यजुर्वेद - अध्याय 28/ मन्त्र 36
ऋषिः - सरस्वत्यृषिः
देवता - इन्द्रो देवता
छन्दः - भुरिक् त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
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दे॒वीर्द्वारो॑ वयो॒धस॒ꣳ शुचि॒मिन्द्र॑मवर्धयन्।उ॒ष्णिहा॒ छन्द॑सेन्द्रि॒यं प्रा॒णमिन्द्रे॒ वयो॒ दध॑द् वसु॒वने॑ वसु॒धेय॑स्य व्यन्तु॒ यज॑॥३६॥
स्वर सहित पद पाठदे॒वीः। द्वारः॑। व॒यो॒धस॒मिति॑ वयः॒ऽधस॑म्। शुचि॑म्। इन्द्र॑म्। अ॒व॒र्ध॒य॒न्। उ॒ष्णिहा॑। छन्द॑सा। इ॒न्द्रि॒यम्। प्रा॒णम्। इन्द्रे॑। वयः॑। दध॑त्। व॒सु॒वन॒ इति॑ वसु॒ऽवने॑। व॒सु॒धेय॒स्येति॑ वसु॒ऽधेय॑स्य। व्य॒न्तु॒। यज॑ ॥३६ ॥
स्वर रहित मन्त्र
देवीर्द्वारो वयोधसँ शुचिमिन्द्रमवर्धयन् । उष्णिहा च्छन्दसेन्द्रियम्प्राणमिन्द्रे वयो दधद्वसुवने वसुधेयस्य व्यन्तु यज ॥
स्वर रहित पद पाठ
देवीः। द्वारः। वयोधसमिति वयःऽधसम्। शुचिम्। इन्द्रम्। अवर्धयन्। उष्णिहा। छन्दसा। इन्द्रियम्। प्राणम्। इन्द्रे। वयः। दधत्। वसुवन इति वसुऽवने। वसुधेयस्येति वसुऽधेयस्य। व्यन्तु। यज॥३६॥
विषय - मनुष्यों को कैसे घर बनाने चाहिए, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे विद्वन्! जैसे (देवीः) प्रकाशमान हुए (द्वारः) जाने-आने के लिए द्वार (वयोधसम्) जीवन के आधार (शुचिम्) पवित्र (इन्द्रम्) शुद्ध वायु (इन्द्रियम्) जीव से सेवे हुए (प्राणम्) प्राण को (इन्द्रे) जीव के निमित्त (वसुधेयस्य) धन के आधार कोष के (वसुवने) धन को मांगने वाले के लिए (अवर्धयन्) बढ़ाते हैं और (व्यन्तु) शोभायमान होवें, वैसे (उष्णिहा, छन्दसा) उष्णिक् छन्द से इन पूर्वोक्त पदार्थों और (वयः) कामना के योग्य प्रिय पदार्थों को (दधत्) धारण करते हुए (यज) हवन कीजिए॥३६॥
भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो घर सन्मुख द्वार वाले जिन में सब ओर से वायु आवे ऐसे हैं, उनमें निवास करने से अवस्था, पवित्रता, बल और नीरोगता बढ़ती है। इसलिए बहुत द्वारों वाले बड़े-बड़े घर बनाने चाहियें॥३६॥
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