अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 11/ मन्त्र 10
सूक्त - भृग्वङ्गिराः
देवता - इन्द्रः, अनड्वान्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - अनड्वान सूक्त
प॒द्भिः से॒दिम॑व॒क्राम॒न्निरां॒ जङ्घा॑भिरुत्खि॒दन्। श्रमे॑णान॒ड्वान्की॒लालं॑ की॒नाश॑श्चा॒भि ग॑छतः ॥
स्वर सहित पद पाठप॒त्ऽभि: । से॒दिम् । अ॒व॒ऽक्राम॑न् । इरा॑म् । जङ्घा॑भि: । उ॒त्ऽखि॒दन् । श्रमे॑ण । अ॒न॒ड्वान् । की॒लाल॑म् । की॒नाश॑: । च॒ । अ॒भि । ग॒च्छ॒त॒: ॥११.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
पद्भिः सेदिमवक्रामन्निरां जङ्घाभिरुत्खिदन्। श्रमेणानड्वान्कीलालं कीनाशश्चाभि गछतः ॥
स्वर रहित पद पाठपत्ऽभि: । सेदिम् । अवऽक्रामन् । इराम् । जङ्घाभि: । उत्ऽखिदन् । श्रमेण । अनड्वान् । कीलालम् । कीनाश: । च । अभि । गच्छत: ॥११.१०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 11; मन्त्र » 10
भाषार्थ -
(पद्भिः) पैरों द्वारा (सेदिम्) विनाश को (अवक्रामण) कुचला हुआ, और (इराम्) जल को (जङ्घाभिः) जंघाओं द्वारा (उत्खिदन्) ऊपर की ओर खदेड़ता हुआ, (अनड्वान्) प्राणवान् सूर्य, (कीनाशः च) और किसान [ये दोनों] (श्रमेण) श्रम द्वारा (कीलालम्) अन्न के (अभि) अभिमुख (गच्छतः) जाते हैं, अन्न प्राप्त करते हैं।
टिप्पणी -
['पद्भिः' द्वारा ६ दिशाओं में सूर्य के पदों का वर्णन हुआ है और 'जङ्घाभिः' द्वारा गति और वेग सूचित किया गया है। यथा "जङ्घयोर्जवः" (अथर्व० १९।६०।२)। अतः 'जङ्घा' पद 'हन' धातु से व्युत्पन्न प्रतीत होता है, हन हिंसागत्योः (अदादिः)। 'जङ्घा' पद में गत्यर्थ सूचित हुआ है। पाद तो शरीर की स्थिति के साधन हैं "पादयोः प्रतिष्ठा" [स्थिति] (अथर्व० १९।६०।२)। सूर्य की रश्मियों के अग्र भागों को भी “पादाः" कहते हैं, यथा "बालस्यापि रवेः पादाः पतन्ति शिरसि भूभृताम्" (पञ्चतन्त्र१ १।३१८)। ये पादाग्र जब पृथिवी के जलप्रधान प्रदेशों पर पड़ते हैं, तव जल वाष्पीभूत होकर अंतरिक्ष की ओर उड़कर मेघ निर्माण करता है, और वर्षा द्वारा कृषि से अन्न पैदा होता है, और कृषक अर्थात् किसानों को अन्नलाभ होता है। कृषक खेत को तैयार कर, अन्न बोते हैं, अतः कृषकों और सूर्य के सहयोग से कीलाल पैदा होता है, "कीलालम् अन्ननाम” (निघं० २/७)। इरा=जल, यथा "इरावत्यः नदीनाम (निघं० १।१३)। मन्त्रपठित 'अनड्वान्' पद भी भिन्नार्थक है। अनत: प्राणनाम (अन प्राणने; श्वस प्राणने, अन च (अदादिः)। अन् + असुन्=अनस्, अनः। सूर्य प्राणवान् है, और प्राणप्रदाता है। अनड्वान्=अनस्+ मतुप्। मन्त्र-पठित 'श्रमेण' का अन्वय कीनाश के साथ है, किसान का परिश्रम अभिप्रेत है। [१. "शिशुपालवध" (९।३४) तथा 'रघुवंश' (१६।५३) में भी अभिप्राय पूर्ववत् है। (आप्टे)।]