अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 34/ मन्त्र 6
सूक्त - अथर्वा
देवता - ब्रह्मौदनम्
छन्दः - पञ्चपदातिशक्वरी
सूक्तम् - ब्रह्मौदन सूक्त
घृ॒तह्र॑दा॒ मधु॑कूलाः॒ सुरो॑दकाः क्षी॒रेण॑ पू॒र्णा उ॑द॒केन॑ द॒ध्ना। ए॒तास्त्वा॒ धारा॒ उप॑ यन्तु॒ सर्वाः॑ स्व॒र्गे लो॒के मधु॑म॒त्पिन्व॑माना॒ उप॑ त्वा तिष्ठन्तु पुष्क॒रिणीः॒ सम॑न्ताः ॥
स्वर सहित पद पाठघृ॒तऽहृ॑दा: । मधु॑ऽकूला: । सुरा॑ऽउदका: । क्षी॒रेण॑ । पू॒र्णा: । उ॒द॒केन॑ । द॒ध्ना । ए॒ता: ।त्वा॒ । धारा॑: । उप॑ । य॒न्तु॒ । सर्वा॑: । स्व॒:ऽगे । लो॒के । मधु॑ऽमत् । पिन्व॑माना: । उप॑ । त्वा॒ । ति॒ष्ठ॒न्तु॒ । पु॒ष्क॒रिणी॑: । सम्ऽअ॑न्ता: ॥३४.६॥
स्वर रहित मन्त्र
घृतह्रदा मधुकूलाः सुरोदकाः क्षीरेण पूर्णा उदकेन दध्ना। एतास्त्वा धारा उप यन्तु सर्वाः स्वर्गे लोके मधुमत्पिन्वमाना उप त्वा तिष्ठन्तु पुष्करिणीः समन्ताः ॥
स्वर रहित पद पाठघृतऽहृदा: । मधुऽकूला: । सुराऽउदका: । क्षीरेण । पूर्णा: । उदकेन । दध्ना । एता: ।त्वा । धारा: । उप । यन्तु । सर्वा: । स्व:ऽगे । लोके । मधुऽमत् । पिन्वमाना: । उप । त्वा । तिष्ठन्तु । पुष्करिणी: । सम्ऽअन्ता: ॥३४.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 34; मन्त्र » 6
भाषार्थ -
(घृतह्रदाः) घृत के तालाब-सदृश महाकाय मटके१, (मधु कूलाः) मधु द्वारा कूलों अर्थात् किनारों तक भरे मटके, (सुरोदकाः) आयुर्वेदिक अरिष्टों तथा आसवोंवाले महाकाय मटके, तथा (क्षीरेण) दूध द्वारा, (उदकेन) उदक द्वारा, (दध्ना:) दधि द्वारा (पूर्णाः) भरपूर मटके, (एताः) ये (सर्वाः धारा:) सब धारक धाराएँ (त्वा) तुझे (उप यन्तु) प्राप्त हों (स्वर्गे लोके) गृहस्थ लोकरूपी स्वर्गलोक में; तथा (मधुमत्) मधुर मधु को (पिन्वमाना:) सींचती हुई (पुष्करिणी:) पुष्करों अर्थात् कमलोंवाली भूमियाँ, (पर्यन्ताः) जोकि पर्यन्तवर्ती हैं, वे (त्वा) तुझे (उप तिष्ठन्तु) उपस्थित हों, तेरे समीप स्थित हों।
टिप्पणी -
[सुरदोका:= सुरा उदकनाम (निघं० १।१२), अर्थात् सन्धान-विधि द्वारा शुद्ध किया जल-यह अभिप्राय निघण्टु द्वारा प्रतीत होता है। आयुर्वेद की दृष्टि में 'सुरोदका' का अभिप्राय है अरिष्टों और द्राक्षासवों आदिवाला उदक। 'पुष्करिणी' हैं कमलोंवाली भूमियाँ। मधुमक्खियाँ कमलों के फूलों से मधु अर्थात् शहद का संग्रह करती हैं, कमलों के फूलों से संगृहीत मधु अधिक गुणकारी प्रतीत होता है।] [१. इन्हें मन्त्र ७ में कुम्भ कहा है। ये छोटे कुम्भ नहीं, अपितु महाकाय हैं, मटके हैं।]