अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 20/ मन्त्र 10
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - वानस्पत्यो दुन्दुभिः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुसेनात्रासन सूक्त
श्रेयः॑केतो वसु॒जित्सही॑यान्त्संग्राम॒जित्संशि॑तो॒ ब्रह्म॑णासि। अं॒शूनि॑व॒ ग्रावा॑धि॒षव॑णे॒ अद्रि॑र्ग॒व्यन्दु॑न्दु॒भेऽधि॑ नृत्य॒ वेदः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठश्रेय॑:ऽकेत: । व॒सु॒ऽजित् । सही॑यान् । सं॒ग्रा॒म॒ऽजित् । सम्ऽशि॑त: । ब्रह्म॑णा । अ॒सि॒ । अं॒शून्ऽइ॑व । ग्रावा॑ । अ॒धि॒ऽसव॑ने । अद्रि॑: । ग॒व्यन् । दु॒न्दु॒भे॒ । अधि॑ । नृ॒त्य॒ । वेद॑: ॥२०.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
श्रेयःकेतो वसुजित्सहीयान्त्संग्रामजित्संशितो ब्रह्मणासि। अंशूनिव ग्रावाधिषवणे अद्रिर्गव्यन्दुन्दुभेऽधि नृत्य वेदः ॥
स्वर रहित पद पाठश्रेय:ऽकेत: । वसुऽजित् । सहीयान् । संग्रामऽजित् । सम्ऽशित: । ब्रह्मणा । असि । अंशून्ऽइव । ग्रावा । अधिऽसवने । अद्रि: । गव्यन् । दुन्दुभे । अधि । नृत्य । वेद: ॥२०.१०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 20; मन्त्र » 10
भाषार्थ -
(श्रेयः केत:) श्रेय को जाननेवाला, (वसुजित्) धन विजयी, ( सहीयान्) सहनशील या पराभवकारी, (संग्रामजित्) संग्रामविजयी, ( ब्रह्मणा ) वेदोक्तविधि द्वारा [हे दुन्दुभिः] (संशितः असि) तू तेज किया गया है [ऊँची ध्वनि से युक्त किया गया है]। (अधिषवणे) पीसकर सोमरस निकालनेवाली शिला पर, (अशून् इव) जैसे सोमांशुओं को (अद्रिः) विदीर्ण करनेवाला (ग्रावा) वट्टा-पत्थर [नाचता है] वैसे (गव्यन्) शत्रु की पृथिवी को चाहता हुआ [दुन्दुभे ] हे दुन्दुभि ! (वेदः) शत्रु के धन को प्राप्त कर, (नृत्य) [प्रसन्नता से] नाच ।
टिप्पणी -
[विजय-प्राप्ति पर ढोलची विजय-नाच करता है, उसके साथ ही, उसके विजयनाच में ढोल अर्थात दुन्दुभि नाच कर रहा होता है। केतः प्रज्ञा नाम (निघं० ३।९)। ब्रह्मणा=अथवा ब्रह्मा द्वारा, वेद द्वारा अथवा ब्रह्मवेद द्वारा अथर्ववेद द्वारा।]