यजुर्वेद - अध्याय 14/ मन्त्र 21
ऋषिः - विश्वदेव ऋषिः
देवता - विदुषी देवता
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
89
मू॒र्द्धासि॒ राड् ध्रु॒वासि॑ ध॒रुणा॑ ध॒र्त्र्यसि॒ धर॑णी। आयु॑षे त्वा॒ वर्च॑से त्वा कृ॒ष्यै त्वा॒ क्षेमा॑य त्वा॥२१॥
स्वर सहित पद पाठमू॒र्द्धा। अ॒सि॒। राट्। ध्रु॒वा। अ॒सि॒। ध॒रुणा॑। ध॒र्त्री। अ॒सि॒। धर॑णी। आयु॑षे। त्वा॒। वर्च॑से। त्वा॒। कृ॒ष्यै। त्वा॒। क्षेमा॑य। त्वा॒ ॥२१ ॥
स्वर रहित मन्त्र
मूर्धासि राड्धु्रवासि धरुणा धर्त्र्यसि धरणी । आयुषे त्वा वर्चसे त्वा कृष्यै त्वा क्षेमाय त्वा ॥
स्वर रहित पद पाठ
मूर्द्धा। असि। राट्। ध्रुवा। असि। धरुणा। धर्त्री। असि। धरणी। आयुषे। त्वा। वर्चसे। त्वा। कृष्यै। त्वा। क्षेमाय। त्वा॥२१॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
किंप्रकारिकया विदुष्या भवितव्यमित्याह॥
अन्वयः
हे स्त्रि! या त्वं सूर्य्यवन्मूर्द्धासि, राडिव ध्रुवासि, धरुणा धरणीव धर्त्र्यसि, तामायुषे त्वा वर्चसे त्वा कृष्यै त्वा क्षेमाय त्वा त्वामहं परिगृह्णामि॥२१॥
पदार्थः
(मूर्द्धा) उत्कृष्टा (असि) (राट्) राजमाना (ध्रुवा) दृढा स्वकक्षायां गच्छन्त्यपि निश्चला (असि) (धरुणा) पुष्टिकर्त्री (धर्त्री) धारिका (असि) अस्ति (धरणी) आधारभूता (आयुषे) जीवनाय (त्वा) त्वाम् (वर्चसे) अन्नाय (त्वा) त्वाम् (कृष्यै) कृषिकर्मणे (त्वा) त्वाम् (क्षेमाय) रक्षायै (त्वा) त्वाम्। [अयं मन्त्रः शत॰८.३.४.६ व्याख्यातः]॥२१॥
भावार्थः
यथोत्तमाङ्गेन स्थितेन शिरसा सर्वेषां जीवनं, राज्येन लक्ष्मीः, कृष्या अन्नादिकं, निवासेन रक्षणं जायते, सेयं सर्वेषामाधारभूता मातृवन्मान्यकर्त्री भूमिवर्त्तते, तथा सती विदुषी स्त्री भवेदिति॥२१॥
हिन्दी (3)
विषय
विदुषी स्त्री कैसी हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
हे स्त्रि! जो तू सूर्य्य के तुल्य (मूर्द्धा) उत्तम (असि) है, (राट्) प्रकाशमान निश्चल के समान (ध्रुवा) निश्चल शुद्ध (असि) है, (धरुणा) पुष्टि करने हारी (धरणी) आधार रूप पृथिवी के तुल्य (धर्त्री) धारण करने हारी (असि) है, उस (त्वा) तुझे (आयुषे) जीवन के लिये, उस (त्वा) तुझे (वर्चसे) अन्न के लिये, उस (त्वा) तुझे (कृष्यै) खेती होने के लिये और उस (त्वा) तुझ को (क्षेमाय) रक्षा होने के लिये मैं सब ओर से ग्रहण करता हूं॥२१॥
भावार्थ
जैसे स्थित उत्तमांग शिर से सब का जीवन, राज्य से लक्ष्मी, खेती से अन्न आदि पदार्थ और निवास से रक्षा होती है, सो यह सब का आधारभूत माता के तुल्य मान्य करने हारी पृथिवी है, वैसे ही विद्वान् स्त्री को होना चाहिये॥२१॥
विषय
नियामक राजशक्ति का वर्णन ।
भावार्थ
हे राजशक्ते ! तू (मूर्धा वा राट् असि ) द्यौ या सूर्य के समान सब से उच्च शिरोभाग पर स्थित है। तू 'राष्ट्र' अर्थात् सूर्य के समान ही तेजस्विनी है। ( ध्रुवा धरुणा असि ) ध्रुवा दिशा जिस प्रकार सब का आश्रय है उसी प्रकार तू भी स्थिर होकर राष्ट्र को धारण करने वाली है । ( धर्त्री धरणी असि ) तू समस्त प्रजा को धारण करने वाली और धरणी भूमि के समान सबका आधार है। इसी प्रकार घर में स्त्री सब के ऊपर सूर्य-प्रभा के समान गुणों से प्रकाशित, आश्रयस्तम्भ के समान स्थिर और पृथ्वी के समान सब गृहस्थ का धारण करने वाली है तुझको मैं (आयुषे) आयु, जीवनवृद्धि के लिये ( वर्चसे ) तेज की वृद्धि के लिये ( कृष्यै ) खेती, अन्नादि की उत्पत्ति के लिये और ( क्षेत्राय ) प्रजा की सुख वृद्धि के लिये ( त्वा ४ ) तुझ को स्वीकार करता हूं ॥ शत० ८ । ३ । ४ । १-८ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वेदेवा ऋषयः । प्राणाः विदुषी देवता । निचृद् अनुष्टुप् । ऋषभः ।।
विषय
मूर्धा-ध्रुवा-धर्त्री
पदार्थ
१. (मूर्धा असि) = [एष वै मूर्धा य एष सूर्यः तपतिः - श० १३।४।१।१३] तू सूर्य की भाँति ज्ञान की दीप्ति से चमकनेवाली है, और अतएव (राट्) = बड़े व्यवस्थित [regulated] जीवनवाली है। ज्ञान हमारे जीवन को व्यवस्थित कर देता है। प्रभु के ज्ञानमय तप से ऋत और सत्य की उत्पत्ति होती है। हमारे जीवन में भी ज्ञान से इस ऋत और सत्य की उत्पत्ति क्यों न होगी? एवं ज्ञान हमारे जीवनों में व्यवस्था लाता है। उस व्यवस्था के कारण जीवन चमक उठता है [राज् दीप्तौ] २. (ध्रुवा असि) = [ इयं पृथिवी एव ध्रुवा - श० २।३।२।४] तू इस पृथिवी के समान ध्रुवा बनती है, मर्यादा में चलनेवाली होती है। स्तुति-निन्दा, हानि-लाभ व जीवन-मरण के प्रलोभन तुझे नीति मार्ग से विचलित नहीं कर पाते, अतएव तू (धरुणा) = सबका धारण करनेवाली बनती है। ध्रुव पृथिवी जैसे सबका धारण करती है, उसी प्रकार ध्रुव बनकर तू भी सबका धारण करनेवाली होती है । ३. (धर्त्री असि) = [वायुर्वाव. धर्त्रम् - श० ८।४।१ । २६] तू वायु के समान सबके जीवन का धारण करनेवाली है, गति के द्वारा सब बुराइयों का गन्धन - हिंसन करनेवाली है [वा गतिगन्धनयो: ], अतएव (धरणी) = स्वास्थ्य के धरण [रक्षण] से दीर्घायुष्य का धारण करनेवाली बनती है। ५. मैं (त्वा) = तेरा सखित्व आयुषे दीर्घजीवन के लिए स्वीकार करता हूँ । (त्वा) = तेरा सखित्व वर्चसे वर्चस के लिए होता है। (कृष्यै त्वा) = मैं तेरा सखा बनता हूँ, जिससे हम मिलकर अपने इस कृषिकर्म को उन्नत कर पाएँ और इस प्रकार (क्षेमाय त्वा) = मैं तुझे योगक्षेम के साधन के लिए अपनाता हूँ। वस्तुत: आदर्श जीवन वही है जिसमें लोग श्रमपूर्वक योगक्षेम को सिद्ध करते हैं और इस प्रकार अपने जीवन को दीर्घ व शक्तिशाली बना पाते हैं।
भावार्थ
भावार्थ - गृहपत्नी ज्ञान द्वारा सूर्य की भाँति चमके, पृथिवी के समान धारण करनेवाली हो और वायु के समान शरीर के स्वास्थ्य को सुरक्षित करनेवाली हो। वायु बनकर आयु का स्थापन करे।
मराठी (2)
भावार्थ
सर्वात उत्तम अवयव म्हणजे मेंदू. त्यामुळे सर्वांचे जीवन बनते. लक्ष्मीमुळे राज्य टिकते. शेतीमुळे अन्न इत्यादी पदार्थ मिळतात व घरामुळे सर्वांचे रक्षण होते. पृथ्वी ही सर्वांचा आधार असलेल्या मातेसमान असते त्यासाठी विदुषी स्त्रीने त्याप्रमाणे (मातेसमान) तसे वागावे.
विषय
विदुषी स्त्री कशी असावी, पुढील मंत्रात हा विषय प्रतिपादित आहे-
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (पती पत्नीस म्हणत आहे अथवा विवाहसंस्काराच्या वेळी पाणिग्रहण-विधी करतांना वर म्हणत आहे, असा या मंत्राचा संदर्भ सांगता येतो) हे पत्नी, (वा हे वधू,) तू सूर्याप्रमाणे (मूर्द्धा) सर्वांहून उत्तम (असि) आहेत. (राट्) प्रकाशाप्रमाणे कीर्तिमंत आणि (ध्रुवा) (या घरात) स्थिर वा स्थिर राहणारी (असि) आहेस. (धरुणा) पुष्टिकारी (धरणी) आधाररुप पृथ्वीप्रमाणे तू (धर्त्री) या घरात सर्वांना सुखविणारी व घराचा आधार (असि) आहेत वा हो. अशा (त्वा) तुला मी (आयुवे) दीर्घ जीवनासाठी (त्वा) तुला ग्रहण करीत आहे (वर्चसे) अन्नधान्यासाठी आणि (त्वा) तुला (कृष्यै) कृषिकर्मात सहाय्य करण्यासाठी आणि (त्वा) तुला (क्षेत्राय) तुझे आणि माझे क्षेम-कुशल होण्यासाठी सत्य मनाने ग्रहण करीत आहे. ॥21॥
भावार्थ
भावार्थ - शरीरातील उत्तमांग म्हणजे शीर, शिरामुळे सर्वांचे जीवन आहे सुराज्यामुळे लक्ष्मी (धन-संपदा) असते, कृषीमुळे अन्न-धान्य आदी पदार्थ प्राप्त होतात आणि घरामुळे रक्षण होते. ही पृथ्वी सर्वांचा आधार असून मातेप्रमाणे माननीय आहे, विदुषी स्त्रियांनी या पृथ्वीप्रमाणे असावे. ॥21॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O woman, thou art excellent like the sun, thou art pure and firm like the lustrous sun that moves in its orbit. Thou art the rearer of progeny like the nourishing earth. I accept thee for longevity, for food, for agriculture, for peace and happiness.
Meaning
Noble woman of knowledge and virtue, you are brilliant on top and firm, the support, sustenance and foundation of life like the earth. I accept and honour you for the sake of life and health, light and lustre, food and farming, and protection and presence of the home.
Translation
You are the apex, brilliant and bright. (1) You are set firm, supporting others. (2) You are sustainer like earth. (3) I invoke you for long life. (4) You for lustre. (5) You for farming. (6) You for comprehensive good. (7)
Notes
This verse is addressed to the lady of the house. Murdha, शिरोभूता, head; apex. Rat, या राजते सा, one that shines; or one that rules. Dharuna, dhartri and dharani, have more or less the same meaning being derived from the same verb root У to support. Krsyai, सस्यनिष्पत्त्तये, for producing food grains; for farmIng. Tva, त्वां परिगृह्ण्णामि इति शेष: (І accept) you. ‘I accept’ is to be understood. The wording of this and the following verse shows that it has nothing to do with the bricks of any type.
बंगाली (1)
विषय
কিংপ্রকারিকয়া বিদুষ্যা ভবিতব্যমিত্যাহ ॥
বিদুষী স্ত্রী কেমন হইবেন এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে স্ত্রী ! তুমি সূর্য্যতুল্য (মূর্দ্ধা) উত্তম (অসি) হও, (রাট্) প্রকাশমান নিশ্চলের সমান (ধ্রুবা) নিশ্চল শুদ্ধ (অসি) হও, (ধরুণা) পুষ্টিকারিণী (ধরণী) আধাররূপ পৃথিবীর তুল্য (ধর্ত্রী) ধারণকারিণী (অসি) হও, সেই (ত্বা) তোমাকে (আয়ুষে) জীবনের জন্য, সেই (ত্বা) তোমাকে (বর্চসে) অন্নের জন্য, সেই (ত্বা) তোমাকে (কৃষ্যৈ) কৃষি হওয়ার জন্য, এবং সেই (ত্বা) তোমাকে (ক্ষেমায়) রক্ষা করিবার জন্য আমি সব দিক দিয়া গ্রহণ করি ॥ ২১ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- যেমন স্থিত উত্তমাঙ্গ শির হইতে, সকলের জীবন রাজ্য হইতে, লক্ষ্মী কৃষি হইতে অন্নাদি পদার্থ এবং নিবাস দ্বারা রক্ষা হয় সুতরাং এই সবের আধারভূত মাতৃতুল্য মান্যকারিণী পৃথিবীর ন্যায় বিদ্বান্ স্ত্রীকে হওয়া উচিত ॥ ২১ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
মূ॒র্দ্ধাসি॒ রাড্ ধ্রু॒বাসি॑ ধ॒রুণা॑ ধ॒র্ত্র্য᳖সি॒ ধর॑ণী ।
আয়ু॑ষে ত্বা॒ বর্চ॑সে ত্বা কৃ॒ষ্যৈ ত্বা॒ ক্ষেমা॑য় ত্বা ॥ ২১ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
মূর্দ্ধাসীত্যস্য বিশ্বদেব ঋষিঃ । বিদুষী দেবতা । নিচৃদনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
গান্ধারঃ স্বরঃ ॥
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