अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 13/ मन्त्र 10
सूक्त - गरुत्मान्
देवता - तक्षकः
छन्दः - निचृद्गायत्री
सूक्तम् - सर्पविषनाशन सूक्त
ता॒बुवं॒ न ता॒बुवं॒ न घेत्त्वम॑सि ता॒बुव॑म्। ता॒बुवे॑नार॒सं वि॒षम् ॥
स्वर सहित पद पाठता॒बुव॑म् । न । ता॒बुव॑म् । न । घ॒ । इत् । त्वम् । अ॒सि॒ । ता॒बुव॑म् । ता॒बुवे॑न । अ॒र॒सम् । वि॒षम् ॥१३.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
ताबुवं न ताबुवं न घेत्त्वमसि ताबुवम्। ताबुवेनारसं विषम् ॥
स्वर रहित पद पाठताबुवम् । न । ताबुवम् । न । घ । इत् । त्वम् । असि । ताबुवम् । ताबुवेन । अरसम् । विषम् ॥१३.१०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 13; मन्त्र » 10
भाषार्थ -
[हे विषः ] (ताबुवम्) तू कर्मशक्तिप्रद तथा वृद्धिकारक है। [क्या?]; (न) नहीं है (ताबुवम्) तु कर्मशवितप्रद तथा वृद्धिकारक (घ इत्) निश्चय से ही (त्वम् ) तू (न असि) नहीं है (ताबुवम्) कमशक्तिप्रद तथा वृद्धिकारक (ताबुवेन) तुम्बे के द्वारा (अरसम्) नीरस हुआ है। (विषम्) विष ।
टिप्पणी -
[मन्त्र में सर्प के विष को सम्बोधित किया है तथा प्रश्न और उत्तर में वर्णन हुआ है । ताबुवम्='तु' गतिवृद्धिहिंसासु (अदादि:) + उ (औणादिक, णित)+ वृद्धि 'औ' को आव्; व (मतुबर्थे)। वकार को बकार (वैदिक)। ताबुवेन= "दशम्याऽलाबुनाऽऽचमयति" (कोशिक सुत्र २९, २-१४), तथा "अलाबुना अलाबुन्युदकं कृत्वा आचमयति विषव्याधितम्" (सायण)। अलाबु है कड़वा तूम्बा। उसमें जल डालकर [ जब जल कड़वा हो जाए, या कड़वे तूम्बे के रस को, पिलाने से सम्भवत: विष अरस हो जाता हो। यह परीक्षणीय है।]