यजुर्वेद - अध्याय 14/ मन्त्र 16
इ॒षश्चो॒र्जश्च॑ शार॒दावृ॒तूऽ अ॒ग्नेर॑न्तःश्लेषोऽसि॒ कल्पे॑तां॒ द्यावा॑पृथि॒वी कल्प॑न्ता॒माप॒ऽ ओष॑धयः॒ कल्प॑न्ताम॒ग्नयः॒ पृथ॒ङ् मम॒ ज्यैष्ठ्या॑य॒ सव्र॑ताः। येऽ अ॒ग्नयः॒ सम॑नसोऽन्त॒रा द्यावा॑पृथि॒वीऽ इ॒मे। शा॒र॒दावृ॒तूऽ अ॑भि॒कल्प॑माना॒ऽ इन्द्र॑मिव दे॒वाऽ अ॑भि॒संवि॑शन्तु॒ तया॑ दे॒वत॑याङ्गिर॒स्वद् ध्रु॒वे सी॑दतम्॥१६॥
स्वर सहित पद पाठइ॒षः। च॒। ऊ॒र्जः। च। शा॒र॒दौ। ऋ॒तूऽइत्यृ॒तू। अ॒ग्नेः। अ॒न्तः॒श्ले॒ष इत्य॑न्तःऽश्ले॒षः। अ॒सि॒। कल्पे॑ताम्। द्यावा॑पृथि॒वी इति॒ द्यावा॑ऽपृथि॒वी। कल्प॑न्ताम्। आपः॑। ओष॑धयः। कल्प॑न्ताम्। अ॒ग्नयः॑। पृथ॑क्। मम॑। ज्यैष्ठ्याय॑। सव्र॑ता॒ इति॒ सऽव्र॑ताः। ये। अ॒ग्नयः॑। सम॑नस॒ इति॒ सऽम॑नसः। अ॒न्त॒रा। द्यावा॑पृथि॒वी इति॒ द्यावा॑पृथि॒वी। इ॒मेऽइती॒मे। शा॒र॒दौ। ऋ॒तूऽइत्यृ॒तू। अ॒भि॒कल्प॑माना॒ इत्य॑भि॒ऽकल्प॑मानाः। इन्द्र॑मि॒वेतीन्द्र॑म्ऽइव। दे॒वाः। अ॒भि॒संवि॑श॒न्त्वित्य॑भि॒ऽसंवि॑शन्तु। तया॑। दे॒वत॑या। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। ध्रु॒वेऽइति॑ ध्रु॒वे। सी॒द॒त॒म् ॥१६ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इषश्चोर्जश्च शारदावृतूऽअग्नेरन्तःश्लेषो सि कल्पेतान्द्यावापृथिवी कल्पन्तापऽओषधयः कल्पन्तामग्नयः पृथङ्मम ज्यैष्ठ्याय सव्रताः । येऽअग्नयः समनसोन्तरा द्यावापृथिवीऽइमे शारदावृतूऽअभिकल्पमानाऽइन्द्रमिव देवाऽअभिसँविशन्तु तया देवतयाङ्गिरस्वद्धरुवे सीदतम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
इषः। च। ऊर्जः। च। शारदौ। ऋतूऽइत्यृतू। अग्नेः। अन्तःश्लेष इत्यन्तःऽश्लेषः। असि। कल्पेताम्। द्यावापृथिवी इति द्यावाऽपृथिवी। कल्पन्ताम्। आपः। ओषधयः। कल्पन्ताम्। अग्नयः। पृथक्। मम। ज्यैष्ठ्याय। सव्रता इति सऽव्रताः। ये। अग्नयः। समनस इति सऽमनसः। अन्तरा। द्यावापृथिवी इति द्यावापृथिवी। इमेऽइतीमे। शारदौ। ऋतूऽइत्यृतू। अभिकल्पमाना इत्यभिऽकल्पमानाः। इन्द्रमिवेतीन्द्रम्ऽइव। देवाः। अभिसंविशन्त्वित्यभिऽसंविशन्तु। तया। देवतया। अङ्गिरस्वत्। ध्रुवेऽइति ध्रुवे। सीदतम्॥१६॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ शरदृतुर्व्याख्यायते॥
अन्वयः
हे मनुष्याः। याविषश्चोर्जश्च शारदावृतू यथा मम ज्यैष्ठ्याय भवतो ययोरग्नेरन्तःश्लेषोऽ(स्य)स्ति। तो द्यावापृथिवी कल्पेतामाप ओषधयश्च कल्पन्ताम्। सव्रता अग्नयः पृथक् कल्पन्ताम्। येऽन्तरा समनसोऽग्नय इमे द्यावापृथिवी कल्पेताम्। शारदावृतू इन्द्रमिवाभि कल्पमाना देवा अभिसंविशन्तु, तथा तया देवतया सह ध्रुवे सीदतं गच्छतः॥१६॥
पदार्थः
(इषः) इष्यतेऽसावाश्विनो मासः (च) (ऊर्जः) ऊर्जन्ति सर्वे पदार्थो यस्मिन् स कार्त्तिकः (च) (शारदौ) शरदि भवौ (ऋतू) बलप्रदौ (अग्नेः) (अन्तःश्लेषः) मध्यस्पर्शः (असि) अस्ति (कल्पेताम्) (द्यावापृथिवी) (कल्पन्ताम्) (आपः) (ओषधयः) (कल्पन्ताम्) (अग्नयः) बहिःस्थाः (पृथक्) (मम) (ज्यैष्ठ्याय) प्रशस्तसुखभावाय (सव्रताः) सनियमाः (ये) (अग्नयः) शरीरस्थाः (समनसः) मनसा सह वर्त्तमानाः (अन्तरा) मध्ये (द्यावापृथिवी) (इमे) (शारदौ) (ऋतू) (अभिकल्पमानाः) (इन्द्रमिव) (देवाः) (अभिसंविशन्तु) (तया) (देवतया) सह (अङ्गिरस्वत्) आकाशवत् (ध्रुवे) निश्चलसुखे (सीदतम्) सीदतः। अत्र पुरुषव्यत्ययः। [अयं मन्त्रः शत॰८.३.२.६ व्याख्यातः]॥१६॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। हे मनुष्याः! ये शरद्युपयुक्ताः पदार्थाः सन्ति तान् यथायोग्यं संस्कृत्य सेवध्वम्॥१६॥
हिन्दी (3)
विषय
अब शरद् ऋतु का व्याख्यान अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
हे मनुष्यो! जैसे (इषः) चाहने योग्य क्वार महीना (च) और (ऊर्जः) सब पदार्थों के बलवान् होने का हेतु कार्त्तिक (च) ये दोनों (शारदौ) शरद् (ऋतू) ऋतु के महीने (मम) मेरे (ज्यैष्ठ्याय) प्रशंसित सुख होने के लिये होते हैं। जिन के (अन्तःश्लेषः) मध्य में किञ्चित् शीतस्पर्श (असि) होता है, वे (द्यावापृथिवी) आकाश और पृथिवी को (कल्पेताम्) समर्थ करें, (आपः) जल और (ओषधयः) औषधियां (कल्पन्ताम्) समर्थ होवें, (सव्रताः) सब कार्यों के नियम करने हारे (अग्नयः) शरीर के अग्नि (पृथक्) अलग (कल्पन्ताम्) समर्थ हों (ये) जो (अन्तरा) बीच में (समनसः) मन के सम्बन्धी (अग्नयः) बाहर के भी अग्नि (इमे) इन (द्यावापृथिवी) आकाश भूमि को (कल्पेताम्) समर्थ करें, (शारदौ) शरद् (ऋतू) ऋतु के दोनों महीनों में (इन्द्रमिव) परमैश्वर्य के तुल्य (अभिकल्पमानाः) सब ओर से आनन्द की इच्छा करते हुए (देवाः) विद्वान् लोग (अभिसंविशन्तु) प्रवेश करें (तया) उस (देवतया) दिव्य शरद् ऋतु रूप देवता के नियम के साथ (ध्रुवे) निश्चल सुख वाले (सीदतम्) प्राप्त होते हैं, वैसे तुम लोगों को (ज्यैष्ठ्याय) प्रशंसित सुख होने के लिये भी होने योग्य हैं॥१६॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे मनुष्यो! जो शरद् ऋतु में उपयोगी पदार्थ हैं, उन को यथायोग्य शुद्ध करके सेवन करो॥१६॥
विषय
वर्षा शरद के दृष्टान्त से राजा का वर्णन ।
भावार्थ
( इषः च ऊर्जः च शारदौ ऋतू ) इष और ऊर्ज ये दोनों शरद ऋतु के दो मास हैं । ( अग्ने सीदतम् इत्यादि ) देखो अ० १२। म० २५॥ शत० ८ । ३ । २ । ५-१३ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वेदेवाः ऋषयः । ऋतवो देवता । स्वराड् उत्कृतिः । षड्जः ॥
विषय
इष+ ऊर्ज- शरत्
पदार्थ
१. तुम (इष:) = [इष प्रेरणे - प्र + ईर=प्रकृष्ट गति] प्रकृष्ट गतिवाले होओ (च) = तथा (ऊर्ज:) = बल व प्राणशक्ति-सम्पन्न बनो। ('इष') = आश्विनमास का नाम है - इसी में क्षत्रिय घोड़ों को [अश्वों को] काठी लगाकर यात्राओं के लिए निकलते हैं, उसी प्रकार तुम्हारा जीवन भी इन्द्रियाश्वों पर आरुढ़ होकर गतिवाला हो। आत्मवश्य इन्द्रियों से विचरण ही यात्रापूर्ति का साधन है। ('ऊर्ज') = कार्त्तिक मास का नाम है-'कृन्तन' - शत्रुओं का छेदन-भेदन करने के लिए तुम्हें भी बल व पराक्रमवाला बनना है। २. शक्तिशाली बनकर (शारदौ) = तुम शारद बनो - शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले बनों। जैसे शरद में सब पत्ते झड़ जाते हैं, उसी प्रकार तुमसे सब बुराइयाँ झड़ जाएँ। (ॠतू) = तुम नियमित गतिवाले बनो। ३. (अग्नेः अन्तः श्लेषः असि) = हृदय में प्रभु का आलिङ्गन करनेवाले बनों । ४. (द्यावापृथिवी कल्पेताम्) = तुम्हारे शरीर व मस्तिष्क शक्तिशाली हों । ५. उसके लिए (आपः ओषधयः कल्पन्ताम्) = जल व ओषधियाँ तुम्हें शक्तिशाली बनाएँ। ६. (अग्नयः) = माता-पिता व आचार्यरूप अग्नियाँ (मम ज्यैष्ठयाय) = मेरी ज्येष्ठता के सम्पादन के लिए (सव्रताः) = समान व्रतवाले होकर (पृथक्) = अलग-अलग, क्रमशः ५, ८ व २५ वर्ष तक (कल्पन्ताम्) = समर्थ हों। ये मेरे जीवन को खूब उन्नत कर दें। ७. (इमे द्यावापृथिवी अन्तरा) = इस द्युलोक व पृथिवीलोक के मध्य में (अग्नयः) = जो भी माता-पिता व आचार्य हैं, वे (समनसः) = समान मनवाले हों। उनकी समानरूप से एक ही कामना हो कि इस राष्ट्र की भावी सन्तति को उत्तम ज्येष्ठ बनाना है। ८. (शारदौ) = इस प्रकार उत्तम बने हुए युवक और युवति सब बुराइयों को शीर्ण करनेवाले हों। (ऋतू) = नियमित गतिवाले हों। (अभिकल्पमाना) = शरीर व बुद्धि दोनों को समर्थ बनाएँ। अभ्युदय व निःश्रेयस दोनों का साधन करें। ९. (इन्द्रमिव) = इन्द्र की भाँति बने हुए इस व्यक्ति को (देवाः अभिसंविशन्तु) = सब देवता प्राप्त हों । १०. सब देवताओं के समावेश से देव बनकर तया देवतया उस महादेव के साथ, अर्थात् उसकी उपासना करते हुए (अङ्गिरस्वत्) = अङ्ग अङ्ग में रसवाले की भाँति, अर्थात् शक्तिशाली अङ्गोंवाले होते हुए (ध्रुवे सीदतम्) = ध्रुव होकर मर्यादित जीवनवाले होकर घर में विराजो ।
भावार्थ
भावार्थ- पति-पत्नी गतिशील हों। गतिशीलता से शक्तिशाली बनें। शक्ति से सब शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले हों। नियमित गतिवाले होकर, प्रभु की उपासना से अङ्ग अङ्ग में रस का सञ्चार करें और ध्रुव होकर घर में निवास करें।
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जे पदार्थ शरद ऋतूमध्ये उपयोगी आहेत त्यांना यथायोग्य रीतीने शुद्ध करून त्यांचे सेवन करा.
विषय
पुढील मंत्रात शदर ऋतूविषयी व्याख्यान केले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे मनुष्यांनो, (इष:) प्रिय आणि वांछनीय असलेला हा आश्विन महिना (च) आणि (ऊर्ज:) सर्व पदार्थांना गुणवृद्धी देणारा हा कार्तिक महिना (च) आणि हे दोन्ही मिळून (शारदौ) (ऋतू) शरदऋतूचे महिने आहेत. ते जसे (मम) माझ्या (ज्येष्ठ ज्ञानी मनुष्याच्या) (ज्यैष्ठ्याय) सुखासाठी आहेत, (तसेच तुमच्यासाठीही सुखावह आहेत) या महिन्यांत (अन्त:श्लेष:) थंडीचा किंचित स्पर्श (असि) अस्ति असतो. (थंडी सुरू होतो) ते दोन महिने (द्यावापृथिवी) आकाशाला आणि पृथ्वीला (कल्पेताम्) समर्थ वा अधिक प्रभावकारी करोत या ऋतूत (आप:) जल आणि (ओषधय:) औषधी (कल्पेताम्) समर्थ वा गुणवती व्हाव्यात. (सव्रता:) सर्व कार्य नियमांप्रमाणे करणारा (अग्नय:) शरीरातील अग्नी (शक्ती व ऊर्जा) (पृथक्) वेगवेगळ्या रूपाने (कल्पन्ताम्) समर्थ होवो. (ये) जो अग्नी (अन्तरा) पदार्थांमधे आहे वा जो (समन्स:) मनविषयक आणि (अग्नय:) जो बाहेर प्रत्यक्ष आग आहे, तो अग्नी (इमे) या (द्यावापृथिवी) आकाश आणि भूमीला (कल्पताम्) शक्तिसंपन्न करो. (शारदौ) (ऋतू) शरद ऋतूच्या दोन महिन्यांमधे (इन्द्रमिव) ऐश्वर्यवान होण्यासाठी व (अभिरुल्यमाना:) सर्वदृष्ट्या शक्ती आणि आनंदाची कामना करीत (देवा:) विद्वान लोकांनी (अभिसंविदान्तु) प्रवेश करावा (यत्नशील व्हावे) (तया) त्या (देवतया) दिव्य शरद ऋतू रुप देवतेच्या नियमांचे पालन करीत विद्वज्जन (धु्रवे) स्थायी सुख (सीदत्यम्) प्राप्त करतात. तद्वत तुम्ही सर्व लोकांनाही पाहिजे की (ज्यैष्ठ्याय) प्रशंसनीय सुखाच्या प्राप्तीकरिता तुम्ही (शरद ऋतूत योग्य त्या) नियमांचे पालन करावे ॥16॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात उपमा अलंकार आहे. हे मनुष्यांनो, जे पदार्थ शरद ऋतूत उपयोगी आणि आवश्यक आहेत, तुम्ही त्या पदार्थांना शुद्ध स्वच्छ करून त्यांचे सेवन करीत जा ॥ 16॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O men, Aswin (September-October) and Kartik (October-November) constitute the Autumn season. Both these months contribute to my enjoyable comforts. In them there is the touch of heat and cold. Let them make the Sky and Earth thrive. Let waters and plants grow by their means. Let the fires of our body that regulate all actions function separately. Let the learned people enter these two months gloriously, desiring for happiness. O husband and wife live together firmly like space, in this good season.
Meaning
The lovely Ashwin and vigorous Kartika are months of the autumn season. You have the warmth of agni at heart. May the earth and heaven, the waters, the herbs and trees, and all the orders of agni (heat and light), each according to its own law and function, be favourable to us for the gift of excellence. May all the vital fires in earth and heaven, integrated and harmonious, energizing the months of autumn like powers of nature serving the Lord, Indra, bless and vitalize us in all ways. Just as heaven and earth abide by God, as autumn abides by agni, so should we abide by the Lord, nature and autumn like life with breath, Prakriti with Purusha and part with the whole.
Translation
Isa and urja (asvina and karttika, i. e. September and October) are the two months of the autumn season. You are the internal cementing force of the fire. May heaven and earth help, may the waters and the herbs help, may the fires also help individually with unity of action in establishing my superiority. May all those fires, which exist between heaven and earth, one-minded and helping in this performance, gather around these two autumn months of the season, just as the enlightened ones gather around the resplendent Lord. May both of you be seated firmly with that divinity shining bright. (1)
Notes
See XIV. 15. Isasca ürja$ca, asvina and karttika months (mid-September to mid-October and mid-October to mid-November).
बंगाली (1)
विषय
অথ শরদৃতুর্ব্যাখ্যায়তে ॥
এখন শরদ ঋতুর ব্যাখ্যান পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! যেমন (ইষঃ) চাহিবার যোগ্য আশ্বিন মাস (চ) এবং (ঊর্জঃ) সকল পদার্থের বলবান হওয়ার হেতু কার্ত্তিক (চ) এই উভয়ে (শারদৌ) শরদ্ (ঋতু) ঋতুর মাস (মম) আমার (জৈষ্ঠায়) প্রশংসিত সুখ হওয়ার জন্য হয় । যাহার (অন্তঃশ্লেষঃ) মধ্যে কিঞ্চিৎ শীতস্পর্শ (অসি) হয় সেগুলি (দ্যাবাপৃথিবী) অবকাশও পৃথিবী কে (কল্পেতাম্) সমর্থ করুক (আপঃ) জল ও (ওষধয়ঃ) ওষধিগুলি (কল্পন্তাম্) সমর্থ হউক্ (সব্রতাঃ) সব কার্য্যে নিয়মকারী (অগ্নয়ঃ) শরীরের অগ্নি (পৃথক্) পৃথক (কল্পন্তাম্) সমর্থ হউক । (য়ে) যাহা (অন্তরা) মধ্যে (সমনসঃ) মনসম্বন্ধীয় (অগ্নয়ঃ) বাহিরেরও অগ্নি (ইমে) এই সব (দ্যাবাপৃথিবী) আকাশ, ভূমিকে (কল্পেতাম) সমর্থ করুক, (শারদৌ) শরদ (ঋতূ) ঋতুর দুই মাসে (ইন্দ্রমিব) পরমেশ্বর তুল্য (অভিকল্পমানাঃ) সব দিক্ দিয়া আনন্দের কামনা করিয়া (দেবাঃ) বিদ্বান্গণ (অভিসংবিশতু) প্রবেশ করুক (তয়া) সেই (দেবতয়া) দিব্য শরদ ঋতু রূপ দেবতার নিয়ম সহ (ধ্রুবে) নিশ্চল সুখ যুক্ত (সীদতম্) প্রাপ্ত হয় সেইরূপ তোমাদিগকে (জ্যৈষ্ঠায়) প্রশংসিত সুখ হওয়ার জন্যও হওয়ার যোগ্য ॥ ১৬ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে উপমালঙ্কার আছে । হে মনুষ্যগণ । যাহা শরদ ঋতুতে উপযোগী পদার্থ উহাদেরকে যথাযোগ্য শুদ্ধ করিয়া সেবন কর ॥ ১৬ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
ই॒ষশ্চো॒র্জশ্চ॑ শার॒দাবৃ॒তূऽ অ॒গ্নের॑ন্তঃশ্লেষো᳖ऽসি॒ কল্পে॑তাং॒ দ্যাবা॑পৃথি॒বী কল্প॑ন্তা॒মাপ॒ऽ ওষ॑ধয়ঃ॒ কল্প॑ন্তাম॒গ্নয়ঃ॒ পৃথ॒ঙ্ মম॒ জ্যৈষ্ঠ্যা॑য়॒ সব্র॑তাঃ । য়েऽ অ॒গ্নয়ঃ॒ সম॑নসোऽন্ত॒রা দ্যাবা॑পৃথি॒বীऽ ই॒মে । শা॒র॒দাবৃ॒তূऽ অ॑ভি॒কল্প॑মানা॒ऽ ইন্দ্র॑মিব দে॒বাऽ অ॑ভি॒সংবি॑শন্তু॒ তয়া॑ দে॒বত॑য়াঙ্গির॒স্বদ্ ধ্রু॒বে সী॑দতম্ ॥ ১৬ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ইষশ্চেত্যস্য বিশ্বেদেবা ঋষয়ঃ । ঋতবো দেবতাঃ । উৎকৃতিশ্ছন্দঃ ।
ষড্জঃ স্বরঃ ॥
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