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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 31

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 31/ मन्त्र 8
    सूक्त - शुक्रः देवता - कृत्याप्रतिहरणम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - कृत्यापरिहरण सूक्त

    यां ते॑ कृ॒त्यां कूपे॑ऽवद॒धुः श्म॑शा॒ने वा॑ निच॒ख्नुः। सद्म॑नि कृ॒त्यां यां च॒क्रुः पुनः॒ प्रति॑ हरामि॒ ताम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    याम् । ते॒ । कृ॒त्याम् । कूपे॑ । अ॒व॒ऽद॒धु: । श्म॒शा॒ने । वा॒ । नि॒ऽच॒ख्नु: । सद्म॑नि । कृ॒त्याम् । याम् । च॒क्रु: । पुन॑: । प्रति॑ । ह॒रा॒मि॒ । ताम् ॥३१.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यां ते कृत्यां कूपेऽवदधुः श्मशाने वा निचख्नुः। सद्मनि कृत्यां यां चक्रुः पुनः प्रति हरामि ताम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    याम् । ते । कृत्याम् । कूपे । अवऽदधु: । श्मशाने । वा । निऽचख्नु: । सद्मनि । कृत्याम् । याम् । चक्रु: । पुन: । प्रति । हरामि । ताम् ॥३१.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 31; मन्त्र » 8

    भाषार्थ -
    [हे राष्ट्रपति !] (ते) तेरे ( कूपे) [ निजके या राष्ट्र के कूप में (याम्, कृत्याम् ) जिस हिंस्रक्रिया को ( अवदधुः) शत्रुओं ने नीचे स्थापित किया है, (वा) अथवा (श्मशाने) श्मशान में ( निचख्नु:) भूमि खोदकर विस्फोटक गाड़ा है, (सद्मनि) तेरे बैठने के स्थान में या निवासगृह में (याम् कृत्याम्) जिस हिंस्रक्रिया को ( चक्रुः) किया है (ताम् ) उस प्रकार की हित्र क्रिया को (पुनः) फिर (प्रति) प्रतिक्रिया रूप में शत्रु के प्रति ( हरामि) में सम्राट् ले-जाता हूँ [पहुँचाता या वापस करता हूँ।]

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