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  • यजुर्वेद - अध्याय 28/ मन्त्र 19
    ऋषिः - अश्विनावृषी देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - कृतिः स्वरः - निषादः
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    दे॒वऽइन्द्रो॒ नरा॒शꣳस॑स्त्रिवरू॒थस्॑ित्रबन्धु॒रो दे॒वमिन्द्र॑मवर्धयत्। श॒तेन॑ शितिपृ॒ष्ठाना॒माहि॑तः स॒हस्रे॑ण॒ प्र व॑र्त्तते मि॒त्रावरु॒णेद॑स्य हो॒त्रमर्ह॑तो॒ बृह॒स्पति॑ स्तो॒त्रम॒श्विनाऽध्व॑र्यवं वसु॒वने॑ वसु॒धेय॑स्य वेतु॒ यज॑॥१९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒वः। इन्द्रः॑। नरा॒शꣳसः॑। त्रि॒व॒रू॒थ इति॑ त्रिऽवरू॒थः। त्रि॒व॒न्धु॒र इति॑ त्रिऽबन्धु॒रः। दे॒वम्। इन्द्र॑म्। अ॒व॒र्ध॒य॒त्। श॒तेन॑। शि॒ति॒पृ॒ष्ठाना॒मिति॑ शितिऽपृ॒ष्ठाना॑म्। आहि॑त॒ इत्याहि॑तः। स॒हस्रे॑ण। प्र। व॒र्त्त॒ते॒। मि॒त्रावरु॑णा। इत्। अ॒स्य॒। हो॒त्रम्। अर्ह॑तः। बृह॒स्पतिः॑। स्तो॒त्रम्। अ॒श्विना॑। अध्व॑र्यवम्। व॒सु॒वन॒ इति॑ वसु॒ऽवने॑। व॒सु॒धेय॒स्येति॑ वसु॒ऽधेय॑स्य। वे॒तु॒। यज॑ ॥१९ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवऽइन्द्रो नराशँसस्त्रिवरूथस्त्रिबन्धुरो देवमिन्द्रमवर्धयत् । शतेन शितिपृष्ठानामाहितः सहस्रेण प्र वर्तते मित्रावरुणेदस्य होत्रमर्हतो बृहस्पति स्तोत्रमश्विनाध्वर्यवँवसुवने वसुधेयस्य वेतु यज ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    देवः। इन्द्रः। नराशꣳसः। त्रिवरूथ इति त्रिऽवरूथः। त्रिवन्धुर इति त्रिऽबन्धुरः। देवम्। इन्द्रम्। अवर्धयत्। शतेन। शितिपृष्ठानामिति शितिऽपृष्ठानाम्। आहित इत्याहितः। सहस्रेण। प्र। वर्त्तते। मित्रावरुणा। इत्। अस्य। होत्रम्। अर्हतः। बृहस्पतिः। स्तोत्रम्। अश्विना। अध्वर्यवम्। वसुवन इति वसुऽवने। वसुधेयस्येति वसुऽधेयस्य। वेतु। यज॥१९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 28; मन्त्र » 19
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    पदार्थ -
    हे विद्वन्! जैसे (त्रिबन्धुरः) ऋषि आदि रूप तीन बन्धनों वाला (त्रिवरूथः) तीन सुखदायक घरों का स्वामी (नराशंसः) मनुष्यों की स्तुति करने और (इन्द्रः) ऐश्वर्य को चाहने वाला (देवः) जीव (शतेन) सैकड़ों प्रकार के कर्म से (देवम्) प्रकाशमान (इन्द्रम्) विद्युद् रूप अग्नि को (अवर्धयत्) बढ़ावे। जो (शितिपृष्ठानाम्) जिन की पीठ पर बैठने से शीघ्र गमन होते हैं, उन पशुओं के बीच (आहितः) अच्छे प्रकार स्थिर हुआ (सहस्रेण) असङ्ख्य प्रकार के पुरुषार्थ से (प्र, वर्त्तते) प्रवृत्त होता है। (मित्रावरुणा) प्राण और उदान (अस्य) (इत्) ही (होत्रम्) भोजन की (अर्हतः) योग्यता रखने वाले जीव के सम्बन्धी (वसुधेयस्य) संसार के (बृहस्पतिः) बड़े-बड़े पदार्थों का रक्षक बिजुली रूप अग्नि (स्तोत्रम्) स्तुति के साधन (अश्विना) सूर्य-चन्द्रमा और (अध्वर्यवम्) अपने को यज्ञ की इच्छा करने वाले जन को (वसुवने) धन मांगने वाले के लिए (वेतु) कमनीय करे, वैसे (यज) सङ्ग कीजिए॥१९॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य विविध प्रकार के सुख करने वाले तीनों अर्थात् भूत, भविष्यत्, वर्त्तमान काल का प्रबन्ध जिन में हो सके, ऐसे घरों को बना, उन में असंख्य सुख पा और पथ्य भोजन करके मांगने वाले के लिए यथायोग्य पदार्थ देते हैं, वे कीर्त्ति को प्राप्त होते हैं॥१९॥

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