अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 5/ मन्त्र 17
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - ब्रह्मचारी
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मचर्य सूक्त
ब्र॑ह्म॒चर्ये॑ण॒ तप॑सा॒ राजा॑ रा॒ष्ट्रं वि र॑क्षति। आ॑चा॒र्यो ब्रह्म॒चर्ये॑ण ब्रह्मचा॒रिण॑मिच्छते ॥
स्वर सहित पद पाठब्र॒ह्म॒ऽचर्ये॑ण । तप॑सा । राजा॑ । रा॒ष्ट्रम् । वि । र॒क्ष॒ति॒ । आ॒ऽचा॒र्य᳡: । ब्र॒ह्म॒ऽचर्ये॑ण । ब्र॒ह्म॒ऽचा॒रिण॑म् । इ॒च्छ॒ते॒ ॥७.१७॥
स्वर रहित मन्त्र
ब्रह्मचर्येण तपसा राजा राष्ट्रं वि रक्षति। आचार्यो ब्रह्मचर्येण ब्रह्मचारिणमिच्छते ॥
स्वर रहित पद पाठब्रह्मऽचर्येण । तपसा । राजा । राष्ट्रम् । वि । रक्षति । आऽचार्य: । ब्रह्मऽचर्येण । ब्रह्मऽचारिणम् । इच्छते ॥७.१७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 5; मन्त्र » 17
भाषार्थ -
(ब्रह्मचर्येण) ब्रह्मचर्य के कारण, तथा (तपसा) तपोमय जीवन के कारण (राजा, राष्ट्रं, विरक्षति) राजा राष्ट्र की विशेष रक्षा करता है। (आचार्यः) आचार्य (ब्रह्मचर्येण) ब्रह्मचर्य धारण कर (ब्रह्मचारिणम् इच्छते) शिष्य की अभिलाषा करता है।
टिप्पणी -
[राजा - मन्त्र का यह अभिप्राय नहीं कि राष्ट्ररक्षा के लिये राजा को अखण्ड वीर्य(ऊर्ध्वरेतस्) होना चाहिये। मनु के कथनानुसार ऋतुगामी व्यक्ति भी ब्रह्मचारी होता है। अभिप्राय केवल इतना है कि भोगी और विषयी राजा राष्ट्ररक्षा के योग्य नहीं। इस अभिप्राय को सूचित करने के लिये तपसा शब्द का प्रयोग हुआ है। तपस्वी, न भोगरत होता है, न विषयी। आचार्य भी ब्रह्मचारी हो - इस का भी अभिप्राय यही है कि वह गृहस्थ जीवन व्यतीत कर, वानप्रस्थी-ब्रह्मचारी होना चाहिये, तभी तो वह मन्त्र १५ में उक्त प्रजापति सम्बन्धी सदुपदेश ब्रह्मचारी को दे सकता है। साथ ही अनुभवी होने के कारण ब्रह्मचारियों का पालन मातृवत् कर सकता है (मन्त्र ३, १४)। इस भाव को सूचित करने के लिये मन्त्र १६ में "आचार्यो ब्रह्मचारी” आदि द्वारा चातुर्वर्ण्य का कथन किया है]।