अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 11/ मन्त्र 9
आ ते॑ स्तो॒त्राण्युद्य॑तानि यन्त्व॒न्तर्विश्वा॑सु॒ मानु॑षीषु दि॒क्षु। दे॒हि नु मे॒ यन्मे॒ अद॑त्तो॒ असि॒ युज्यो॑ मे स॒प्तप॑दः॒ सखा॑सि ॥
स्वर सहित पद पाठआ । ते॒ । स्तो॒त्राणि॑ । उत्ऽय॑तानि । य॒न्तु॒ । अ॒न्त: । विश्वा॑सु । मानु॑षीषु। दि॒क्षु। दे॒हि। नु । मे॒ । यत् । मे॒ । अद॑त्त: । असि॑ । युज्य॑ । मे॒ । स॒प्तऽप॑द: । सखा॑। अ॒सि॒ ॥११.९॥
स्वर रहित मन्त्र
आ ते स्तोत्राण्युद्यतानि यन्त्वन्तर्विश्वासु मानुषीषु दिक्षु। देहि नु मे यन्मे अदत्तो असि युज्यो मे सप्तपदः सखासि ॥
स्वर रहित पद पाठआ । ते । स्तोत्राणि । उत्ऽयतानि । यन्तु । अन्त: । विश्वासु । मानुषीषु। दिक्षु। देहि। नु । मे । यत् । मे । अदत्त: । असि । युज्य । मे । सप्तऽपद: । सखा। असि ॥११.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 11; मन्त्र » 9
भाषार्थ -
[हे वरुण !] (मानुषीषु) मनुष्योंसम्बन्धी (विश्वासु दिक्षु) सब दिशाओं में (ते) तेरे (स्तोत्राणि) स्तुतिमंत्र (उद्यतानि) उद्यमपूर्वक कथित हुए (आ यन्तु) आएँ । (न) निश्चय से (मे) मुझे (देहि) दे, (यत्) जिसे कि (मे) मुझे (अदत्तः असि) तूने अभी तक नहीं दिया, ( युज्य:) योग्य (सप्तपदः) सात पदोंवाला (मे) मेरा (सखा असि) सखा तू है।
टिप्पणी -
[अदत्त:=कर्तरिक्तः। अभिप्राय है "निजदर्शन का अदान"। अथर्वा वरुण से उसके निजस्वरूप के प्रत्यक्षज्ञान से वंचित रखने की शिकायत करता है। अथर्वा वरुण से कहता है कि तु तो मेरा योग्य सखा है, सखा भी क्या अपने सखा से निज स्वरूप को छिपाये रखता है। सप्तपदः सखा= जिसके साथ भी मिलकर सात पग चला जाए वह भी सखा बन जाता है, अथवा जिसके साथ सात पद अर्थात् शब्द भी बोल लिये जाएँ वह भी सखा बन जाता है, परन्तु सूक्त में, हम दोनों में, वाक्यों में कई पदों अर्थात् शब्दों में बातें हुई हैं, अतः तू मेरा सखा है, अत: तू मुझे निजस्वरूप का दर्शन दे। वैदिक विवाह पद्धति में "सप्तपदी विधि" के मूल, सम्भवत: मन्त्र ९,१० हो। मन्त्र ९ में अथर्वा की उक्ति वरुण के प्रति है।]