अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 29/ मन्त्र 6
आ॒मे सुप॑क्वे श॒बले॒ विप॑क्वे॒ यो मा॑ पिशा॒चो अश॑ने द॒दम्भ॑। तदा॒त्मना॑ प्र॒जया॑ पिशा॒चा वि या॑तयन्तामग॒दोयम॑स्तु ॥
स्वर सहित पद पाठआ॒मे । सुऽप॑क्वे । श॒बले॑ । विऽप॑क्वे । य: । मा॒ । पि॒शा॒च: । अश॑ने । द॒दम्भ॑ । तत् । आ॒त्मना॑ । प्र॒ऽजया॑ । पि॒शा॒चा: । वि । या॒त॒य॒न्ता॒म् । अ॒ग॒द: । अ॒यम् ।अ॒स्तु॒ ॥२९.६॥
स्वर रहित मन्त्र
आमे सुपक्वे शबले विपक्वे यो मा पिशाचो अशने ददम्भ। तदात्मना प्रजया पिशाचा वि यातयन्तामगदोयमस्तु ॥
स्वर रहित पद पाठआमे । सुऽपक्वे । शबले । विऽपक्वे । य: । मा । पिशाच: । अशने । ददम्भ । तत् । आत्मना । प्रऽजया । पिशाचा: । वि । यातयन्ताम् । अगद: । अयम् ।अस्तु ॥२९.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 29; मन्त्र » 6
भाषार्थ -
(आमे) कच्चे, (सुपक्वे) उत्तमपके, (शबले) अधपके, (विपक्वे) विशेषतया पके अर्थात् अधिक पके (अशने) भोजन में (य: पिशाच: ) जिस पिशाच ने (मा१ ददम्भ) मुझे हिंसित किया है, रुग्ण किया है, ( तत्) तो बह पिशाच अर्थात् रोग-जीवाणु (आत्मना ), निज स्वरूप से, (प्रजया ) निज सन्तानों से; [वियुक्त कर दिया जाए] (पिशाचाः) और वे सब इसके मांसभक्षक रोग-जीवाणु भी (वियातयन्ताम् ) वियुक्त कर दिये जाएँ, ताकि (अयम् ) यह रुग्ण भी (अगदः) रोगरहित (अस्तु) हो जाए [पुनः रुग्ण न हो सके।]
टिप्पणी -
[ददम्भ= दभ्नोति वधकर्मा । (निघं० २।१९)। पिशाच:= पिशित अर्थात् मांस का भक्षक, रोग-जीवाणु। अभिप्राय यह कि ऋतु के अनुसार जो रोग-जीवाणु उत्पन्न होकर रोग का प्रसार करते हैं उनका बीजनाश कर देना चाहिए, ताकि वे पुनः उस रोग का प्रसार न कर सकें।] [१. 'मा' द्वारा रोगी का पिता या आचार्य प्रतीत होता है और 'अयम् द्वारा पुत्र या शिष्य-ब्रह्मचारी!]