अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 4/ मन्त्र 19
सूक्त - गरुत्मान्
देवता - तक्षकः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - सर्पविषदूरीकरण सूक्त
सं हि शी॒र्षाण्यग्र॑भं पौञ्जि॒ष्ठ इ॑व॒ कर्व॑रम्। सिन्धो॒र्मध्यं॑ प॒रेत्य॒ व्यनिज॒महे॑र्वि॒षम् ॥
स्वर सहित पद पाठसम् । हि । शी॒र्षाणि॑ । अग्र॑भम् । पौ॒ञ्जि॒ष्ठ:ऽइ॑व । कर्व॑रम् । सिन्धो॑: । मध्य॑म् । प॒रा॒ऽइत्य॑ । वि । अ॒नि॒ज॒म् । अहे॑: । वि॒षम् ॥४.१९॥
स्वर रहित मन्त्र
सं हि शीर्षाण्यग्रभं पौञ्जिष्ठ इव कर्वरम्। सिन्धोर्मध्यं परेत्य व्यनिजमहेर्विषम् ॥
स्वर रहित पद पाठसम् । हि । शीर्षाणि । अग्रभम् । पौञ्जिष्ठ:ऽइव । कर्वरम् । सिन्धो: । मध्यम् । पराऽइत्य । वि । अनिजम् । अहे: । विषम् ॥४.१९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 4; मन्त्र » 19
भाषार्थ -
(शीर्षाणि) सांपों के सिरों को (हि) निश्चय से (सम् अग्रभम्) सम्यक्तया अर्थात् दृढ़तापूर्वक मैंने पकड़ लिया है, (इव) जैसे कि (पौञ्जिष्ठः) पौञ्जिष्ठ (कर्वरम्) कर्वर को दृढ़तापूर्वक ग्रहण करता है। और (सिन्धोः) स्यन्दन करने वाली नदी के (मध्यम्) मध्य में (परेत्य) जाकर (अहेः) सांप के (विषम्) विष को (व्यनिजम्) मैंने धो डाला है।
टिप्पणी -
[सांप को पकड़ना हो तो उस के सिर को दृढ़तापूर्वक पकड़ना चाहिये, पूंछ से पकड़ने पर वह पीछे की ओर उछल कर काट सकता है। सांप के काटने पर नदी के प्रवाह में जा कर जलचिकित्सा विधि द्वारा विष को दूर करना चाहिये। प्रवाह में इसलिए कि जल में जो विष मिल गया है वह नदी के प्रवाह में बह जाय, ताकि उसका शरीर के साथ पुनः सम्पर्क न हों। कर्वरम् =कर् (कर्म)+ वरम् (श्रेष्ठ) अर्थात् श्रेष्ठकर्म। "कर्वरम् कर्मनाम" (निघं० २।१)। "कर्वराणि यज्ञादिकर्माणि" (सायण, अथर्व० ७।३।१)। पौञ्जिष्ठः=पुञ्जिष्ठ एव पौञ्जिष्ठः, स्वार्थे अण्। पुञ्जिष्ठः= पुञ्ज में रहने वाला। आश्रमवासियों के समूह में रहने वाला वानप्रस्थी। वह जैसे श्रेष्ठकर्मों यज्ञादि का दृढ़तापूर्वक ग्रहण करता है, वैसे दृढ़तापूर्वक सर्प के सिर को पकड़े रहना चाहिये। व्यनिजम्=वि+अट्+णिजिर् शौचपोषणयोः (जुहोत्यादिः), तथा णिजि शुद्धौ (अदादिः)]।