अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 18/ मन्त्र 6
सूक्त - मयोभूः
देवता - ब्रह्मगवी
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
न ब्रा॑ह्म॒णो हिं॑सित॒व्यो॒ऽग्निः प्रि॒यत॑नोरिव। सोमो॒ ह्य॑स्य दाया॒द इन्द्रो॑ अस्याभिशस्ति॒पाः ॥
स्वर सहित पद पाठन । ब्रा॒ह्म॒ण: । हिं॒सि॒त॒व्य᳡: । अ॒ग्नि: । प्रि॒यत॑नो:ऽइव । सोम॑: । हि । अ॒स्य॒ । दा॒या॒द: । इन्द्र॑: । अ॒स्य॒ । अ॒भि॒श॒स्ति॒ऽपा ॥१८.६॥
स्वर रहित मन्त्र
न ब्राह्मणो हिंसितव्योऽग्निः प्रियतनोरिव। सोमो ह्यस्य दायाद इन्द्रो अस्याभिशस्तिपाः ॥
स्वर रहित पद पाठन । ब्राह्मण: । हिंसितव्य: । अग्नि: । प्रियतनो:ऽइव । सोम: । हि । अस्य । दायाद: । इन्द्र: । अस्य । अभिशस्तिऽपा ॥१८.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 18; मन्त्र » 6
भाषार्थ -
(ब्राह्मणः) ब्रह्मज्ञ और वेदज्ञ विद्वान् (न हिंसितव्यः) हिंसा के योग्य नहीं, यह (प्रियतनोः) प्रिय तनु की ( अग्नि: इव ) अग्नि के सदृश है। (हि) निश्चय से (अस्य) इसकी (दायादः) सम्पत्ति का अदन करनेवाला उत्तराधिकारी (सोमः) सोमयज्ञ है, और (इन्द्रः) सम्राट् (अस्य) इसका ( अभिशस्तिपाः) हिंसा से रक्षक है।
टिप्पणी -
[अग्निः= शरीर का तापमान, या जाठराग्नि। शरीर के तापमान के अभाव से शरीर मृत हो जाता है, जाठराग्नि के विकृत हो जाने से शरीर विकृत हो जाता है। ब्राह्मण भी राष्ट्र-शरीर तथा साम्राज्य-शरीर का अग्निरूप है। इसकी सम्पत्ति का 'दायाद' सोमयज्ञ है। सोमयज्ञ के सम्पादन में इसकी सम्पत्ति का व्यय होता है। ऐसे निःस्वार्थी और परोपकारी की रक्षा सम्राट स्वयं करता है। उसके शरीर की रक्षा, स्वास्थ्य तथा व्यय का प्रबन्ध सम्राट् स्वयं करता है।]