अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 23/ मन्त्र 8
ह॒तो येवा॑षः॒ क्रिमी॑णां ह॒तो न॑दनि॒मोत। सर्वा॒न्नि म॑ष्म॒षाक॑रं दृ॒षदा॒ खल्वाँ॑ इव ॥
स्वर सहित पद पाठह॒त: । येवा॑ष: । क्रिमी॑णाम् । ह॒त: । न॒द॒नि॒मा । उ॒त । सर्वा॑न् । नि । म॒ष्म॒षा । अ॒क॒र॒म् । दृ॒षदा॑ । खल्वा॑न्ऽइव ॥२३.८॥
स्वर रहित मन्त्र
हतो येवाषः क्रिमीणां हतो नदनिमोत। सर्वान्नि मष्मषाकरं दृषदा खल्वाँ इव ॥
स्वर रहित पद पाठहत: । येवाष: । क्रिमीणाम् । हत: । नदनिमा । उत । सर्वान् । नि । मष्मषा । अकरम् । दृषदा । खल्वान्ऽइव ॥२३.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 23; मन्त्र » 8
भाषार्थ -
(क्रिमीणाम्) क्रिमियों में (येवाष:) सुप्तावस्था का जुगुप्सित क्रिमि (हतः) मार दिया है, (उत) तथा (नदनिमा) नाद करनेवाला अर्थात् जाग्रदवस्था का क्रिमि (हतः) मार दिया है। (सर्वान्) इस प्रकार सब क्रिमियों को (मष्मषा, नि+अकरम्) मैंने नितरां हिंसित कर दिया है, (इव) जैसेकि (दृषदा) पत्थर द्वारा (खल्वान्) चनों को पीस दिया जाता है। [हिंसित किया जाता है।]
टिप्पणी -
[येवाष:= येवाषासः (मन्त्र ७)। मष्मषा=मष हिंसार्थः (भ्वादिः)। मष्मषा=मष का द्विर्वचनः मष+ अच्+टाप्। दृषदा=पत्थर द्वारा तथा सूर्य की रश्मियों द्वारा। यथा "इन्द्रस्य या मही दृषत् क्रिमेर्विश्वस्य तर्हणी। तथा पिनष्मि सं क्रिमीन्१ दृषदा खल्वाँ२ इव" (अथर्व० २.३१.१); इन्द्र अर्थात् सूर्य की 'मही दृषत्' है, रश्मिसमूह। अकरम्= "मैंने हिंसित कर दिया है" यह कथन किसी मनुष्य द्वारा हुआ है, वह सूर्य की रश्मिसमूह को 'कंस या मणि' द्वारा केन्द्रित कर क्रिमियों की हिंसा करता है। 'कंस या मणि' (निरुक्त ७.६.२३), वैश्वानर प्रकरण। मप्मषा=अथवा 'मप्मष्+ तृतीयैकवचन', हिंसित करनेवाले रश्मिसमूह रूपी 'दृषदा'। नदनिमा= कानों में नाद अर्थात् गूँज पैदा कर देनेवाला क्रिमी। यह स्वानुभूत है।] [१. क्रिमीन्=शरीरान्तर्गतान् सर्वान् क्षुद्रजन्तून (सायण)। २. खल्वान्=चणकान् (सायण)।]