अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 11/ मन्त्र 4
न त्वद॒न्यः क॒वित॑रो॒ न मे॒धया॒ धीर॑तरो वरुण स्वधावन्। त्वं ता विश्वा॒ भुव॑नानि वेत्थ॒ स चि॒न्नु त्वज्जनो॑ मा॒यी बि॑भाय ॥
स्वर सहित पद पाठन । त्वत् । अ॒न्य: । क॒विऽत॑र: । न । मे॒धया॑ । धीर॑ऽतर: । व॒रु॒ण॒ । स्व॒धा॒ऽव॒न् । त्वम् । ता । विश्वा॑ । भुव॑नानि । वे॒त्थ॒ । स: । चि॒त् । नु । त्वत् । जन॑: । मा॒यी। बि॒भा॒य॒ ॥११.४॥
स्वर रहित मन्त्र
न त्वदन्यः कवितरो न मेधया धीरतरो वरुण स्वधावन्। त्वं ता विश्वा भुवनानि वेत्थ स चिन्नु त्वज्जनो मायी बिभाय ॥
स्वर रहित पद पाठन । त्वत् । अन्य: । कविऽतर: । न । मेधया । धीरऽतर: । वरुण । स्वधाऽवन् । त्वम् । ता । विश्वा । भुवनानि । वेत्थ । स: । चित् । नु । त्वत् । जन: । मायी। बिभाय ॥११.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 11; मन्त्र » 4
भाषार्थ -
(स्वधावन् वरुण) हे अन्न के स्वामी ! या अपने को स्वयं धारण करनेवाले वरुण (त्वत् अन्यः) तुझसे अन्य कोई ( कवितरः न ) अधिक कवि नहीं, और (न) न (मेधया) मेधा से ( धीरतरः ) अधिक बुद्धिमान है। (त्वम् ) तू (ता विश्वा भुवनानि ) उन सब भुवनों को ( वेत्थ) जानता है, (सः) वह (मायी) छलीकपटी (जन: चित्) जन भी ( नु) निश्चय से ( त्वम् ) तुझसे (बिभाय) भयभीत होता है।
टिप्पणी -
['स्वधावन्' "स्वधा अन्ननाम" (निघं० २।७)। वरुण के लिए जगत् अन्नरूप है, वह इसे प्रलयकाल में खा लेता है, अत: इसे 'अन्नाद' कहा है (तैतरीय उपनिषद्), अथवा प्राणियों द्वारा भक्ष्य अन्न का वह स्वामी है। अथवा स्वधावन् =स्व+धा (धारणे ) +मतुप्। धीरतरः=धीः (बुद्धिः)+र: (मत्वर्थो य:) + तरप् । इसलिए वरुण को 'वेत्थ' कहा है। मन्त्रोक्ति अथर्वा की है।