अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 23/ मन्त्र 6
उत्पु॒रस्ता॒त्सूर्य॑ एति वि॒श्वदृ॑ष्टो अदृष्ट॒हा। दृ॒ष्टांश्च॒ घ्नन्न॒दृष्टां॑श्च॒ सर्वां॑श्च प्रमृ॒णन्क्रिमी॑न् ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । पु॒रस्ता॑त् । सूर्य॑: । ए॒ति॒ । वि॒श्वऽदृ॑ष्ट: । अ॒दृ॒ष्ट॒ऽहा । दृ॒ष्टान् । च॒ । घ्नन् । अ॒दृष्टा॑न् । च॒ । सर्वा॑न् । च॒ । प्र॒ऽमृ॒णन् । क्रिमी॑न् ॥२३.६॥
स्वर रहित मन्त्र
उत्पुरस्तात्सूर्य एति विश्वदृष्टो अदृष्टहा। दृष्टांश्च घ्नन्नदृष्टांश्च सर्वांश्च प्रमृणन्क्रिमीन् ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । पुरस्तात् । सूर्य: । एति । विश्वऽदृष्ट: । अदृष्टऽहा । दृष्टान् । च । घ्नन् । अदृष्टान् । च । सर्वान् । च । प्रऽमृणन् । क्रिमीन् ॥२३.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 23; मन्त्र » 6
भाषार्थ -
(पुरस्तात्) पूर्व की दिशा में (सूर्य: उत् एति) सूर्य उदित होता है; (विश्वदृष्टः) सब द्वारा देखा गया, (अदृष्टहा) अदृष्ट अर्थात् जो दृष्ट नहीं हैं, अतिसूक्ष्म क्रिमि हैं उनका हनन करनेवाला (दूष्टान् च घ्नन्) दृष्ट अभी तक ज्ञात सूक्ष्म-क्रिमियों का हनन करता हुआ तथा (अदृष्टान् च) जो अभी तक अज्ञात हैं (सर्वान् च) उन सब (क्रिमीन्) क्रिमियों को (प्रमृणन्) मारता हुआ।
टिप्पणी -
[मन्त्र में दृष्ट और अदृष्ट क्रिमियों के हनन का कथन 'उदीयमान' सूर्य द्वारा हुआ है। सूर्य के उदित होते स्थूल अर्थात् नेत्रों द्वारा दृष्ट, सर्पवृश्चिक आदि हिंस्र क्रिमियों का विनाश दृष्टिगोचर नहीं है, अत: मन्त्र में दृष्ट अर्थात् ज्ञात तथा अदृष्ट अर्थात् अज्ञात हिंस्र क्रिमियों का वर्णन ही प्रतीत होता है जिनका कि हनन उदीयमान सूर्य की रश्मियों द्वारा होना सम्भव है। यथा "उद्यन्नादित्यः क्रिमीन् हन्तु निम्रोचन् हन्तु रश्मिभिः" (अथर्व० २.३२.१), अर्थात् उदित होता हुआ सूर्य क्रिमियों का हनन करे तथा अस्त होता हुआ रश्मियों द्वारा हनन करे यहाँ रश्मियों द्वारा क्रिमियों का हनन कहा है, वह भी उदीयमान तथा अस्तगम्यमान सूर्य की ही रश्मियों द्वारा, न कि मध्यन्दिनगत सूर्य की रश्मियों द्वारा। इन दोनों कालों में सूर्य रश्मियाँ लाल होती हैं, ये क्रिमि-हनन में अत्युपयोगी हैं। इन रक्त रश्मियों द्वारा कीटाणुओं अर्थात् जीव-कीटाणुओं का तो विनाश सम्भव है, सर्प-वृश्चिक आदि का और कीड़ों मकोड़ों आदि का नहीं तथा देखिए (अथर्व० २.३१.१५; तथा २.३२.१-६) ।]