अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 4/ मन्त्र 1
सूक्त - गरुत्मान्
देवता - तक्षकः
छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः
सूक्तम् - सर्पविषदूरीकरण सूक्त
इन्द्र॑स्य प्रथ॒मो रथो॑ दे॒वाना॒मप॑रो॒ रथो॒ वरु॑णस्य तृ॒तीय॒ इत्। अही॑नामप॒मा रथः॑ स्था॒णुमा॑र॒दथा॑र्षत् ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑स्य । प्र॒थ॒म: । रथ॑: । दे॒वाना॑म् । अप॑र: । रथ॑: । वरु॑णस्य । तृ॒तीय॑: । इत् । अही॑नाम् । अ॒प॒ऽमा । रथ॑: । स्था॒णुम् । आ॒र॒त् । अथ॑ । अ॒र्ष॒त् ॥४.१॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रस्य प्रथमो रथो देवानामपरो रथो वरुणस्य तृतीय इत्। अहीनामपमा रथः स्थाणुमारदथार्षत् ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रस्य । प्रथम: । रथ: । देवानाम् । अपर: । रथ: । वरुणस्य । तृतीय: । इत् । अहीनाम् । अपऽमा । रथ: । स्थाणुम् । आरत् । अथ । अर्षत् ॥४.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(इन्द्रस्य) विद्युत् की (रथः) गति [सर्पविष चिकित्सा में] (प्रथमः) प्रथम कोटि की है और (देवानाम्) अन्य दिव्यपदार्थों [मिट्टी का लेप, दष्टस्थान का जलाना आदि] की (रथः) गति (अपरः) द्वितीय कोटि की है, (वरुणस्य) जल की [रथः] गति (तृतीयः इत्) तीसरी कोटि की है, (अहीनाम्) सांपों की (रथः) गति (अपमा) अपमानित१ सी है। विष (स्थाणुम्) एक नियत स्थान में (आरत्) आ गया है, (अथ) और (अर्षत् = अरिषत्) विनष्ट हो गया है।
टिप्पणी -
[निरुक्त में वायु या इन्द्र को अन्तरिक्ष स्थानी देवता माना है (अध्या १०, पाद १), "इन्द्र" है विद्युत् जो कि मेघ में चमकता है। सर्प के विष के प्रभाव को नष्ट करने में विद्युत्-धारा का प्रयोग करना सर्वोत्तम उपाय है। “वरुण” है जल का देवता। यथा "वरुणोऽपामधिपतिः" (अथर्व० ५॥२४॥४), इस द्वारा जलचिकित्सा सूचित की है। "देवानाम्" द्वारा मिट्टी का प्रलेप आदि दैवी चिकित्सा निर्दिष्ट की है। "अहीनाम्" द्वारा "विषस्य विषमौषधम्" के सिद्धान्त को सूचित किया है, अर्थात् विष के प्रयोग द्वारा विष का विनाश। यह सिद्धान्त होम्योपेथिक के सिद्धान्त सदृश है। “रथः” का अर्थ रथ अभिप्रेत नहीं, अपितु रथ की गति अभिप्रेत है। यथा “रथः रंहतेर्वा स्यात्, रंहतेः गतिकर्मणः "में रथ शब्द गत्यर्थप्रधान है। (निरु० ९।२।११), तथा "रथयति गतिकर्मा" (निरु० २।१४) में भी रथ पद सर्वाधिक गतिमान् है, इत्यादि]। [१. प्रथम वर्णित ३ उपायों की अपेक्षया कम लाभप्रद है।