अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 4/ मन्त्र 11
सूक्त - गरुत्मान्
देवता - तक्षकः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - सर्पविषदूरीकरण सूक्त
पै॒द्वस्य॑ मन्महे व॒यं स्थि॒रस्य॑ स्थि॒रधा॑म्नः। इ॒मे प॒श्चा पृदा॑कवः प्र॒दीध्य॑त आसते ॥
स्वर सहित पद पाठपै॒द्वस्य॑ । म॒न्म॒हे॒ । व॒यम् । स्थि॒रस्य॑ । स्थि॒रऽधा॑म्न: । इ॒मे । प॒श्चा । पृदा॑कव: । प्र॒ऽदीध्य॑त: । आ॒स॒ते॒ ॥४.११॥
स्वर रहित मन्त्र
पैद्वस्य मन्महे वयं स्थिरस्य स्थिरधाम्नः। इमे पश्चा पृदाकवः प्रदीध्यत आसते ॥
स्वर रहित पद पाठपैद्वस्य । मन्महे । वयम् । स्थिरस्य । स्थिरऽधाम्न: । इमे । पश्चा । पृदाकव: । प्रऽदीध्यत: । आसते ॥४.११॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 4; मन्त्र » 11
भाषार्थ -
(स्थिरस्य) स्थिरता से लड़ने वाले, (स्थिर धाम्नः) तथा स्थिर तेज वाले (पैद्वस्य) पैद्व के [बल को] (वयम् मन्महे) हम मानते हैं। (इमे पृदाकवः) ये पृदाकु-सांप (प्रदीध्यतः) विष के कारण प्रदीप्त हुए (पश्चा) पीछे (आसते) बैठे रहते हैं।
टिप्पणी -
[पैद्व, पृदाकुओं के साथ युद्ध में स्थिरता पूर्वक लड़ता है, और इस का युद्ध सम्बन्धी तेज अर्थात्, शौर्य निर्बल नहीं पड़ता। इस की सत्ता में पृदाकु, विषैले होते हुए भी, पीछे हट कर बैठे रहते हैं। प्रदीध्यतः = प्र + दीधीङ् दीप्ति देवनयोः (अदादिः); अर्थात् विषाग्नि से प्रदीप्त। आसते= आस उपवेशने (अदादिः)]