अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 5/ मन्त्र 24
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - ब्रह्मचारी
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मचर्य सूक्त
ब्र॑ह्मचा॒री ब्रह्म॒ भ्राज॑द्बिभर्ति॒ तस्मि॑न्दे॒वा अधि॒ विश्वे॑ स॒मोताः॑। प्रा॑णापा॒नौ ज॒नय॒न्नाद्व्या॒नं वाचं॒ मनो॒ हृद॑यं॒ ब्रह्म॑ मे॒धाम् ॥
स्वर सहित पद पाठब्र॒ह्म॒ऽचा॒री । ब्रह्म॑ । भ्राज॑त् । बि॒भ॒र्ति॒ । तस्मि॑न् । दे॒वा: । अधि॑ । विश्वे॑ । स॒म्ऽओता॑: । प्रा॒णा॒पा॒नौ । ज॒नय॑न् । आत् । वि॒ऽआ॒नम् । वाच॑म् । मन॑: । हृद॑यम् । ब्रह्म॑ । मे॒धाम् ॥७.२४॥
स्वर रहित मन्त्र
ब्रह्मचारी ब्रह्म भ्राजद्बिभर्ति तस्मिन्देवा अधि विश्वे समोताः। प्राणापानौ जनयन्नाद्व्यानं वाचं मनो हृदयं ब्रह्म मेधाम् ॥
स्वर रहित पद पाठब्रह्मऽचारी । ब्रह्म । भ्राजत् । बिभर्ति । तस्मिन् । देवा: । अधि । विश्वे । सम्ऽओता: । प्राणापानौ । जनयन् । आत् । विऽआनम् । वाचम् । मन: । हृदयम् । ब्रह्म । मेधाम् ॥७.२४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 5; मन्त्र » 24
भाषार्थ -
(ब्रह्मचारी, भ्राजत् ब्रह्म, बिभर्ति) ब्रह्मचारी देदीप्यमान ब्रह्म अर्थात् वेद का धारण तथा पोषण करता है, (तस्मिन् अधि) उस वेद१ में (विश्वे देवाः) सब देव१ (समोताः) सम्यक्तया ओत-प्रोत हैं। ब्रह्मचारी (प्राणापानौ) प्राण और अपान, (आत्)२ तत्पश्चात् (व्यानम्) व्यान, (वाचम्, मनः, हृदयम्, ब्रह्म, मेधाम्) वेदवाणी या मानुषवाणी, मन, हृदय, परमेश्वर और मेधा अर्थात् आशु विद्याग्रहण करने की शक्ति को (जनयन्) प्रकट करता रहता है।
टिप्पणी -
[देवाः समोता: = वेद में सब दिव्य तत्त्व समवेत हैं, ओत-प्रोत हैं। जैसे वस्त्र में तन्तु ओत-प्रोत होते, और वस्त्र के किसी भाग में तन्तुओं का अभाव नहीं होता, वस्त्र तन्तुमय ही होता है, इसी प्रकार वेदमन्त्रों में देव अर्थात् सूर्य, चन्द्र, नक्षत्रादि, तथा वैयक्तिक, सामाजिक तथा राष्ट्रिय देव समवेत हैं, सर्वत्र वर्णित हैं, ऐसे ओत-प्रोत हैं मानो इन देवों के वर्णन के अतिरिक्त वेद की सत्ता नहीं, वेद देवतामय ही है। इसलिये जिस ब्रह्मचारी में वेद धारित है, और परिपुष्टमात्रा में विद्यमान है, वह ब्रह्मचारी वेदवर्णित प्राणापानादि के यथार्थ स्वरूपों पर प्रकाश डालने या उन के सम्बन्ध में यथार्थ ज्ञान देने का अधिकारी है। मन्त्र के प्रथमार्ध में पठित "ब्रह्म" का अर्थ है वेद, और मन्त्र के उत्तरार्ध में पठित "ब्रह्म" का अर्थ है परमेश्वर]।[१. यथा "प्रनूनम्ब्रह्मणस्पतिर्मन्त्रँवदत्युक्थ्यम् । यस्मिन्निन्द्रो वरुणोऽमित्रो अर्यमा देवा ओकाँसि चक्रिरे ॥" (यजु० ३४।५७)। अर्थात् ब्रह्म (वेद) का पति परमेश्वर, निश्चय से, प्रशंसनीय मन्त्र समूह का कथन करता है, जिस मन्त्र समुदाय में इन्द्र, वरुण, मित्र अर्यमा आदि देवों ने निवासगृह रचे हैं। २. अस्मात्]