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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 19 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 19/ मन्त्र 2
    ऋषिः - मयोभूः देवता - ब्रह्मगवी छन्दः - विराट्पुरस्ताद्बृहती सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
    48

    ये बृ॒हत्सा॑मानमाङ्गिर॒समार्प॑यन्ब्राह्म॒णं जनाः॑। पेत्व॒स्तेषा॑मुभ॒याद॒मवि॑स्तो॒कान्या॑वयत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । बृ॒हत्ऽसा॑मानम् । अ॒ङ्गि॒र॒सम् । आर्प॑यन् । ब्रा॒ह्म॒णम् । जना॑: । पेत्व॑: । तेषा॑म् । उ॒भ॒याद॑म् । अवि॑: । तो॒कानि॑ । आ॒व॒य॒त् ॥१९.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये बृहत्सामानमाङ्गिरसमार्पयन्ब्राह्मणं जनाः। पेत्वस्तेषामुभयादमविस्तोकान्यावयत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये । बृहत्ऽसामानम् । अङ्गिरसम् । आर्पयन् । ब्राह्मणम् । जना: । पेत्व: । तेषाम् । उभयादम् । अवि: । तोकानि । आवयत् ॥१९.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 19; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    नास्तिक के तिरस्कार का उपदेश।

    पदार्थ

    (ये जनाः) जिन पुरुषों ने (बृहत्सामानम्) बड़े दुःखनाशक ज्ञानवाले, (आङ्गिरसम्) विज्ञानवाले, (ब्राह्मणम्) ब्रह्मज्ञानी को (आर्पयन्) सताया है (पेत्वा) उस ज्ञानवान्, (अविः) रक्षक पुरुष ने (उभयादम्=उभयादान्) हमारी पूर्त्ति के लेनेवाले से (तेषाम्) उन के (तोकानि) वृद्धिकर्मों को (आवयत्) गिरा दिया है ॥२॥

    भावार्थ

    वेदवेत्ता पुरुष दुराचारी नास्तिकों का नाश करता है ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(ये) (बृहत्सामानम्) स्यति दुःखमिति साम। सातिभ्यां मनिन्मणिनौ। उ० ४।१।५३। इति षो अन्तकर्मणि−मनिन्। महादुःखनाशकज्ञानोपेतम् (आङ्गिरसम्) अ० २।१२।४। अङ्गिरो विज्ञानमस्यास्तीति−अण्। विज्ञानवन्तम् (आर्पयन्) ऋ हिंसायाम्−स्वार्थे णिच्, षुक् च लिङ्। हिंसितवन्तः (ब्राह्मणम्) वेदवेत्तारम् (जनाः) नास्तिकजनाः (पेत्वः) अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते। उ० ४।१०५। इति पि गतौ−त्वन्। गतिशीलः (तेषाम्) शत्रुजनानाम् (उभयादम्) वलिमलितनिभ्यः कयन्। उ० ४।९९। इति उभ पूर्तौ−कयन्+आ+दा−क। बहुवचनस्यैकवचनम्। उभयादान् पूर्तिग्राहकान् (अविः) सर्वधातुभ्य इन्। उ० ४।११८। इति अव रक्षणे−इन्। रक्षकः। ब्राह्मणः (तोकानि) अ० १।१३।२। तु वृद्धौ−क। वृद्धिकर्माणि (आवयत्) आ+वा असने−लङ् छान्दसः शप्। आवेत्। प्रक्षिप्तवान् ॥

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    विषय

    'बृहत्सामा आङ्गिरस ब्राह्मण' के निरादर का परिणाम ये

    पदार्थ

    १. (ये जना:) = जो लोग (बृहत् सामानम्) = महान् प्रभु के उपासक (आङ्गिरसम्) = अंगारों के समान ज्ञानदीस (ब्राह्मणम्) = ब्रह्मज्ञानी पुरुष को (आर्पयन्) = [ऋ हिंसायम्] हिंसित करते हैं, (तेषां तोकानि) = उनके सन्तानों को (पेत्वः) = सबका पालक (अविः) = रक्षक प्रभु (उभयादम् आवयत्) = अपने दोनों जबड़ों के बीच में चबा डालता है [वी खादने]। २. धुलोक व पृथिवीलोक ही प्रभु के जबड़े हैं। ज्ञानी का हिंसन करनेवाले राजा लोग धुलोक व पृथिवीलोक के कष्टों में पिस जाते

    भावार्थ

    राजा को प्रभु-भक्त व ज्ञान-दीस ब्राह्मणों का आदर करना चाहिए। उन्हें हिसित करनेवाला राजा आधिदैविक आपत्तियों का शिकार हो जाता है।

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    भाषार्थ

    (ये) जो (जना:) प्रजा के जन या अधिकारीजन (बृहत्सामानम्) बड़ी शान्तिवाले तथा (आङ्गिरसम्) [राष्ट्र के लिए] प्राणरूप (ब्राह्मणम्) ब्रह्मज्ञ और वेदज्ञ विद्वान् को (आर्पयन् ) कष्ट पहुँचाते हैं, ( अवि:) सर्व-रक्षक ब्राह्मण, (तेषाम् ) उन प्रजा के जनों या अधिकारीजनों सम्बन्धी, (उभयादम् ) दोनों अर्थात् अभ्युदय और निश्रेयस को खा जानेवाले, नष्ट कर देनेवाले-राजा को तथा (तोकानि) उसके अपत्यों को [ब्राह्मण] (आवयत्) पूर्णतया परास्त करता है, जैसेकि (पेत्वः) पतन अर्थात् आक्रमण कारी मेष [निज प्रतिद्वन्द्वी मेष पर] आक्रमण कर उसे परास्त करता है।

    टिप्पणी

    [आङ्गिरसम् ='आङ्गिरसोऽङ्गानां रसः प्राणो वा अङ्गानां रसः" (बृहद् उप०, अध्याय १ । ब्राह्मण २। खण्ड १९)। आर्पयन्१=कष्ट पहुँचाते हैं । तोकानि= अपत्यानि "तोकम् अपत्यनाम" (निघं० २।२)। आवयत्= आ+वी, गतिव्याप्तिप्रजनकान्त्यसनखादनेषु (अदादिः), मन्त्र में 'असन' अर्थात् 'परास्त करना' अर्थ अभिप्रेत है। यत्वः मेषः (अथर्व ४।४।८, सायण)। पेत्वः पतनशील: आक्रमणशील। मन्त्र में ब्राह्मण को शान्त२ स्वभाववाला और प्रजाजन तथा अधिकारीजनों को क्रोधी स्वभाववाला दर्शाया है। ब्राह्मण सात्विक कर्मों, त्याग और परोपकार का उपदेश करता है, जोकि प्रजाजन और अधिकारियों के स्वार्थ के अनुकूल नहीं, अत: वे ब्राह्मण को कष्ट पहुंचाते हैं। मेषः= स्पर्धाशील मेढा। मिष स्पर्धायाम् (तुदादिः)।] [१. "ऋ" धातु कष्टार्थक भी है, यथा "आतिः, आर्तः, आर्तनादः।" २. सामानम् =शान्तिवाला। साम=शान्ति, यथा "साम, दान, दण्ड, भेद ।"]

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    विषय

    ब्रह्मगवी का वर्णन।

    भावार्थ

    (ये जनाः) जो पुरुष (आङ्गिरसम्) अङ्गों में रस के समान बहने वाले, प्राण के समान या प्रज्वलित अंगारों के समान तेजस्वी, राष्ट्र के विद्वान्, (बृहत्-सामानम्) बड़े विशाल, आदित्य ब्रह्मचारी (ब्राह्मणं) ब्राह्मण को (आर्पयन्) विनाश करते हैं (तेषां) उनके (तोकानि) अगली सन्तानों को (अविः) वही सर्वरक्षक (पेत्वः) परिपालक प्रभु ही (उभयादम्) अपने दोनों जबाड़ों के बीच में (आवयत्) चबा डालता है। परमात्मा के दोनों जबाड़े द्यौ और पृथ्वी हैं। इन दोनों तरफ से उन दुष्ट पुरुषों पर नाना आपत्तियां पड़ती हैं और वे नष्ट हो जाते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मयाभूर्ऋषिः। ब्रह्मगवी देवता। २ विराट् पुरस्ताद् बृहती। ७ उपरिष्टाद् बृहती। १-३-६, ७-१५ अनुष्टुभः। पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brahma Gavi

    Meaning

    Those people who reject, violate and desecrate the Angiras, servant of Divinity dear as breath of life and brilliant as blazing embers, dedicated to Brhat Samans, songs of the Lord, lose all: the Lord all protector, destroyer of evil stalls their growth and holds their future possibilities in the jaws of retribution.

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    Translation

    Whosoever scathed the great Sama singer, the intellectual, shining like burning coal, the wild beast consumed their infants with his two rows of teeth.

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    Translation

    The powerful ferocious animal devours in his both jaws the progeny of those people who oppress Brahmana. The learned who is accomplished in the science and who is Dexter in Brihat saman.

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    Translation

    Those persons, who torment a highly learned and celibate Brahman, get their progeny crushed with the teeth between the jaws of God, Who is the Guardian and Protector. Earth and Heaven are figuratively spoken of as the jaws of God. He punishes all ignoble persons living between the Earth and Heaven.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(ये) (बृहत्सामानम्) स्यति दुःखमिति साम। सातिभ्यां मनिन्मणिनौ। उ० ४।१।५३। इति षो अन्तकर्मणि−मनिन्। महादुःखनाशकज्ञानोपेतम् (आङ्गिरसम्) अ० २।१२।४। अङ्गिरो विज्ञानमस्यास्तीति−अण्। विज्ञानवन्तम् (आर्पयन्) ऋ हिंसायाम्−स्वार्थे णिच्, षुक् च लिङ्। हिंसितवन्तः (ब्राह्मणम्) वेदवेत्तारम् (जनाः) नास्तिकजनाः (पेत्वः) अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते। उ० ४।१०५। इति पि गतौ−त्वन्। गतिशीलः (तेषाम्) शत्रुजनानाम् (उभयादम्) वलिमलितनिभ्यः कयन्। उ० ४।९९। इति उभ पूर्तौ−कयन्+आ+दा−क। बहुवचनस्यैकवचनम्। उभयादान् पूर्तिग्राहकान् (अविः) सर्वधातुभ्य इन्। उ० ४।११८। इति अव रक्षणे−इन्। रक्षकः। ब्राह्मणः (तोकानि) अ० १।१३।२। तु वृद्धौ−क। वृद्धिकर्माणि (आवयत्) आ+वा असने−लङ् छान्दसः शप्। आवेत्। प्रक्षिप्तवान् ॥

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