अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 20/ मन्त्र 6
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - वानस्पत्यो दुन्दुभिः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुसेनात्रासन सूक्त
पूर्वो॑ दुन्दुभे॒ प्र व॑दासि॒ वाचं॒ भूम्याः॑ पृ॒ष्ठे व॑द॒ रोच॑मानः। अ॑मित्रसे॒नाम॑भि॒जञ्ज॑भानो द्यु॒मद्व॑द दुन्दुभे सू॒नृता॑वत् ॥
स्वर सहित पद पाठपूर्व॑: । दु॒न्दु॒भे॒ ।प्र । व॒दा॒सि॒ । वाच॑म् । भूम्या॑: । पृ॒ष्ठे । व॒द॒ । रोच॑मान: । अ॒मि॒त्र॒ऽसे॒नाम् । अ॒भि॒ऽजञ्ज॑भान: । द्यु॒मत् । व॒द॒ । दु॒न्दु॒भे॒ । सू॒नृता॑ऽवत् ॥२०.६॥
स्वर रहित मन्त्र
पूर्वो दुन्दुभे प्र वदासि वाचं भूम्याः पृष्ठे वद रोचमानः। अमित्रसेनामभिजञ्जभानो द्युमद्वद दुन्दुभे सूनृतावत् ॥
स्वर रहित पद पाठपूर्व: । दुन्दुभे ।प्र । वदासि । वाचम् । भूम्या: । पृष्ठे । वद । रोचमान: । अमित्रऽसेनाम् । अभिऽजञ्जभान: । द्युमत् । वद । दुन्दुभे । सूनृताऽवत् ॥२०.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 20; मन्त्र » 6
भाषार्थ -
(दुन्दुभे) हे दुन्दुभि ! (पूर्वः) पहले तू (वाचम् ) [ सौम्य ] वाणी को (प्रवदासि) बोल, [तत्पश्चात्] (रोचमान:) रुचिकर होता हुआ (भूम्या: पृष्ठे) युद्धभूमि की पीठ पर (वद) युद्ध, सम्बन्धी आवाज कर, (अमित्रसेनाम्) शत्रु की सेना को (अभिजञ्जभानः) छिन्न भिन्न करता हुआ। [तत्पश्चात्] (दुन्दुभे) हे दुन्दुभि ! (द्युमत् ) मोद-प्रमोदवाली, (सूनृतावत्) सत्य और प्रिय (वद) वाणी बोल ।
टिप्पणी -
[मन्त्र में दुन्दुभि के बोलने के ३ प्रक्रम कहे हैं-(१) युद्धारम्भ से पूर्व दुन्दुभि की आवाज; यह शत्रु को चेताने के लिए है। ( २ ) युद्धभूमि में की गई आवाज, युद्ध के प्रारम्भ हो जाने पर निज सैनिकों को जोश दिलाने बाली आवाज। (३) विजय पाकर प्रसन्नता की आवाज जोकि प्रिय लगे, और विजय की सचाई को सूचित करे। द्युमत्= दिवु क्रीडा, विजिगीषा, व्यवहार, द्युति, स्तुति 'मोद' (दिवादिः)। मोद= प्रसन्नता।]