अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 23/ मन्त्र 9
त्रि॑शी॒र्षाणं॑ त्रिक॒कुदं॒ क्रिमिं॑ सा॒रङ्ग॒मर्जु॑नम्। शृ॒णाम्य॑स्य पृ॒ष्टीरपि॑ वृश्चामि॒ यच्छिरः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठत्रि॒ऽशी॒र्षाण॑म् । त्रि॒ऽक॒कुद॑म् । क्रिमि॑म् । सा॒रङ्ग॑म् । अर्जु॑नम् । शृ॒णामि॑ । अ॒स्य॒ । पृ॒ष्टी: । अपि॑ । वृ॒श्चा॒मि॒ । यत् । शिर॑: ॥२३.९॥
स्वर रहित मन्त्र
त्रिशीर्षाणं त्रिककुदं क्रिमिं सारङ्गमर्जुनम्। शृणाम्यस्य पृष्टीरपि वृश्चामि यच्छिरः ॥
स्वर रहित पद पाठत्रिऽशीर्षाणम् । त्रिऽककुदम् । क्रिमिम् । सारङ्गम् । अर्जुनम् । शृणामि । अस्य । पृष्टी: । अपि । वृश्चामि । यत् । शिर: ॥२३.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 23; मन्त्र » 9
भाषार्थ -
(त्रिशीर्षाणम्) तीन सिरोंवाले, (त्रिककुदम्) तीन काकुदोंवाले, (सारङ्गम्) नानावर्णी तथा (अर्जुनम्) श्वेत (क्रिमिम्) क्रिमि की ( शृणामि ) में हिंसा करता हूँ, (अस्य) इसकी (पृष्टी: अपि) पसलियों को भी, (यत् शिरः) और जो सिर है उसे भी (वृश्चामि) मैं काटता हूँ।
टिप्पणी -
[ज्वर-रोगोत्पादक क्रिमि का वर्णन पुरुषरूप या पशुरूप में हुआ है। ज्वर (तक्मा) है अचेतन, तो भी अचेतन का वर्णन चेतनवत्, वेदों में प्रायः, कविता शैली में, होता है (देखें निरुक्त अ० ७.२ पा० । खण्ड ६,७)। इस दृष्टि से तक्मा के तीन सिर, तीन ककुद्, वर्ण, पुष्टीः, शिरः आदि का वर्णन हुआ है। 'त्रिशीर्षाणम्' द्वारा मस्तिष्क के तीन अवयव अभिप्रेत हैं, मस्तिष्क का दायाँ गोलार्ध और बायाँ गोलार्थ तथा इनके पिछली ओर लगा छोटा सिर। इन तीनों को "Two Hemisphere तथा Cerebellum" कहते हैं। त्रिशीर्षाणम् है शिरोरोग और त्रिककुदम् है जिह्वा रोग तथा तालु रोग यथा 'काकुदं ताल्वित्याचक्षते, जिह्वा कोकुवा सास्मिन् धीयते' (निरुक्त ५.४.२७; पदसंख्या ७६)। अर्थात् काकुद है तालु और जिहा है कोकुवा, यह इस तालु में धारित होती है। ककुदम् है काकुदम्। ककुदम् ह्रस्व अकार छान्दस है। जिहा मूल तथा ओष्ठों के मध्यवर्ती प्रदेश को तालु कहते हैं। इसे तीन विभागों में विभक्त माना है। अत: यह 'त्रिककुद्' है, त्रिविभक्त१ तालु। काकुद के सम्बन्ध में मन्त्र, यथा-"सुदेवो असि वरुण यस्य ते सप्त सिन्धवः। अनुक्षरन्ति काकुदं सूर्य सुषिरामिव।" (अथर्व० २०.९२.९) । अर्थात् 'हे वरुण! तू उत्तम देव है, जिसके कि सात सिन्धु काकुद अर्थात् तालू में क्षरित हो रहे हैं, जैसे उत्तम ऊर्मियोंवाला स्रोत सच्छिद्रा भूमि में क्षरित होता है।२ सप्तसिन्धु हैं सप्तविभक्तियों से सम्पन्न वैदिक शब्द या मन्त्र। त्रिककुदम् रोग जिह्वारोग है। क्रिमि अर्थात् रोगकीटाणु [germs] जब जिह्वा पर आक्रमण करते हैं तब आस्यगत या जिह्वागत सुषुम्ना की सूक्ष्म नाड़ी का अर्घाङ्ग हो जाता है और जिह्वा शब्दोच्चारण में विकृत या असमर्थ हो जाती है। मन्त्र पठित त्रिककुदम् पद त्रिककुद +अम् भी सम्भव है। यद्यपि व्याख्याकार इसे त्रिककुद्+अम् में मानते हैं।] [१. वर्णों के पाँच वर्ग हैं-कवर्ग, चवर्ग, टवर्ग, तवर्ग, पवर्ग। कवर्ग का उच्चारण होता है कण्ठ से और पवर्ग का उच्चारण होता है दो-ओष्ठों से। चवर्ग, टवर्ग और तवर्ग के वर्णों का उच्चारण होता है तालु प्रदेश से, अत: इन तीन वर्गों के वर्णों के उच्चारण की दृष्टि से तालु (काकुद्) को त्रिधा विभक्त कहा है (त्रिककुदम्)। २. सृष्टि काल में परमेश्वर आदित्य के सर्जन द्वारा क्रिमियों का नाश करता है, अत: परमेश्वर क्रिमियों का महानाशक है (मन्त्र८)।]