अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 130/ मन्त्र 11
ऋषिः -
देवता - प्रजापतिः
छन्दः - प्राजापत्या गायत्री
सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
46
एन॑श्चिपङ्क्ति॒का ह॒विः ॥
स्वर सहित पद पाठएन॑श्चिपङ्क्ति॒का । ह॒वि: ॥१३०.११॥
स्वर रहित मन्त्र
एनश्चिपङ्क्तिका हविः ॥
स्वर रहित पद पाठएनश्चिपङ्क्तिका । हवि: ॥१३०.११॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
मनुष्य के लिये पुरुषार्थ का उपदेश।
पदार्थ
(एनश्चिपङ्क्तिका) पाप के नाश का फैलानेवाला (हविः) देन-लेन [होवे] ॥११॥
भावार्थ
मनुष्य सत्य से व्यवहार करके धन प्राप्त करे ॥११, १२॥
टिप्पणी
११−(एनश्चिपङ्क्तिका) वातेर्डिच्च। उ० ४।१३४। एनः+चन श्रद्धोपहननयोः-इण् डित्। वृतेस्तिकन्। उ० ३।१४६। पचि व्यक्तीकरणे विस्तारवचने-तिकन्। सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। विभक्तेराकारः
विषय
प्रदुद्रुदो मघाप्रति
पदार्थ
१. गतमन्त्र में वर्णित सोमरक्षक पुरुष के जीवन में (एनः चिपङ्क्तिका) = [चि चयने, पचि विस्तारे] पाप का चयन [बीनना] करके परे फेंकने का विस्तार होता है। यह हृदयक्षेत्र में से अशुभ वृत्तियों को चुन-चुनकर बाहर फेंक देता है और (हविः) = सदा दानपूर्वक अदन को अपनाता है[हु दानादनयोः]। यह सदा यज्ञशेष का खानेवाला बनता है। २. इसी हवि का परिणाम होता है कि यह (मघा प्रति) = ऐश्वर्यों की ओर (प्रदः) = प्रकृष्ट गतिबाला व उन ऐश्वयों को दान में देनेवाला होता है। यह न्याय्य मार्गों से धनों का खूब ही अर्जन करता है और उन धनों का यज्ञों में विनियोग करके यज्ञशेष को ही खानेवाला बनता है।
भावार्थ
सोम का रक्षण करनेवाला व्यक्ति [१] अपने हृदयक्षेत्र से वासनाओं के घास फूस को चुन-चुनकर निकाल फेंकता है। [२] सदा दानपूर्वक अदन [भक्षण] करता है। ३. ऐश्वर्यों के प्रति न्याय्य-मार्ग से गतिवाला व उन ऐश्वर्यों का दान देनेवाला होता है।
भाषार्थ
हे गुरुदेव! आपके सदुपदेशों द्वारा, हमारे (एनः चि-पंक्तिका) पापों के संचय की पंक्ति, (हविः) ज्ञानाग्नि में आहुत हो गई है, भस्मीभूत हो गई है। हमारे संचित-पाप विनष्ट हो गये हैं।
टिप्पणी
[चि=चिञ् चयने।]
विषय
भूमि और स्त्री।
भावार्थ
हे (देव) देव ! राजन् ! (सूर्यम्) सूर्य के समान तेजस्वी (त्वा प्रति) तुझे ही (एनी) श्वेत (हरिक्णिका) अति शीघ्रगति वाली घोढ़ी या पूर्वोक्त सेना और (हरिः) वेगवान् या वीर अश्व प्राप्त हो। अथवा—(हरिक्निका एनी) मनोहर निर्दोष निर्मल कन्या और (हरिः) उत्तम अश्व तुझे प्राप्त हों।
टिप्पणी
‘एनश्चिपंक्ति का हविः’ इति श० पा०। ‘पक्तिका’ इति कचित्।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
missing
इंग्लिश (4)
Subject
Prajapati
Meaning
Let the collected toll of sin be burnt as havi in the yajna fire.
Translation
Let the dealings be full of the spread of destroying evils.
Translation
Let the dealings be full of the spread of destroying evils.
Translation
On attaining topmost spiritual light, our friend may know me and Thee, too. (i.e., Realization of the soul and God is achieved only at the highest stage of spiritual attainment).
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
११−(एनश्चिपङ्क्तिका) वातेर्डिच्च। उ० ४।१३४। एनः+चन श्रद्धोपहननयोः-इण् डित्। वृतेस्तिकन्। उ० ३।१४६। पचि व्यक्तीकरणे विस्तारवचने-तिकन्। सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। विभक्तेराकारः
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
মনুষ্যপুরুষার্থোপদেশঃ
भाषार्थ
(এনশ্চিপঙ্ক্তিকা) পাপ বিনাশের বিস্তারকারী (হবিঃ) আদানপ্রদান [হোক] ॥১১॥
भावार्थ
সত্য আচরণ দ্বারা মনুষ্য ধন প্রাপ্ত করুক ॥১১, ১২॥
भाषार्थ
হে গুরুদেব! আপনার সদুপদেশ দ্বারা, আমাদের (এনঃ চি-পংক্তিকা) পাপের সঞ্চয়ের পঙ্ক্তি, (হবিঃ) জ্ঞানাগ্নিতে আহুত হয়ে গেছে, ভস্মীভূত হয়ে গেছে। আমাদের সঞ্চিত-পাপ বিনষ্ট হয়েছে/হয়ে গেছে।
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