अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 13/ मन्त्र 4
सूक्त - गरुत्मान्
देवता - तक्षकः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - सर्पविषनाशन सूक्त
चक्षु॑षा ते॒ चक्षु॑र्हन्मि वि॒षेण॑ हन्मि ते वि॒षम्। अहे॑ म्रि॒यस्व॒ मा जी॑वीः प्र॒त्यग॒भ्ये॑तु त्वा वि॒षम् ॥
स्वर सहित पद पाठचक्षु॑षा । ते॒ । चक्षु॑: । ह॒न्मि॒ । वि॒षेण॑ । ह॒न्मि॒ । ते॒ । वि॒षम् । अहे॑ । म्रि॒यस्व॑ । मा । जी॒वी॒: । प्र॒त्यक् । अ॒भि । ए॒तु॒ । त्वा॒ । वि॒षम् ॥१३.४॥
स्वर रहित मन्त्र
चक्षुषा ते चक्षुर्हन्मि विषेण हन्मि ते विषम्। अहे म्रियस्व मा जीवीः प्रत्यगभ्येतु त्वा विषम् ॥
स्वर रहित पद पाठचक्षुषा । ते । चक्षु: । हन्मि । विषेण । हन्मि । ते । विषम् । अहे । म्रियस्व । मा । जीवी: । प्रत्यक् । अभि । एतु । त्वा । विषम् ॥१३.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 13; मन्त्र » 4
भाषार्थ -
(चक्षुषा) निज प्रबल दृष्टि द्वारा (ते ) तरी ( चक्षु:) दृष्टि का (हन्मि) मैं हनन करता हूँ, (विषेण) विष द्वारा (ते विषम् ) तेरे विष का (हन्मि) मैं हनन करता हूँ (अहे) हे सर्व ! (म्रियस्व) तू मर जा, (मा जीवी:) तु जीवित मत रह, (त्वा) तेरा ( विषम् ) विष (प्रत्यक् ) वापस (अभ्येतु) तेरी ओर आए।
टिप्पणी -
[जैसे टार्च की प्रबल ज्योति द्वारा, व्यक्ति की दृष्टि, कुछ काल के लिए क्षीण हो जाती है वैसे प्रयोक्ता की प्रबल दृष्टि द्वारा सांप की आँख में डाली गई दृष्टि साँप को कुछ काल तक अन्धा कर देती है, तब साँप देख नहीं सकता और मार दिया जाता है। मन्त्र में "Auto taxic" क्रिया के सिद्धान्त द्वारा, साँप के विष को साँप में प्रविष्ट कर देने पर सम्भवतः साँप का विष विषैला नहीं रहता यह "प्रत्यग् अभ्येतु ते विषम्" का अभिप्राय है। Auto-taxic का अभिप्राय है अपने विष द्वारा अपने विष को विषरहित कर देना।]