अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 31/ मन्त्र 11
सूक्त - शुक्रः
देवता - कृत्याप्रतिहरणम्
छन्दः - बृहतीगर्भानुष्टुप्
सूक्तम् - कृत्यापरिहरण सूक्त
यश्च॒कार॒ न श॒शाक॒ कर्तुं॑ श॒श्रे पाद॑म॒ङ्गुरि॑म्। च॒कार॑ भ॒द्रम॒स्मभ्य॑मभ॒गो भग॑वद्भ्यः ॥
स्वर सहित पद पाठय: । च॒कार॑ । न । श॒शाक॑ । कर्तु॑म् । श॒श्रे । पाद॑म् । अ॒ङ्गुरि॑न् । च॒कार॑ । भ॒द्रम् । अ॒स्मभ्य॑म् । अ॒भ॒ग: । भग॑वत्ऽभ्य: ॥३१.११॥
स्वर रहित मन्त्र
यश्चकार न शशाक कर्तुं शश्रे पादमङ्गुरिम्। चकार भद्रमस्मभ्यमभगो भगवद्भ्यः ॥
स्वर रहित पद पाठय: । चकार । न । शशाक । कर्तुम् । शश्रे । पादम् । अङ्गुरिन् । चकार । भद्रम् । अस्मभ्यम् । अभग: । भगवत्ऽभ्य: ॥३१.११॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 31; मन्त्र » 11
भाषार्थ -
[हे राष्ट्रपति !] (यः) जिस [शत्रु राजा ] ने (चकार) हिंस्रक्रिया की है, परन्तु (कर्तुम्) हिंस्रक्रिया को वस्तुत: करने में ( न शशाक) जो सशक्त नहीं हुआ, और जिसने [युद्ध में] (पादम् अंगुरिम्) निज पैरों और अङ्गुलियों आदि अवयवों को (शश्रे) हिंसित कर लिया है, वह ( अभगः) निज ऐश्वयों से रहित हो गया है, (अस्मभ्यम्) और हम ( भगवद्भ्यः) भगवाले विजेताओं के लिए (भद्रम् चकार) उसने भद्रकार्य किया है।
टिप्पणी -
[युद्ध तो हुआ है जिसमें युद्ध प्रारम्भ करनेवाले शत्रु राजा के शरीरावयवों को क्षति पहुँची है, परन्तु उसे मारा नहीं गया। हार जाने पर वह निजराज्य और राज्य सम्पत्ति से रहित हो गया है, और उसका राज्य तथा राज्य सम्पत्ति विजेता के अधीन हो गई है, और विजेता भगवाला हो गया है। मानो कि 'अभग' राजा ने भगवालों के लिए भद्रकार्य किया है। भग=ऐश्वर्य, श्री, यश।]