अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 23/ मन्त्र 10
अ॑त्रि॒वद्वः॑ क्रिमयो हन्मि कण्व॒वज्ज॑मदग्नि॒वत्। अ॒गस्त्य॑स्य॒ ब्रह्म॑णा॒ सं पि॑नष्म्य॒हं क्रिमी॑न् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒त्त्रि॒ऽवत् । व॒: । क्रि॒म॒य॒: । ह॒न्मि॒ । क॒ण्व॒ऽवत् । ज॒म॒द॒ग्नि॒ऽवत् । अ॒गस्त्य॑स्य । ब्रह्म॑णा । सम् । पि॒न॒ष्मि॒ । अ॒हम् । क्रिमी॑न् ॥२३.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
अत्रिवद्वः क्रिमयो हन्मि कण्ववज्जमदग्निवत्। अगस्त्यस्य ब्रह्मणा सं पिनष्म्यहं क्रिमीन् ॥
स्वर रहित पद पाठअत्त्रिऽवत् । व: । क्रिमय: । हन्मि । कण्वऽवत् । जमदग्निऽवत् । अगस्त्यस्य । ब्रह्मणा । सम् । पिनष्मि । अहम् । क्रिमीन् ॥२३.१०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 23; मन्त्र » 10
भाषार्थ -
(क्रिमयः) हे क्रिमियो! (वः) तुम्हें (अत्रिवत्) अत्रि के सदृश, (कण्ववत्) कण्व के सदृश, (जमदग्निवत्) जमदग्नि के सदृश (हन्मि) मैं मारता हूँ। (अगस्त्यस्य ब्रह्मणा) अगस्त्य के महान् अस्त्र या शस्त्र द्वारा (अहम्) मैं (क्रिमीन्) क्रिमियों को (सं पिनष्मि) सम्यक् रूप में पीसता हूँ।
टिप्पणी -
[अत्रि है भक्षणकर्ता परमेश्वर, जोकि प्रलयकाल में सबका अदन करता है, भक्षण करता है। इसलिए इसे अत्ता और अन्नाद भी कहते हैं। प्रलयकाल१ में जगत् इसके लिए अन्नरूप हो जाता है, जिससे परमेश्वर अन्नाद कहलाता है। ब्राह्मण-क्षत्रिय आदि प्राणी भी इसके लिए ओदनरूप हो जाते हैं। इस अत्रि ने (दिवम्) द्युलोक को या द्युतिमान् सूर्य को (उन्निनाय) ऊर्ध्वदिशा में स्थापित किया है (अथर्व० १३.२.४) । मानुषशक्ति ऊर्ध्वदिशा में द्युलोक या सूर्य को स्थापित नहीं कर सकती। अत्रि, तक्मा आदि रोगों तथा तदुत्पादक क्रिमियों को भी पीस डालता है, निवारित करता है। इसलिए वह 'भेषज' भी है (यजु:० ३.५९)। वैदिक वैद्य कहता है कि अत्रिवत् मैं भी क्रिमियों को पीसता हूँ। कण्व=कण्व है मेधावी (निघं० ३.१५) । कण्वः= कण+वः, कणवत् सूक्ष्म कीटाणुओं और जीवाणुओं का मेधावी अर्थात् विज्ञ। यह भी तक्मा आदि रोगों तथा तदुत्पादक क्रिमियों को पीस देता है, तद्वत् वैदिक वैद्य भी पीसता है। जमदग्नि=सदा प्रज्वलित यज्ञाग्निवाला, यज्ञकर्ता। यह यज्ञियाग्नि द्वारा तक्मा आदि रोगों तथा तदुत्पादक क्रिमियों को पीसता है, तद्वत् वैदिक वैद्य भी इन्हें पीसता है। अगस्त्यस्य ब्रह्मणा= अगस्त्य है अग+स्त्य सूर्य। अग=वृक्ष (उणादि ४.१८१, दयानन्द तथा वृक्षश्च, दशपाद्युणादिवृत्तिः ९.७५), स्त्य=स्त्यै शब्दसंघातयोः (भ्वादिः), वृक्षों के संघात अर्थात् संघ या समूह को वनरूप में करनेवाला सूर्य। सूर्य के ताप और प्रकाश द्वारा तथा तत्कृत वर्षा द्वारा वृक्षों में संघीभवन होता है, वनरूपता होती है। इस अगस्त्य नामक सूर्य की ब्रह्मणा अर्थात् बृहत्या१ दृषदा रश्मिसमूहरूपया "अहम् क्रिमीन् संपिनष्मि"। देखें मन्त्र ३, ७ की व्याख्या।] [१. "बृहर्नोऽच्च" (उणा० ४.१४७)। ब्रह्मणा=बृहत्या (इन्द्रस्य दृषदा; रश्मिसमूहेन) (अथर्व० २.३१.१)। ]