अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 19/ मन्त्र 7
ऋषिः - मयोभूः
देवता - ब्रह्मगवी
छन्दः - उपरिष्टाद्बृहती
सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
42
अ॒ष्टाप॑दी चतुर॒क्षी चतुः॑श्रोत्रा॒ चतु॑र्हनुः। द्व्या॑स्या॒ द्विजि॑ह्वा भू॒त्वा सा रा॒ष्ट्रमव॑ धूनुते ब्रह्म॒ज्यस्य॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ष्टाऽप॑दी । च॒तु:ऽअ॒क्षी: । चतु॑:ऽश्रोत्रा । चतु॑:ऽहनु: । द्विऽआ॑स्या । द्विऽजि॑ह्वा । भू॒त्वा । सा ।रा॒ष्ट्रम् । अव॑ । धू॒नु॒ते॒ । ब्र॒ह्म॒ऽज्यस्य॑ ॥१९.७॥
स्वर रहित मन्त्र
अष्टापदी चतुरक्षी चतुःश्रोत्रा चतुर्हनुः। द्व्यास्या द्विजिह्वा भूत्वा सा राष्ट्रमव धूनुते ब्रह्मज्यस्य ॥
स्वर रहित पद पाठअष्टाऽपदी । चतु:ऽअक्षी: । चतु:ऽश्रोत्रा । चतु:ऽहनु: । द्विऽआस्या । द्विऽजिह्वा । भूत्वा । सा ।राष्ट्रम् । अव । धूनुते । ब्रह्मऽज्यस्य ॥१९.७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
नास्तिक के तिरस्कार का उपदेश।
पदार्थ
(सा) वह [वेदविद्या] (अष्टापदी) [छोटाई, हलकाई, प्राप्ति, स्वतन्त्रता, बड़ाई, ईश्वरपन, जितेन्द्रियता और सत्य संकल्प, आठ ऐश्वर्य] आठ पद प्राप्त करानेवाली (चतुरक्षी) [ब्रह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र] चार वर्णों में व्याप्तिवाली, (चतुःश्रोत्रा) [ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, और संन्यास] चार आश्रमों में श्रवण शक्तिवाली, (चतुर्हनुः) [धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष] चार पदार्थों में गतिवाली, (द्व्यास्या) [परमात्मा और जीवात्मा] दोनों का ज्ञान करानेवाली और (द्विजिह्वा) [बाहिरी और भीतरी] दोनों सुखों की जीत करानेवाली (भूत्वा) होकर (ब्रह्मज्यस्य) ब्राह्मण के हानि करनेवाले के (राष्ट्रम्) राज्य को (अवधूनुते) हिला डालती है ॥७॥
भावार्थ
वेदविद्या सर्वथा कल्याणी होने से अत्याचारी दुष्टों का नाश कर देती है ॥७॥
टिप्पणी
७−(अष्टापदी) अणिमा लघिमा प्राप्तिः प्राकाम्यं महिमा तथा। ईशित्वं च वशित्वं च तथा कामावसायिता ॥१॥ इति अष्टैश्वर्याणि पदानि प्राप्तव्यानि यया सा (चतुरक्षी) अशेर्नित्। उ० ३।१५६। इति अशू व्याप्तौ−क्सि, ङीप्। चतुर्षु ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्रेषु वर्णेषु अक्षि व्याप्तिर्यस्याः सा (चतुःश्रोत्रा) चतुर्षु ब्रह्मचर्यगार्हस्थ्यवानप्रस्थसंन्यासाश्रमेषु श्रोत्रं श्रवणं कीर्तनं यस्याः सा (चतुर्हनुः) शॄस्वृस्निहि०। उ० १।१०। इति हन गतौ−उ प्रत्ययः। चतुर्षु धर्मार्थकाममोक्षेषु पदार्थेषु हनुर्गतिर्यस्याः सा (द्व्यास्या) ऋहलोर्ण्यत्। पा० ३।१।१२४। इति अस ग्रहणे−ण्यत्। द्वे परमात्मजीवात्मज्ञाने आस्ये ग्राह्ये यया सा (द्विजिह्वा) शेवायह्वजिह्वा०। उ० १।१५४। इति जि जये−वन्−हुक् च। द्वे बाह्याभ्यन्तरसुखे जेतव्ये यया सा (भूत्वा) (सा) ब्रह्मविद्या (राष्ट्रम्) राज्यम् (अव) अनादरे (धूनुते) धूञ् कम्पने−कम्पयति (ब्रह्मज्यस्य) ब्रह्म+ज्या वयोहानौ−क, अन्तर्गतण्यर्थः। ब्राह्मणस्य हानिकारकस्य ॥
विषय
अद्भुत गौ
पदार्थ
१. यह ब्रह्मगबी कोई सामान्य गौ नहीं है। यह एक असाधारण गौ है, (अष्टापदी) = आठ इसके पाँव है, (चतुः अक्षी) = चार आँखोंवाली है, (चतुः श्रोन्ना:) = चार कानोंवाली है, (चतुर्हन:) = चार हनुओंवाली है, (द्वयास्या) = दो मुखोंवाली है और (द्विजिहा) = दो जिलाओंवाली है, ऐसी (भूत्वा) = बनकर (सा) = वह (ब्रह्मज्यस्य) = ब्राह्मणों को पीड़ित करनेवाले राजा के (राष्ट्रम्) = राष्ट्र को (अवधूनुते) = कम्पित कर देती है। २. ब्रह्मगवी (अष्टापदी) = है-आठों योगाङ्गों का प्रतिपादन करनेवाली है और उनके द्वारा आठों सिद्धियों को प्राप्त करानेवाली है। अथवा यह राष्ट्र के आठों सचिवों के कार्यों को ठीक से प्रतिपादन करनेवाली है। (चतुरक्षी) = चार वेदरूपी चार आँखोंवाली है। चार वेद ही इसकी चार आँखें हैं। चतः श्रोत्रा-यह चारों आश्रमों व चारों वर्षों से सुनने योग्य है। (चतुर्हन:) = 'साम, दान, दण्ड, भेद' रूप चारों उपायों में गतिवाली है[हन् गती] यास्या यह दो मुखोवाली है। एक मुख से राजकार्यों का प्रतिपादन करती है, तो दूसरे मुख से प्रजा के कार्यों को। एक से आचार्य के कर्तव्यों का प्रतिपादन करती है तो दूसरे से शिष्य के कर्तव्यों का। एक से पति के कर्तव्यों का प्रतिपादन करती है तो दूसरे से पत्नी के। यह ब्रह्मगवी एक पक्ष का ही प्रतिपादन नहीं करती। यह द्विजिहा-दो जिलाओंवाली है। एक से यह अभ्युदय का स्वाद लेती है, तो दूसरे से निःश्रेयस का-इहलोक और परलोक का। यह दोनों के स्वाद को मिलाकर लेती है। ब्रह्मगवी ब्रह्मज्य राजा के राष्ट्र को विनष्ट कर देती है।
भावार्थ
राजा को ब्रह्मगवी के महत्त्व को समझना चाहिए। गोहत्या भी पाप है, परन्तु ब्रह्मगवी की हत्या तो महापाप है। यह हत्या ब्रह्मज्य राजा के राष्ट्र को नष्ट कर डालती है।
भाषार्थ
[ब्रह्मगवी (मन्त्र ४)] (अष्टापदी) आठ पदोंवाली, (चतुरक्षी) चार आँखोंवाली, (चतु:श्रोत्रा) चार, श्रवणशक्ति-सम्पन्न, कानोंवालो, (चतुर्हनुः) चार जबाड़ोंवाली, (द्व्यास्या) दो मुखोंवाली (द्विजिह्वा) दो जिह्वाओंवाली ( भूत्वा) होकर, (सा) वह (ब्रहाज्यस्य) व्रह्मज्ञ और वेदज्ञ के वयोहानि पहुंचानेवाले राजा के (राष्ट्रम्) राष्ट्र को (अव धूनुते) कॅपा देती है।
टिप्पणी
[प्रकरण के अनुसार ब्रह्मगवी है ब्रह्मज्ञ-और-वेदज्ञ की परामर्श वाणी। मन्त्र में वेदवाणी और ब्रह्मज्ञवाणी में तादात्म्य दर्शाया है। ब्रह्मज्ञ वही परामर्शवाणी कहेगा जोकि वेदवाणी के अनुकूल हो। अतः इन दोनों में तादात्म्य उचित ही है। वेदवाणी अष्टापदी है। यथा "वाचमष्टापदीमहं नवस्रक्तिमृतस्पृशम् । इन्द्रात् परितन्वं ममे" (अथर्व० २०।४२।१)। इस मन्त्र में वेदवाणी को अष्टापदी अर्थात् आठ पदोंवाली कहा है। यथा द्विविध 'नाम' (सर्वनाम और असर्वनाम); द्विविध आख्यात (परस्मैपद और आत्मनेपद); द्विविध उपसर्ग क्रियायुक्त तथा स्वतन्त्र [केवल वेद में]; द्विविध 'निपात' (उपमार्थीय तथा कर्मोपसंग्रहार्थीय)। निरुक्त में पादपूर्ण अर्थात निरर्थक निपात भी कहे हैं जोकि वेद में अनर्थक नहीं माने जा सकते। इस प्रकार व्याख्येय मन्त्र में अष्टापदी वेदवाणी है न कि पशु-गौ। पशु-गौ आठ पैरोंवाली, चार आँखोंवाली, चार कानोंवाली चार हनुओंवाली, द्विर्मुही तथा द्विजिह्न नहीं हो सकती। एक व्याख्याकार ने गौ को गर्भवती मानकर अष्टापदी आदि की व्याख्या की है। जब वेद ने स्पष्ट रूप में अष्टापदीम् को 'वाचम्' कहा है तब गर्भवती गौ की व्याख्या मन्त्र में हुई है, यह कथन सर्वथा असंगत प्रतीत होता है। वेदवाणी अष्टापदी है, इसकी व्याख्या हो चुकी है। वह चतुरक्षी है चार वेदों द्वारा, वह चतुःश्रोत्रा है, यतः उसका श्रवण करनेवाले चार हैं, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। वह द्विजिह्वा१ है, जिह्वा का काम है वस्तुवर्णन, वेदवाणी दो का वर्णन करती है, अभ्युदय और निःश्रेयस का, या जड़जगत् का और प्राणिजगत् का। द्व्यास्या और चतुर्हनुः२ के अभिप्राय यथामति ऊहित कर लेने चाहिए। ] [१. यथा "अन्नं वै प्राणिना प्राणः" में अन्न है कारण और प्राण है कार्य, प्राण के प्राणत्व धर्म का आरोप कारणरूप अन्न में हुआ है, इसी प्रकार वर्णनीय वस्तु के द्वैविध्य की दृष्टि से कारणभूत जिह्वा को द्विजिह्वा कहा है। कार्य के द्वैविध्य का आरोप कारण में हुआ है। २. चतुर्हनु:= अथवा "काम, क्रोध, लोभ, मोह,"--ये चार वर्जनीय है, हन्तव्य हैं। वेद के चार सदुपदेश "हनु" रूप है। हनु:= हुन हिंसायाम (अदादि: ), वे इन चारों का हनन करते है। ब्रह्मचर्य हनन करता है काम का, सोम अर्थात् सौम्य भाव हनन करता है क्रोध का, “त्यक्तेन भुञ्जीथाः' अर्थात् त्यागपूर्वक जीवन हनन करता है लोभ का और यथार्थ ज्ञान हनन करता है मोह का।]
विषय
ब्रह्मगवी का वर्णन।
भावार्थ
प्रकुपित ब्राह्मणरूप गौ का स्वरूप दर्शाते हैं। (सा) वह ब्राह्मणरूप गौ (अष्टा-पदी) आठ पैरों, (चतुरक्षी) चार आंखों और (चतुः श्रोत्रा) चार कानों और (चतुर्हनुः) चार दाढ़ों, (द्वस्या) दो मुहों और (द्विजिह्वा) दो जीभों वाली (भूत्वा) होकर (ब्रह्मज्यस्य) ब्रह्मज्य = ब्राह्मण के विनाशकारी राजा के (राष्ट्र) राष्ट्र को (अवधूनुते) धुन डालती है। आठ अमात्य उसके पैर हैं, चार वर्ण उसके चार आंख, चार आश्रम उसके चार कान हैं, चारों प्रकार की सेना चार हनु हैं, भीतरी और बाह्य शत्रु दो मुख हैं, उभयपक्ष के दूत उसकी दो जिह्वाएं हैं। वे सब उस राष्ट्र को नष्ट कर देते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मयाभूर्ऋषिः। ब्रह्मगवी देवता। २ विराट् पुरस्ताद् बृहती। ७ उपरिष्टाद् बृहती। १-३-६, ७-१५ अनुष्टुभः। पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Brahma Gavi
Meaning
The Brahmana’s Cow is powerful and versatile: It has eight legs, no one can dislodge it. It has four eyes, nothing can escape its notice. It has four ears, none can whisper sedition. It has four jaws, it can crush injustice with double strength. It has two mouths and two tongues, it can consume both pleasure and pain and speak of both human and divine matters. Being so versatile it can shake up any social order that seeks to suppress it. It can thus also raise any social order that honours it. (This mantra specially shows that the Cow is not the cow that gives milk for life, it is that holy vision, knowledge, ethics and policy of state governance which provides for a healthy, prosperous and enlightened living order which is the ideal of an organised society.)
Translation
Becoming eight-footed, four-eyed, four-eared, four-jawed; two-mouthed and two-tongued, she shatters down his kingdom, whoever does wrong to an intellectual.
Translation
The cow of Brahmana, if tortured, assuming, as if, the stature the eight footed, four eyed, four-eared, four jawed, two-faced, two-tongued cow shatters down the Kingdom of the man who does wrong to Brahmana.
Translation
Vedic knowledge grows eight-footed, and four-eyed, four-eared, four-jawed, two-faced, two-tongued, and shatters down the kingdom of the man, who doth wrong to a Vedic scholar.
Footnote
Eight feet: (1) Simplicity (2) Brevity (3) Attainment (4) Independence (5) Grandeur (6) Superiority (7) Self-control (8) True determination. Four eyes: Brahman, Kshatriya, Vaisha, Shudra. Four ears: Brahmcharya, Grihastha, Banprastha, Sanyasa. Four jaws: Dharma, Artha, Kama, Moksha. Two faces: God, soul. Two tongues: Worldly and spiritual joy.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
७−(अष्टापदी) अणिमा लघिमा प्राप्तिः प्राकाम्यं महिमा तथा। ईशित्वं च वशित्वं च तथा कामावसायिता ॥१॥ इति अष्टैश्वर्याणि पदानि प्राप्तव्यानि यया सा (चतुरक्षी) अशेर्नित्। उ० ३।१५६। इति अशू व्याप्तौ−क्सि, ङीप्। चतुर्षु ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्रेषु वर्णेषु अक्षि व्याप्तिर्यस्याः सा (चतुःश्रोत्रा) चतुर्षु ब्रह्मचर्यगार्हस्थ्यवानप्रस्थसंन्यासाश्रमेषु श्रोत्रं श्रवणं कीर्तनं यस्याः सा (चतुर्हनुः) शॄस्वृस्निहि०। उ० १।१०। इति हन गतौ−उ प्रत्ययः। चतुर्षु धर्मार्थकाममोक्षेषु पदार्थेषु हनुर्गतिर्यस्याः सा (द्व्यास्या) ऋहलोर्ण्यत्। पा० ३।१।१२४। इति अस ग्रहणे−ण्यत्। द्वे परमात्मजीवात्मज्ञाने आस्ये ग्राह्ये यया सा (द्विजिह्वा) शेवायह्वजिह्वा०। उ० १।१५४। इति जि जये−वन्−हुक् च। द्वे बाह्याभ्यन्तरसुखे जेतव्ये यया सा (भूत्वा) (सा) ब्रह्मविद्या (राष्ट्रम्) राज्यम् (अव) अनादरे (धूनुते) धूञ् कम्पने−कम्पयति (ब्रह्मज्यस्य) ब्रह्म+ज्या वयोहानौ−क, अन्तर्गतण्यर्थः। ब्राह्मणस्य हानिकारकस्य ॥
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