अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 23/ मन्त्र 1
ओते॑ मे॒ द्यावा॑पृथि॒वी ओता॑ दे॒वी सर॑स्वती। ओतौ॑ म॒ इन्द्र॑श्चा॒ग्निश्च॒ क्रिमिं॑ जम्भयता॒मिति॑ ॥
स्वर सहित पद पाठओते॒ इत्याऽउ॑ते । मे॒ ।द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । आऽउ॑ता । दे॒वी । सर॑स्वती । आऽउ॑तौ । मे॒ । इन्द्र॑: । च॒ । अ॒ग्नि: । च॒ । क्रिमि॑म् । ज॒म्भ॒य॒ता॒म् । इति॑ ॥२३.१॥
स्वर रहित मन्त्र
ओते मे द्यावापृथिवी ओता देवी सरस्वती। ओतौ म इन्द्रश्चाग्निश्च क्रिमिं जम्भयतामिति ॥
स्वर रहित पद पाठओते इत्याऽउते । मे ।द्यावापृथिवी इति । आऽउता । देवी । सरस्वती । आऽउतौ । मे । इन्द्र: । च । अग्नि: । च । क्रिमिम् । जम्भयताम् । इति ॥२३.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 23; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(मे) मेरे [कुमार के लिए, मन्त्र १] (द्यावापृथिवी) द्युलोक और पृथिवी (ओते ) परस्पर ओत-प्रोत हैं, (देवी सरस्वती) दिव्या, उदकवती मेघीय वैद्युत गर्जना (ओता) उनमें ओत-प्रोत है। (इन्द्रः च, अग्नि: च) सूर्य और पार्थिव अग्नि (मे) मेरे [ कुमार के लिए मन्त्र २] (ओतौ) उन में ओत-प्रोत हैं, (इति) इस निमित्त कि (क्रिमिम्) [कुमार वर्ग के] क्रिमिसमूह१ का वे ( जम्मयताम्) हनन करें, विनाश करें।
टिप्पणी -
[सूक्त में क्रिमीविनाश का वर्णन है। कुमारों के पेट में तथा शरीर पर, पेट-क्रिमि तथा रोग कीटाणु (germs) आक्रमण करते हैं, क्योंकि उनका खाना-पीना और रहन-सहन प्राकृतिक नियमों के अनुकूल नहीं होता। मन्त्र में प्राकृतिक तत्त्वों में 'ओत' पद द्वारा पारस्परिक अनुकूलता का कथन हुआ है। जैसेकि पट के निर्माण में तन्तुओं में पारस्परिक अनुकूलता होती है वैसी अनुकूलता संसार में प्राकृतिक तत्त्वों में दर्शायी है। कुमारवर्ग के जीवनों में भी प्राकृतिक नियमों के अनुरूप निज जीवनचर्या होनी चाहिए, प्रकृति के नियमों में उनके जीवन ओत-प्रोत होने चाहिएं, तब वे क्रिमियों के आक्रमण से बच सकेंगे, इस सिद्धान्त को प्रकट किया है। सरस्वती=सर: उदकनाम (निघं० १.१२)+ तद्वती। ओत=आङ्+वेञ् तन्तुसंताने, क्तः।] [१. क्रिमि=कृञ् हिंसायाम् (क्र्यादिः), हिंस्र कीट।]