अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 5/ मन्त्र 2
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - ब्रह्मचारी
छन्दः - पञ्चपदा बृहतीगर्भा विराट्शक्वरी
सूक्तम् - ब्रह्मचर्य सूक्त
ब्र॑ह्मचा॒रिणं॑ पि॒तरो॑ देवज॒नाः पृथ॑ग्दे॒वा अ॑नु॒संय॑न्ति॒ सर्वे॑। ग॑न्ध॒र्वा ए॑न॒मन्वा॑य॒न्त्रय॑स्त्रिंशत्त्रिश॒ताः ष॑ट्सह॒स्राः सर्वा॒न्त्स दे॒वांस्तप॑सा पिपर्ति ॥
स्वर सहित पद पाठब्र॒ह्म॒ऽचा॒रिण॑म् । पि॒तर॑: । दे॒व॒ऽज॒ना: । पृथ॑क् । दे॒वा: । अ॒नु॒ऽसंय॑न्ति । सर्वे॑ । ग॒न्ध॒र्वा: । ए॒न॒म् । अनु॑ । आ॒य॒न् । त्रय॑:ऽत्रिंशत् । त्रि॒ऽश॒ता: । ष॒ट्ऽस॒ह॒स्रा: । सर्वा॑न् । स: । दे॒वान् । तप॑सा । पि॒प॒र्ति॒ ॥७.२॥
स्वर रहित मन्त्र
ब्रह्मचारिणं पितरो देवजनाः पृथग्देवा अनुसंयन्ति सर्वे। गन्धर्वा एनमन्वायन्त्रयस्त्रिंशत्त्रिशताः षट्सहस्राः सर्वान्त्स देवांस्तपसा पिपर्ति ॥
स्वर रहित पद पाठब्रह्मऽचारिणम् । पितर: । देवऽजना: । पृथक् । देवा: । अनुऽसंयन्ति । सर्वे । गन्धर्वा: । एनम् । अनु । आयन् । त्रय:ऽत्रिंशत् । त्रिऽशता: । षट्ऽसहस्रा: । सर्वान् । स: । देवान् । तपसा । पिपर्ति ॥७.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(पितरः) पितृवर्ग, (देवजनाः) विद्वान् तथा दिव्यकोटि के लोग, (सर्वे देवाः) ये सब देव मिलकर तथा (पृथक) पृथक्-पृथक् रूप में (ब्रह्मचारिणम्, अनुसंयन्ति) ब्रह्मचारी के अनुगामी हो जाते हैं। (गन्धर्वाः) तथा पृथिवी का धारण करने वाले ६३३३ देव (एनम्, अनु आयन्) इस की अनुकूलता में आ जाते हैं। (सः) बह ब्रह्मचारी (सर्वान् देवान्) सब देवों को (तपसा) निज तपश्चर्यामय जीवन द्वारा (पिपर्त्ति) प्रसन्नता से भरपूर कर देता है।
टिप्पणी -
[गन्धर्वाः= गौः पृथिवी (निघं० १।१) + धर्चाः (धृञ धारणे)। "गन्धर्वाः" का अर्थ पृथिवी का धारण करने वाले शासक-अधिकारी यदि अभिप्रेत हों, तब ६३३३ संख्या इन शासक-अधिकारियों की वेद ने नियत की है, जोकि सार्वभौम शासनार्थ होनी चाहिये। इस संख्या की उत्पति निम्न प्रकार हैं:- (१) शासन के लिये वेद ने 'त्रीणि सदांसि" अर्थात् तीन सभाएं कही हैं। यथा “त्रीणि राजाना विदथे पुरूनि परि विश्वानि भूषथः सदांसि" (ऋ० ३।३८।६)। तीन सभाएं हैं "विद्यार्यसभा, धर्मार्यसभा और राजार्यसभा" (सत्यार्थप्रकाश, समुल्लास ६)। विद्यार्यसभा शिक्षा के लिये, धर्मार्यसभा नियमनिर्माण तथा तदनुसार न्याय के लिये, तथा राजार्यसभा राज्य शासन के लिये। सत्यार्थप्रकाश में इन सभाओं के साथ "आर्य" शब्द का प्रयोग है। आर्य का अभिप्राय है श्रेष्ठ, धर्मात्मा, सदाचारी, सत्यानुष्ठानी। (२) "सार्वभौमशासक" सर्वोपरि शक्ति हैं, जोकि समग्र पृथिवी की प्रजाओं द्वारा वरण किया गया है। इस के निरीक्षण में तीन सभाएं कार्य करती हैं। (३) प्रत्येक सभा में १ सभापति होता है और न्यून से न्यून १० पारिषद्य या पारिषद। इसे मनु में "दशावरा वा परिषद्" कहा है। १ सभापति और १० पारिषद्यों को "देवा एकादश" कहा है (यजु० २०।११)। ये "एकादश देवाः" ३ भागों या सभाओं में विभक्त हैं "त्रया देवा एकादश" (यजु० २०।११)। इन तीन सभाओं के ग्यारह देवों अर्थात् दिव्य सभासदों में एक-एक पुरोहित होता है, मुखिया होता है जिसे कि बृहस्पति कहा है "बृहस्पतिपुरोहिताः" (यजु० २०।११)। ये तीन सभाएं सार्वभौम राजा की रक्षा करती है "देवा देवैरवन्तु मा" (यजु० २०।११)। यजु० २०।११ की विस्तृत व्याख्या के लिये देखो मत्कृत "यजुर्वेद स्वाध्याय तथा पशुयज्ञ समीक्षा" (प्रकाशक रामलाल कपूर ट्रस्ट, बहालगढ़, सोनीपत, हरयाणा)। (४) प्रत्येक सभा का सभापति तो सभा का प्रबन्धक है, और शेष १० अधिकारी अपने-अपने विभागों, महकमों के शासक होते हैं। प्रबन्धकों और शासकों को मिलाकर तीन सभाओं में ११×३ = ३३ होते हैं। ये ३३ देव हैं, दिव्यकोटि के शासक हैं; सार्वभौम शासक हैं। (५) दशावरा परिषदों के दस-दस शासकों में प्रत्येक के अधीन दस-दस उपशासक हों। इस प्रकार प्रत्येक परिषद् के अधीन दस-दस उपशासकों की संख्या होती है १००। अतः तीन परिषदों के उपशासक ३०० होते हैं। संख्या (४) के ३३ देव तथा संख्या (५) के ३०० देव मिल कर ३३३ देव हुए। (६) ३०० उपशासकों में से प्रत्येक उपशासक के अधीन बीस-बीस और उपोपशासक हों। इस प्रकार उपोपशासक होते हैं ३००x२० = ६०००। अतः कुल योग = ३३+३०० + ६००० = ६३३३। (७) काण्ड ११। सूक्त ५ में ब्रह्मचारी का वर्णन होने से सूक्त में आधिभौतिक वर्णन है। इसलिये ६३३३ देव भी आधिभौतिक ही प्रतीत होते हैं। (८) आधिदैविक दृष्टि से, विना दूरबीन के तीव्र दृष्टि द्वारा देखने से दृष्टिगोचर सम्भवतः ६३३३ तारा हों। (९) तथा "यथा ब्रह्माण्डे तथा पिण्डे" के अनुसार सम्भवतः शरीरस्थ ६३३३ अङ्ग-प्रत्यङ्ग तथा नाड़ियां अभिप्रेत हों। बृहदारण्यकोपनिषद् में केवल हृदय की नाड़ियों की संख्या निम्न प्रकार दर्शाई है:— हिता नाम नाड्यो द्वासप्तति सहस्राणि हृदयात्पुरीततमभिप्रतिष्ठन्ते" (अध्याय २, ब्राह्मण १) अर्थात् हितानामक नाड़ियां ७२ हजार हैं, जोकि हृदय से पुरीतत् की ओर जाती हैं। सुषुम्णा की नाड़ियां इन से अतिरिक्त हैं। सम्भवतः ६३३३ संख्या मुख्य-मुख्य अंग-प्रत्यंगों तथा मुख्य नाड़ियों की अभिप्रेत हो। नाड़ियों के सम्बन्ध में देखो वृहदा० उप० अध्या० ४, ब्राह्मण ३, खण्ड २०। आध्यात्मिक दृष्टि में - तीन शरीर =स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर, कारण शरीर = ३। प्रत्येक शरीर में दस-दस ऐन्द्रियिक शक्तियां = १०+१०+१० = ३०। सौ वर्ष काल में तीनों शरीर के शारीरिक परिवर्तन = १००+१००+१०० = ३००। सौ वर्ष काल में तीनों शरीर के ऐन्द्रियिक दैवी परिवर्तन= (१००×१०)+ (१००×१०)+ (१००×१०) = ३०००। सौ वर्ष काल में तीनों शरीर में आसुरि परिवर्तन =(१००×१०)+ (१००×१०)+ (१००×१०) = ३०००। ऐन्द्रियिक परिवर्तनों के दो भाग कुल = ३+३०+३००+३०००+३०००= ६३३३। ६३३३ संख्या के सम्बन्ध में उपरिलिखित व्याख्याएं केवल सुझाव रूप है। इस संख्या के सम्बन्ध में निश्चितरूप में कुछ कहा नहीं जा सकता। सायणाचार्य ने लिखा है कि "वैश्वदैवनिविदि देवानां संख्या उत्तरोत्तरं भूयसी, तन्माहात्म्यप्रतिपादनाय समाम्नायते। यथा “ये स्थ त्रय एकादशाः, त्रयश्च त्रिंशच्च त्रयश्च त्री च शता, त्रयश्च त्री च सहस्रा "इति प्रकम्य" अतो वा देवा भूयांसः स्थ" इति (निविदि १।७)। "अर्थात् इस प्रकार प्रदर्शित ६३३३ दैवी संख्या, केवल दैवों के महात्म्य का प्रदर्शन करती है। संख्या अनुसंन्धान योग्य है]।