अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 130/ मन्त्र 8
सूक्त -
देवता - प्रजापतिः
छन्दः - प्राजापत्या गायत्री
सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
अकु॑प्यन्तः॒ कुपा॑यकुः ॥
स्वर सहित पद पाठअकु॑प्यन्त॒: । कुपा॑यकु: ॥१३०.८॥
स्वर रहित मन्त्र
अकुप्यन्तः कुपायकुः ॥
स्वर रहित पद पाठअकुप्यन्त: । कुपायकु: ॥१३०.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 130; मन्त्र » 8
भाषार्थ -
हे सद्गुरो! आप (कुपायकुः) कुत्सित कर्मों से रक्षा करनेवाले हैं, इसलिए (अकुप्यन्तः) हम कोप-क्रोध आदि से रहित हो गये हैं।
टिप्पणी -
[कुपायकुः=कु (कुत्सित कर्म)+पाय (पा रक्षणे)+कुः (करनेवाला)। पायुः=पाति रक्षति स पायुः रक्षकः (उणादि कोष १.१), रामलाल कपूर ट्रस्ट, बहालगढ़। कुपायकुः=कुपायुकः।]