अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 29/ मन्त्र 4
अ॒क्ष्यौ॒ नि वि॑ध्य॒ हृद॑यं॒ नि वि॑ध्य जि॒ह्वां नि तृ॑न्द्धि॒ प्र द॒तो मृ॑णीहि। पि॑शा॒चो अ॒स्य य॑त॒मो ज॒घासाग्ने॑ यविष्ठ॒ प्रति॑ तं शृणीहि ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒क्ष्यौ᳡ । नि । वि॒ध्य॒। हृद॑यम् । नि । वि॒ध्य॒ । जि॒ह्वाम् । नि । तृ॒न्ध्दि॒ । प्र । द॒त्त: । मृ॒णी॒हि॒। पि॒शा॒च: । अ॒स्य । य॒त॒म: । ज॒घास॑ । अग्ने॑ । य॒वि॒ष्ठ॒ । प्रति॑ । तम् । शृ॒णी॒हि॒ ॥२९.४॥
स्वर रहित मन्त्र
अक्ष्यौ नि विध्य हृदयं नि विध्य जिह्वां नि तृन्द्धि प्र दतो मृणीहि। पिशाचो अस्य यतमो जघासाग्ने यविष्ठ प्रति तं शृणीहि ॥
स्वर रहित पद पाठअक्ष्यौ । नि । विध्य। हृदयम् । नि । विध्य । जिह्वाम् । नि । तृन्ध्दि । प्र । दत्त: । मृणीहि। पिशाच: । अस्य । यतम: । जघास । अग्ने । यविष्ठ । प्रति । तम् । शृणीहि ॥२९.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 29; मन्त्र » 4
भाषार्थ -
(यतमः) जिस (पिशाच:) पिशाच ने (अस्य ) इस [रुग्ण ] के [मांस को ] (जघास) खाया है, (यविष्ठ अग्ने) हे युवतम अग्नि! उसकी (अध्यौ) दोनों आँखों को (नि विध्य) नितरां वीध, (हृदयं नि विध्य) हृदय को नितरां वींध, (जिह्वाम्) जिह्वा को (नि तृन्द्धि) नितरां काट डाल, (दतः) दाँतों को (प्र मृणोहि) पूर्णतया तोड़ डाल, ( तम् ) उसे (प्रति शृणीहि) प्रत्येक अंग में काट डाल ।
टिप्पणी -
[प्रकरण की दृष्टि से पिशाच है मनुष्य को रुग्ण करनेवाला रोग-जीवाणु, अर्थात् जर्म (germ), परन्तु उसे पुरुषविध-कल्पित कर उसके कल्पित-पुरुषाङ्गों के विनाश का वर्णन मन्त्र में हुआ है। यह शैली निरुक्त में भी स्वीकृत की गई है (७।२।६, ७ )। मन्त्र में "जातवेदा: अग्निः" का वर्णन नहीं, अपितु "यविष्ठ अग्नि" का वर्णन है, अर्थात् प्रचण्ड यज्ञियाग्नि का। इसके सम्बन्ध में ही "समिधः" का भी कथन हुआ है (मन्त्र १४, १५)। यज्ञियाग्नि से उत्थित धूम१ रोग-जीवाणुओं का विनाश करता है।] [१. यजियाग्नि से उस्थित धूम में सूक्ष्मरूप में ओषधियाँ होती हैं। नासिका द्वारा इसके पान करने से सूक्ष्म औषध साक्षात् रक्त में मिलकर रोगोपचार करती है।]