परस्पर संघों की रचना हुई है। शूद्र बाहर के हाथों की अंगुलियों के समान और आर्य या श्रेष्ठ स्वामी गए समाज के भीतरी प्राणों के समान रहें। उनके ( अहोरात्रे अधिपत्नी आस्ताम् ) दिन, रात ये दो ही अधिपति या पालक हैं अर्थात् दिन, प्रकाशमान और रात्रि अन्धकारमय है । इसी प्रकार शूद्र कर्म कर ज्ञान रहित और आये ज्ञानवान् हैं । अहोरात्र का सम्मिलित स्वरूप उभयविध ज्ञान-कर्ममय प्रजापति ही शूद आर्य दोनों का पालक है । ११. . ( एकविंशत्या अस्तुवत ) १० हाथ की और १० पैर की अंगुलियां हैं और आत्मा २१ वां हैं। उसी प्रकार विश्व में भी उत्तर और अधर लोकों की १०, १० कार्यकारिणी और पालनकारिणी शक्तियां काम कर रहीं है । उनको देखकर उन द्वारा भी विद्वान्जन प्रजाति की स्तुति करते उसकी रचना के गुणों का दर्शन करते और उसका अनुकरण करते हैं। उसके अनुकूल ( एकशफाः पशवः असृज्यन्त ) एक खुर वाले पशुओं की रचना हुई । अर्थात् हाथ की दशों अंगुलियों के समान १० दिशागामी १० दिशाओं में दश सेनाएं और उनके सहायतार्थ घोड़े, खच्चर आदि उपयोगी पशु पैदा किये जाते है। उनका ( अधिपतिः वरुणः आसीत् ) अधिपति 'वरुण' और सर्वश्रेष्ठ सब शत्रुओं को वारक सेनापति पुरुष है । १२. ( त्रयोविंशत्या ) अस्तुवत १० हाथ की और १० पैर की अंगुलियां दो पैर और २३ व आत्मा देह में विद्यमान है । उसी प्रकार ब्रह्माण्ड में २३ महान् शक्तियां कार्य कर रही हैं। उन २३ स्वरूपों से ही विद्वान् गण परमेश्वर की स्तुति करते हैं । ( वृद्राः पशवः सृज्यन्त ) उक्त अंगों की शक्तियों द्वारा वृद पशुओं की रचना हुई है। उन सब का ( पूषा अधिपतिः ) अधिपति पूषा, अन्नमय अन्नदात्री पृथिवी ही है । १३. (पञ्चविंशत्या अस्तुवत ) हाथों, पैरों की दश दश अंगुलियां, दो बाहु, दो पैर और २५ व आत्मा ये देह के घटक हैं। इसी प्रकार सृष्टि रचना के भी घटक ये ही पदार्थ हैं, उनके द्वारा विद्वान् विधाता की स्तुति करते हैं । उन घटक अवयवों से ही (अरण्याः पशवः असृज्यन्त) जंगली पशु रचे गये हैं । ( वायुः अधिपतिः आसीत् ) तीव्र गतिशील वायु के समान, वेगवान् पालक ही उनका अधिपति है । १४ ( सप्तविंशत्या अस्तुवत) हाथों पैरों की दस २ अंगुलियां २ बाहु और २ टांगें, दो चरण एक आत्मा ये सत्ताईस शरीर के घटक हैं। इन सत्ताईस घटक अंगों के सञ्चालक महती शक्तियों के द्वारा ही विद्वान् पुरुष विधाता की स्तुति करते हैं । उनके द्वारा ही ( द्यावापृथिवी व्यैताम् ) द्यौ और पृथिवी दोनों व्याप्त होते हैं और उनमें ही ( वसवः ) आठ वसु, ( रुद्रा : ) ११ प्राण और ( आदित्याः ) १२ मास ( अनु-वि -द्ययन् ) उनके भी भीतर व्यास है । ( त एव ) वे ही उन दोनों आकाश और पृथिवी के ( अधिपतयः आसन् ) अधिपति या पालक हैं ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१-ब्राह्मी जगती । निषादः । २ ब्राह्मी पंक्तिः । पञ्चमः ॥
विषय
उन्नीस - इक्कीस-तेईस-पच्चीस व सताईस
पदार्थ
१. अब गत मन्त्र के ग्राम्य पशुओं से सीधे कार्य लेनेवाले (शूद्रार्यौ) = शूद्र व वैश्य (असृज्येताम्) = उत्पन्न किये गये। शूद्रों व वैश्यों को 'कृषि, गोरक्षा, वाणिज्य' आदि कार्यों में इन ग्राम्य पशुओं के प्रयोग के लिए नियुक्त किया गया। इस सारी व्यवस्था को देखते हुए (नवदशभिः) = [दश हस्त्या अंगुलयः नव प्राणाः- श० ८|४ | ३ | १२] मेरे हाथ की दस अंगुलियों व नौ प्राण-इन्द्रियों से (अस्तुवत) = उस प्रभु का स्तवन करें। 'शूद्र वर्ण' 'अहन्' है, 'न जहाति' यह 'ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य' इन द्विजातियों की सेवा को नहीं छोड़ता - अनसूया से-दोषदर्शन के बिना यह इनकी सेवा में लगा रहता है। वैश्य 'रात्रि' है, रमयित्री - इसकी सम्पत्ति सभी को रमण करनेवाली होती है। यह अपनी सम्पत्ति से 'ब्राह्मण, क्षत्रिय व शूद्र सभी का पोषण करता है, जैसे शरीर में उदर अन्य सब अङ्गों का अपने से उत्पादित रुधिर के द्वारा पोषण करता है। इन शूद्र व अर्थों को इन कार्यों में नियुक्त करनेवाला वह प्रभु (अहोरात्रे) = कभी हमारा साथ न छोड़नेवाला व उन उन पदार्थों से हमारा रमण सिद्ध करनेवाला (अधिपत्नी आस्ताम्) = अधिष्ठातृरूपेण रक्षक है। उस 'अहोरात्र' नामवाले प्रभु ने दिन कार्य करने के लिए- अहन्- एक भी क्षण न खराब करने के लिए तथा रात्रि सब थकावट को दूर करके रमण के लिए बनायी है। इसी से उसका यह नाम हो गया है। २. (एकशफाः पशवः) = एक खुरवाले पशु [जो सम्भवतः संख्या में २१ जातियों के हैं] (असृज्यन्त) = उत्पन्न किये गये। मानव जीवन में अश्व व खच्चर की अत्यन्त उपयोगिता है, अतः (एकविंशत्या) = [दश हस्त्या अंगुलयो दश पाद्या आत्मैकविंश:- श० ८।५।३।१३] २१ अवयवों से-दस हाथ की अंगुलियों, दस पाँवों की अंगुलियों तथा २१ वें आत्मा से (अस्तुवत) = तुम प्रभु का स्तवन करो कि (वरुणः) = इन पशुओं की सहायता से हमारे कष्टों का निवारण करनेवाला प्रभु (अधिपतिः आसीत्) = अधिष्ठातृरूपेण हमारा रक्षक है। ३. (क्षूद्राः पशवः) = [ आनकुलात् क्षुद्रजन्तवः] कृमि, कीट, नेवला आदि क्षुद्र पशु जो सम्भवतः २३ जातियों में विभक्त हैं, (असृज्यन्त) = बनाये गये। इनकी भी उस उस उपयोगिता का ध्यान करते हुए (त्रयोविंशत्या) = [ दश हस्त्या अंगुलयो दश पाद्या द्वे प्रतिष्ठे आत्मा त्रयोविंश:] हाथ-पाँवों की अंगुलियों, पाँवों व आत्मा से (अस्तुवत) [] उस प्रभु का स्तवन करो कि (पूषा) = इन कृमियों के द्वारा भी हमारा पोषण करनेवाला वह प्रभु (अधिपतिः आसीत्) = अधिष्ठातृरूपेण हमारा रक्षक है। ४. (आरण्याः पशवः) = वन के पशु [जो सम्भवतः पच्चीस जातियों में विभक्त हैं] (असृज्यन्त) = उत्पन्न किये गये। इन आरण्य पशुओं की आवश्यकता को समझकर मनुष्य (पञ्चविंशत्या) = दस हाथ की अंगुलियों, दस पाँवों की अंगुलियों, शरीर के चारों अङ्गों [मस्तिष्क, उरस्, उदर व टाँग] तथा आत्मा से (अस्तुवत) स्तुति करें कि (वायुः) = इन पशुओं के निर्माण द्वारा हमारी गति व गति द्वारा दोषों के हिंसन को बढ़ानेवाला [वा गतिगन्धनयो: ] वायु नामक वह प्रभु (अधिपतिः आसीत्) = हमारा अधिष्ठातृरूपेण रक्षक था। ५. अब इन सब पशुओं के निर्माण के बाद (द्यावापृथिवी व्यैताम्) = द्यावापृथिवी विशिष्ट रूप से गतिवाले हुए, अर्थात् सारे ब्रह्माण्ड का काम ठीक से चलने लगा। पृथिवी के (वसवः) = वसु नामक देव अन्तरिक्ष के (रुद्राः) = रुद्र नामक देव तथा द्युलोक के (आदित्याः) = आदित्य नामक देव (अनुव्यायन्) = ठीक-ठीक कार्य करने लग गये, अर्थात् संसार की सब प्राकृतिक शक्तियाँ ठीक-ठीक कार्य करने में प्रवृत्त हो गईं। वसुओं ने हमारे निवास को उत्तम बनाया-रुद्रों ने हमारे प्राणों को पुष्ट किया और आदित्यों ने हमें दिव्य गुणों से पूर्ण कर दिया, अतः हम (सप्तविंशत्या) = दस हस्तांगुलियों, दस पादांगुलियों - चार अङ्गों [मस्तिष्क, उरस्, उदर व टाँग] दो पाँवों तथा आत्मा से (अस्तुवत) = उस प्रभु का स्तवन करें कि (ते एव अधिपतयः आसन्) = वसुओं के द्वारा रक्षा करनेवाले आप ही 'वसु' हैं। प्राणशक्ति देनेवाले आप 'रुद्र' हो तथा दिव्य गुणों से हमें परिपूर्ण करनेवाले आप 'आदित्य' हो। (ते एव) = वे 'वसु, रुद्र और आदित्य' नामवाले ही आप हमारे अधिष्ठातृरूपेण रक्षक हो ।
भावार्थ
भावार्थ- हम 'एकशफ, क्षुद्र व आरण्य' पशुओं का भी उपयोग समझें और इनमें भी प्रभु की महिमा को देखने का प्रयत्न करें। हमारा प्रत्येक अङ्ग प्रभु का स्तवन करनेवाला हो । हम उस प्रभु 'को 'अहोरात्र - वरुण - पूषा - वायु तथा वसु, रुद्र व आदित्य' नाम से स्मरण करें।
मराठी (2)
भावार्थ
हे माणसांनो ! ज्याने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इत्यादी माणसे निर्माण केलेली आहेत व ज्याने स्थूल व सूक्ष्म प्राण्यांची शरीरे निर्माण केलेली आहेत, अत्यंत लहान पशू व त्यांच्या रक्षणाची साधने निर्माण केलेली आहेत आणि ज्याच्या सृष्टीमध्ये कमी जास्त अशी विद्या प्राप्त करणारे विद्वानही आहेत त्याच परमेश्वराची तुम्ही उपासना करा.
विषय
पुन्हा तोच विषय (परमेश्वर कसा आहे व त्याची स्तुती कशी करावी) पुढील मंत्रात प्रतिपादित आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे मनुष्यांनो, ज्याने उत्पन्न केलेले (अहोरात्रे) रात्र आणि दिवस (अधिपत्नी सर्वांनी कर्मप्रवृत्त (आस्ताम्) करतात, ज्याने (शूद्रार्य्यौ) शूद्न आणि आर्य द्विज वर्णांची (असृज्येताम्) रचना, केली आहे, तुम्ही त्या परमेश्वराची (नवदशभि:) दशप्राण:, पाच महाभूत, मन, बुद्धी, चित्त आणि अहंकाराद्वारे (अस्तुवत) स्तुती करा. ज्या परमेश्वराने उत्पन्न केलेले (वरूण:) जलतत्त्व (अधिपति:) सर्व प्राण्यांना प्राण्याहून प्रिय (आसीत्) आहे, ज्याने (एकशफा:) एक युद असलेल्या घोडे आदी (पशव:) पशू (असृज्यन्त) उत्पन्न केले आहेत, त्या परमेश्वराची तुम्ही (एकविंशव्या) माणसाच्या एकवीस अवयवांनी (अस्तुवत) स्तुती करा. ( 20 बोटे आणि 1 मन या अन---- त्याचे अस्तित्व अनुभवा) ज्याने रचलेली (पूषा) ही पुष्टिकारक भूमी (अधिपति:) सर्वांचे रक्षण करणारी (आसीत्) आहे, ज्यस्ने (क्षुद्रा) अतिसुक्ष्म जीववांपासून ते नकुल (मुंगुस) सारखे क्षुद्र छोट्या पशू प्राण्यांची (असृज्यन्त) रचना केली आहे, ज्या परमेश्वराची तुम्ही (त्रयोविंशत्या) पशूंच्या तेवीस अवयवांनी (अस्तुवत) स्तुती करा^( 4 पाय, 4 स्तन, 2 डोळे, 2 कान, 2 शिंगे, 1 नाक, 1 तोंड, 1 शेपटी आणि 4 खूर, अशा तेवीस अंगांत म्हणजे सर्वात परमेश्वराचे रचना कौशल्य पहा) ज्याने निर्माण केलेला (वायु:) वायू (अधिपती:) सर्वांचा पालनकर्ता (आसीत्) आहे, ज्याने (आरण्या:) वनात राहणार्या (पशव:) सिंह आदी पशूंची (असृज्यन्त) रचना केली आहे, त्या परमेश्वराची तुम्ही (पञ्चविंशत्या) अनेक लहान-मोठ्या वन्य प्राण्यांच्या अवयवांची म्हणजे त्यांच्या अवयवांतील अद्भुत रचना-कौशल्याची (अस्तुवत) स्तुती करा. ज्याद्वारे निर्मित (द्यावापृथिवी) आकाश आणि भूमी (ऐताम्) तुम्हांस प्राप्त झाले आहेत, ज्या निर्माण केल्यामुळे (वसव:) अग्नी आदी आठ पदार्थ अथवा प्रथम कोटीचे विद्वान (जगात) आहेत, तसेच (रुद्रा:) प्राण आदी वायू अथवा मध्यम कोटीचे विद्वान आहेत, तसेच (आदित्मा:) बारा महिने अथवा उत्तम विद्वान (अनुव्यायन्) (लोकांच्या कल्याण्याकरिता) उत्पन्न झाले आहेत व तुम्हास अनुकूल आहेत, (ते) (हे )(एव) अग्नी, प्राण व मास अथवा प्रथम, मध्यम, उत्तम कोटीचे विद्वान (अधिपतय:) सर्वांचे अधिपति (मार्गदर्शक) (आसन्) होतात, तुम्ही (सप्तविंशत्या) वन्य पशूंच्या अंगीं असलेल्या सत्तावीस गुणांनी त्या परमेश्वराची (अस्तुकत) स्तुती करा ॥30॥
भावार्थ
भावार्थ - हे मनुष्यांनो, ज्या परमात्म्याने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आणि शुद्र् या वर्णांची रचना केली आहे, ज्याने दस्युजनांची उत्पत्ती केली आहे (जे आपल्या पूर्वकर्मांचे फळ म्हणून दस्यु वा दरोडेखोर झाले आहेत) ज्याने विशाल आणि सुक्ष्म प्राण्यांचे शरीर रचले तसेच ज्याने लहान-बुद्र जीवांना देखील आपल्या रक्षणाचे सांधनें दिली आहेत, आणि ज्याचे रचलेल्या सृष्टीमधे अल्पज्ञ वा पूर्णज्ञ विद्वानही आहेत, तुम्ही त्या परमेश्वराची उपासना करीत जा ॥30॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O men God has created the day and night for work, and the Shudia and Arya. Praise Him through nineteen objects. He has created water, which is dear like life. He has created one-hoofed animals. Praise Him through twenty-one objects. He has created this strong Earth, the cause of our protection, and that of small animals. Praise Him through twenty-three objects. He has created the forest animals, and the air that rears us. Praise Him through twenty five objects. He has created the Heaven and Earth, the Vasus, the Rudras, and the Adityas. Those forces of nature and learned persons are our protectors. Praise Him through twenty-seven objects.
Meaning
With nineteen (ten pranas, five elements, mind, reason/intellect, memory and self-consciousness), worship Him who created the educated and the uneducated all, with the day-and-night cycle of time for work and rest as the power of control over work and rest. With twenty one (functions and faculties of the human body, mind and soul), worship Him who created the undivided hoofed animals with Varuna, water and the night, being the presiding power for the animals. With twenty three (parts of animals’ bodies), worship Him who created the little animals and insects with the natural sources of nutriment as the presiding power With twenty five (parts of small animals’ bodies) worship Him who created the wild animals of the forest with wind and speed as the presiding power. With twenty-seven (qualities of the wild animals), worship Him who created the heaven and the earth which are universal, and who also created the eight Vasus, eleven Rudras and the twelve Adityas existent within the heaven and earth and presiding over the life and nature in heaven and earth.
Translation
He is praised with nineteen; the sudras (labourers) and the aryas (employers) are created; Ahoratras (the pair of day and night) are their sovereigns. (1) He is praised with twenty-one; animals with solid hoofs are created; Varuna (the ocean) is their sovereign. (2) He is praised with twenty-three; the small animals are created; the Pusan (nourisher) is their sovereign. (3) He is praised with twenty-five; the wild animals are created; Vayu (the wind) is their sovereign. (4) He is praised with twenty-seven; the sky and earth are separated and thereafter Vasus (the elements), Rudras (vital breaths) and Adityas (luminary bodies) follow and they themselves are sovereigns. (5)
Notes
Navaviinéatya, with twenty nine, दश हस्त्या अंगुलयो दश पाद्या नव प्राणा:, ten fingers, ten toes and nine vital breaths. (Ibid . 4. 3. 17). Ekatriinóatà, with thirty-one, दश हस्त्या अंगुलयो दश पाद्या दश प्राणा आत्मा एकत्रिंश:, ten fingers, ten toes; ten vital breaths and thirty-first the Self. (Ibid VIII. 4. 3. 18). Trayastriin£ata, with thirty-three, दश हस्त्या अंगुलयो दश पाद्या दश प्राणा द्वे प्रतिष्ठे आत्मा त्रयस्त्रिंश:, ten fingers, ten toes, ten vital breaths, two feet and thirty-third the Self. (Ibid, VHI. 4. 3. 19). It requires much faith to assimilate these explanations. The figure thirty-three coincides with the number of Devas. According to Dayananda, these thirty three devas are; eight Vasus, eleven Rudras, twelve Adityas, Indra (the self) and Prajapati (God supreme).
बंगाली (1)
विषय
পুনঃ স কীদৃশ ইত্যাহ ॥
পুনঃ সে কেমন এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! তোমরা যাহা হইতে উৎপন্ন (অহোরাত্রে) দিন ও রাত্রি (অধিপত্নী) সব কাজ করাইবার অধিকারী (আস্তাম্) আছো, যিনি (শূদ্রার্য়্যৌ) শূদ্র ও আর্য্য দ্বিজ এই উভয়কে (অসৃজ্যেতাম্) রচিয়াছেন তাহার (নবদশভিঃ) দশ প্রাণ, পঞ্চমহাভূত, মন, বুদ্ধি, চিত্ত ও অহঙ্কার দিয়া (অস্তুবত) স্তুতি কর । যিনি উৎপন্ন করিয়াছেন (বরুণঃ) জল (অধিপতিঃ) প্রাণের সমান প্রিয় অধিষ্ঠাতা (আসীৎ) আছেন যিনি (একশফাঃ) এক খুর যুক্ত অশ্বাদি (পশবঃ) পশু (অসৃজয়ন্ত) রচনা করিয়াছেন তাহার (একবিংশত্যা) মনুষ্যদিগের একুশ অবয়ব দ্বারা (অস্তুবত) স্তুতি কর যিনি নির্মাণ করিয়াছেন (পূষা) পুষ্টিকারক ভূগোল (অধিপতিঃ) রক্ষাকারী (আসীৎ) আছেন যিনি (ক্ষুদ্রঃ) অতিসূক্ষ্ম জীব হইতে নকুল পর্য্যন্ত (পশবঃ) পশু (অসৃজন্ত) রচিয়াছেন তাহার (ত্রয়োবিংশত্যা) পশুদিগের তেইশ অবয়ব দ্বারা স্তুতি কর । যাহার দ্বারা নির্মিত (বায়ুঃ) বায়ু (অধিপতিঃ) পালক (আসীৎ) আছে যিনি (আরণ্যাঃ) বনের (পশবঃ) সিংহ আদি পশু (অসৃজ্যন্ত) রচিয়াছেন (পঞ্চবিংশত্যা) বহু প্রকারের ক্ষুদ্র ক্ষুদ্র বন্য পশুদিগের অবয়বের সঙ্গে অর্থাৎ সেই সব অবয়ব গুলির কারিগরী সহ (অস্তুবত) প্রশংসা কর । যিনি নির্মাণ করিয়াছেন (দ্যাবাপৃথিবী) আকাশ ও ভূমি (ব্যৈতাম্) প্রাপ্ত, যাহার নির্মাণ করিতে (বসবঃ) অগ্নি আদি আট পদার্থ অথবা প্রথম শ্রেণির বিদ্বান্ (রুদ্রাঃ) প্রাণ আদি বা মধ্যম বিদ্বান্ (আদিত্যাঃ) দ্বাদশ মাস বা উত্তম বিদ্বান্ (অনুব্যায়ন্) অনুকূলতাপূর্বক উৎপন্ন (তে) (এব) সেই সব অগ্নি আদির বিদ্বান্গণ (অধিপতয়ঃ) অধিষ্ঠাতা (আসন) হয় তাহার (সপ্তবিংশত্যা) সাতাইশ বনের পশুদের গুণগুলি দিয়া (অস্তুবত) স্তুতি কর ॥ ৩০ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! যিনি ব্রাহ্মণ, ক্ষত্রিয়, বৈশ্য ও শূদ্র ডাকাইত মনুষ্যও রচিয়াছেন, যিনি স্থূল তথা সূক্ষ্ম প্রাণিদিগের শরীর অত্যন্ত ক্ষুদ্র পশু এবং ইহাদের রক্ষার সাধন পদার্থ রচিয়াছেন এবং যাহার সৃষ্টিতে নূ্যন বিদ্যা এবং পূর্ণ বিদ্যা সম্পন্ন বিদ্বান্ হন সেই পরমাত্মাকে তোমরা উপাসনা কর ॥ ৩০ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
ন॒ব॒দ॒শভি॑রস্তুবত শূদ্রা॒র্য়্যাব॑সৃজ্যেতামহোরা॒ত্রেऽ অধি॑পত্নীऽ আস্তা॒মেক॑বিꣳশত্যাস্তুব॒তৈক॑শফাঃ প॒শবো॑ऽসৃজ্যন্ত॒ বরু॒ণোऽধি॑পতিরাসী॒ৎ । ত্রয়ো॑বিꣳশত্যাস্তুবত ক্ষু॒দ্রাঃ প॒শবো॑ऽসৃজ্যন্ত পূ॒ষাধি॑পতিরাসী॒ৎ । পঞ্চ॑বিꣳশত্যাস্তুবতাऽऽর॒ণ্যাঃ প॒শবো॑ऽসৃজ্যন্ত বা॒য়ুরধি॑পতিরাসীৎ । স॒প্তবি॑ꣳশত্যাস্তুবত॒ দ্যাবা॑পৃথি॒বী ব্যৈ॑তাং॒ বস॑বো রু॒দ্রোऽ আ॑দি॒ত্যাऽ অ॑নু॒ব্যা᳖য়ঁ॒স্তऽ এ॒বাধি॑পতয়ऽ আসন্ ॥ ৩০ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
নবদশভিরিত্যস্য বিশ্বদেব ঋষিঃ । জগদীশ্বরো দেবতা । পূর্বস্য স্বরাড্ ব্রাহ্মী জগতী ছন্দঃ । নিষাদঃ স্বরঃ । পঞ্চবিংশত্যেত্যস্য ব্রাহ্মী পংক্তিশ্ছন্দঃ ।
পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥
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