अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 5/ मन्त्र 26
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - ब्रह्मचारी
छन्दः - मध्येज्योतिरुष्णिक्त्रिष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मचर्य सूक्त
तानि॒ कल्प॑द् ब्रह्मचा॒री स॑लि॒लस्य॑ पृ॒ष्ठे तपो॑ऽतिष्ठत्त॒प्यमा॑नः समु॒द्रे। स स्ना॒तो ब॒भ्रुः पि॑ङ्ग॒लः पृ॑थि॒व्यां ब॒हु रो॑चते ॥
स्वर सहित पद पाठतानि॑ । कल्प॑त् । ब्र॒ह्म॒ऽचा॒री । स॒लि॒लस्य॑ । पृ॒ष्ठे । तप॑: । अ॒ति॒ष्ठ॒त् । त॒प्यमा॑न: । स॒मु॒द्रे । स: । स्ना॒त: । ब॒भ्रु: । पि॒ङ्ग॒ल: । पृ॒थि॒व्याम् । ब॒हु । रो॒च॒ते॒ ॥७.२६॥
स्वर रहित मन्त्र
तानि कल्पद् ब्रह्मचारी सलिलस्य पृष्ठे तपोऽतिष्ठत्तप्यमानः समुद्रे। स स्नातो बभ्रुः पिङ्गलः पृथिव्यां बहु रोचते ॥
स्वर रहित पद पाठतानि । कल्पत् । ब्रह्मऽचारी । सलिलस्य । पृष्ठे । तप: । अतिष्ठत् । तप्यमान: । समुद्रे । स: । स्नात: । बभ्रु: । पिङ्गल: । पृथिव्याम् । बहु । रोचते ॥७.२६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 5; मन्त्र » 26
भाषार्थ -
(तपः, तप्यमानः, ब्रह्मचारी) तपश्चर्या करता हुआ ब्रह्मचारी (सलिलस्य पृष्ठे) जल की पीठ पर (समुद्र) समुद्र [की पीठ या लहर] पर (अतिष्ठत्) जब स्थित होने में समर्थ हो जाता है, तब (तानि) उन [मन्त्र २४, २५ में कथित तत्त्वों तथा शरीराङ्गों] को (कल्पत्) सामर्थ्यवान कर देता है। (सः) वह (स्नातः) स्नातक होकर, (बभ्रुः) सब का भरण पोषण करता हुआ, (पिङ्गलः) रक्तमुखवाला (पृथिव्याम्) पृथिवी में (बहु रोचते) बहुत रुचिकर अर्थात् प्रिय होता या चमकता है।
टिप्पणी -
[कल्पत् = क्लृप् सामर्थ्य। बभ्रुः= भृञ् धारणपोषणयोः। पिङ्गलः = Reddish-Broun (आप्टे)। सलिलस्य पृष्ठे, समुद्र, अतिष्ठत्= इन पदों द्वारा ब्रह्मचारी की योगसिद्धि का वर्णन हुआ है। योग की अणिमादि सिद्धि के कारण योगी जल पर स्थित हो सकता है। मन्त्र में "सलिलस्य" पद द्वारा तालाब आदि के स्थिर और अचञ्चल जलों पर स्थित होना सूचित किया है, और "समुद्रे"१ पद द्वारा समुद्र की चञ्चल लहर पर स्थित होना सूचित किया है। मन्त्र ११ की व्याख्या के सम्बन्ध में, (योग ३।४२) की व्याख्या में व्यासमुनि द्वारा "जल की पृष्ठ पर योगी का पैरों द्वारा विहरण करने का कथन किया है। तथा "उदानजयाज्जलपंकण्टकादिष्वसङ्ग उत्क्रान्तिश्च" (योग ३।३८) की व्याख्या में वाचस्पति लिखते है कि "उदाने कृतसंयमस्तज्जयात् जलादिभिर्न प्रतिहन्यते," अर्थात् उदान में संयम द्वारा जल आदि में योगी का प्रतिरोध नहीं होता। उदान वायु का नियन्त्रण, कण्डस्थ विशुद्ध चक्र करता है]। [१. तथा “उभौ समुद्रावा क्षेति यश्च पूर्व उतापरः" (ऋक् १०।१३६।५) तथा अथर्व० ११।५।११ की व्याख्या देखो। "आक्षेति" के दो अर्थ हैं, (१) आ-निवास करता है, (२) तथा वहां तक गति करता है। "क्षि निवासगत्योः"। "निवास" करने का अभिप्राय “समुद्र की पृष्ठ पर" है, या उसके "किनारों पर" -- यह विचारणीय है।]