अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 23/ मन्त्र 3
यो अ॒क्ष्यौ॑ परि॒सर्प॑ति॒ यो नासे॑ परि॒सर्प॑ति। द॒तां यो मद्यं॒ गच्छ॑ति॒ तं क्रिमिं॑ जम्भयामसि ॥
स्वर सहित पद पाठय: । अ॒क्ष्यौ᳡ । प॒रि॒ऽसर्प॑ति । य: । नासे॒ इति॑ । प॒रि॒ऽसर्प॑ति । द॒ताम् । य: । मध्य॑म् । गच्छ॑ति । तम् । क्रिमि॑म् । ज॒म्भ॒या॒म॒सि॒ ॥२३.३॥
स्वर रहित मन्त्र
यो अक्ष्यौ परिसर्पति यो नासे परिसर्पति। दतां यो मद्यं गच्छति तं क्रिमिं जम्भयामसि ॥
स्वर रहित पद पाठय: । अक्ष्यौ । परिऽसर्पति । य: । नासे इति । परिऽसर्पति । दताम् । य: । मध्यम् । गच्छति । तम् । क्रिमिम् । जम्भयामसि ॥२३.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 23; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(य:) जो (अक्ष्यौ) आँखों में (परिसर्पति) परिसर्पण करता है, (यः) जो (नासे) नथनों में (परिसर्पति) परिसर्पण करता है, (यः) जो (दताम, मध्यम्) दाँतों के बीच (गच्छति) गमन करता है, (तम्, क्रिमिम्) उस क्रिमि को (जम्भयामसि) हम नष्ट करते हैं।
टिप्पणी -
[आँखों में लालिमा, सूजन, पीड़ा होना-यह क्रिमि अर्थात् germ [रोग-जीव-कीटाणु] द्वारा होता है। नथनों में बार-बार जुकाम होना भी अन्य प्रकार के रोग जीव-कीटाणु द्वारा होता है। दाँतों की जड़ का खोखला और काला पड़ जाना और उसमें पीड़ा होना अन्य जीव-कीटाणु द्वारा होता है। ये त्रिविध क्रिमि हैं जीव-कीटाणु, जोकि आँखों द्वारा दृष्टिगोचर नहीं होते, अति सूक्ष्म होते हैं।]