अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 19/ मन्त्र 4
ऋषिः - मयोभूः
देवता - ब्रह्मगवी
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
103
ब्र॑ह्मग॒वी प॒च्यमा॑ना॒ याव॒त्साभि वि॒जङ्ग॑हे। तेजो॑ रा॒ष्ट्रस्य॒ निर्ह॑न्ति॒ न वी॒रो जा॑यते॒ वृषा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठब्र॒ह्म॒ऽग॒वी । प॒च्यमा॑ना । याव॑त् । सा । अ॒भि । वि॒ऽजङ्ग॑हे । तेज॑: । रा॒ष्ट्रस्य॑ । नि: । ह॒न्ति॒ । न । वी॒र: । जा॒य॒ते॒ । वृषा॑ ॥१९.४॥
स्वर रहित मन्त्र
ब्रह्मगवी पच्यमाना यावत्साभि विजङ्गहे। तेजो राष्ट्रस्य निर्हन्ति न वीरो जायते वृषा ॥
स्वर रहित पद पाठब्रह्मऽगवी । पच्यमाना । यावत् । सा । अभि । विऽजङ्गहे । तेज: । राष्ट्रस्य । नि: । हन्ति । न । वीर: । जायते । वृषा ॥१९.४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
नास्तिक के तिरस्कार का उपदेश।
पदार्थ
(सा) वह (ब्रह्मगवी) ब्रह्मवाणी (पच्यमाना) पचायी [तपायी] जाती हुई (यावत्) जब तक (अभि) चारों ओर (विजङ्गहे=विजङ्गन्ति) फड़-फड़ाती रहती है। वह (राष्ट्रस्य) राज्य का (तेजः) तेज (निर्हन्ति) मिटा देती है, और (न वीरः) न कोई वीर पुरुष (वृषा) ऐश्वर्यवान् (जायते) उत्पन्न होता है ॥४॥
भावार्थ
जहाँ वेदविद्या का निरादर होता है, वह राज्य सब नष्ट हो जाता है और सब लोग निर्बल हो जाते हैं ॥४॥
टिप्पणी
४−(ब्रह्मगवी) गोरतद्धितलुकि। पा० ५।४।९२। इति ब्रह्मगो−टच्, ङीप्। ब्रह्मविद्या (पच्यमाना) तप्यमाना (यावत्) यत्परिमाणम् (सा) प्रसिद्धा (अभि) सर्वतः (विजङ्गहे) गमेर्यङ्लुकि लोटि मध्यमपुरुषे जङ्गहि, इत्यस्य स्थाने जङ्गहे इति रूपं लटः प्रथमपुरुषस्य स्थाने। विजङ्गन्ति विशेषेण भृशं गच्छति (तेजः) प्रभावः (राष्ट्रस्य) राज्यस्य (निर्हन्ति) नितरां नाशयति (न) निषेधे (वीरः) शूरः (जायते) प्रादुर्भवति (वृषा) ऐश्वर्यवान्। इन्द्रः ॥
विषय
'वृषा वीरः' न जायते
पदार्थ
१. (यावत्) = जब तक (सा ब्रह्मगवी) = वह ब्राह्मण की (गौ पच्यमाना) = कष्टों की अग्नि में तपाई जाती हुई (अभिविजङ्गहे) = तड़पती रहती है, अर्थात् जब तक ब्राह्मण की वाणी का आदर नहीं होता तब तक यह निरादृत ब्रह्मगवी (राष्ट्रस्य तेजः निहन्ति) = राष्ट्र के तेज को नष्ट कर देती है। इस राष्ट्र में (वीर: वृषा न जायते) = वीर धार्मिक पुरुषों का प्रादुर्भाव [विकास] नहीं होता।
भावार्थ
ब्राह्मण की वाणी पर प्रतिबन्ध लगे रहने पर ज्ञान के प्रसार के अभाव में अधर्म फैलता है, राष्ट्र में तेजस्विता नहीं रहती और धार्मिक वीर पुरुषों का प्रादुर्भाव नहीं होता।
भाषार्थ
(ब्रह्मगवी) ब्रह्मज्ञ और वेदज्ञ की परामर्शवाणी, (पच्यमाना) सताई हुई, (सा) वह (यावत्) जब तक (अभि विजङ्गहे) इधर- उधर विलोड़ित होती रहती है, (राष्ट्रस्य तेजः) तब तक राष्ट्र के तेज को (निर्हन्ति) वह हनन करती रहती है और राष्ट्र में (वीरः) वीर-सन्तान या वीर योद्धा तब तक (वृषा) सुखवर्षी (न जायते) नहीं उत्पन्न होता।
टिप्पणी
[विजङ्गते =गाहू विलोडने (भ्वादिः)। गवी; गौ: वाङ्नाम (निघं० १।११)।]
विषय
ब्रह्मगवी का वर्णन।
भावार्थ
(सा) वह (ब्रह्मगवी) ब्रह्मशक्ति विद्या और ब्राह्मणों की वाणी या ब्राह्मणरूप स्वयं गौ (पच्यमाना) दुःख पाती हुई (यावत्) जब तक (अभि वि जङ्गहे) तड़फती रहती है तब तक वह (राष्ट्रस्य तेजः) राजा के राष्ट्र के तेज को (निर्हन्ति) समूल नाश किया करती है यहांतक कि (वीरः वृषा न जायते) वीर, धार्मिक, पुरुष उस राष्ट्र में उत्पन्न होना बन्द होजाता है, राष्ट्र में सच्चे धार्मिक उत्पन्न नहीं होते।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मयाभूर्ऋषिः। ब्रह्मगवी देवता। २ विराट् पुरस्ताद् बृहती। ७ उपरिष्टाद् बृहती। १-३-६, ७-१५ अनुष्टुभः। पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Brahma Gavi
Meaning
When the Brahmana’s Cow, sacred freedom of thought, speech and action, violated, suppressed and bruised, flutters around but in pain of death, it destroys the lustre and grandeur of the Rashtra, grand social order, and no generous, virile heroes arise there any more.
Translation
So long as the afflicted speech of an intellectual quivers in throes, it destroys the vital spirit of the nation and no powerful hero is born there.
Translation
So long as the cow of Brahmana feeling pany of coercion quivers in anguish, it mars the splendor of the Kingdom and no peons and brave man springs to life there.
Translation
Where the knowledge of the Vedas is suppressed and kept in suspense for long, there it mars the kingdom's splendor, there no vigorous her springs to life.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४−(ब्रह्मगवी) गोरतद्धितलुकि। पा० ५।४।९२। इति ब्रह्मगो−टच्, ङीप्। ब्रह्मविद्या (पच्यमाना) तप्यमाना (यावत्) यत्परिमाणम् (सा) प्रसिद्धा (अभि) सर्वतः (विजङ्गहे) गमेर्यङ्लुकि लोटि मध्यमपुरुषे जङ्गहि, इत्यस्य स्थाने जङ्गहे इति रूपं लटः प्रथमपुरुषस्य स्थाने। विजङ्गन्ति विशेषेण भृशं गच्छति (तेजः) प्रभावः (राष्ट्रस्य) राज्यस्य (निर्हन्ति) नितरां नाशयति (न) निषेधे (वीरः) शूरः (जायते) प्रादुर्भवति (वृषा) ऐश्वर्यवान्। इन्द्रः ॥
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