यजुर्वेद - अध्याय 28/ मन्त्र 44
ऋषिः - सरस्वत्यृषिः
देवता - इन्द्रो देवता
छन्दः - भुरिगतिजगती
स्वरः - निषादः
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दे॒वं ब॒र्हिर्वारि॑तीनां दे॒वमिन्द्रं॑ वयो॒धसं॑ दे॒वं दे॒वम॑वर्धयत्।क॒कुभा॒ छन्द॑सेन्द्रि॒यं यश॒ऽइन्द्रे॒ वयो॒ दध॑द् वसु॒वने॑ वसु॒धेय॑स्य वेतु॒ यज॑॥४४॥
स्वर सहित पद पाठदे॒वम्। ब॒र्हिः। वारि॑तीनाम्। दे॒वम्। इन्द्र॑म्। व॒यो॒धस॒मिति॑ वयः॒ऽधस॑म्। दे॒वम्। दे॒वम्। अ॒व॒र्ध॒य॒त्। क॒कुभा॑। छन्द॑सा। इ॒न्द्रि॒यम्। यशः॑। इन्द्रे॑। वयः॑। दध॑त्। व॒सु॒वन॒ इति॑ वसु॒ऽवने॑। व॒सु॒धेय॒स्येति॑ वसु॒ऽधेय॑स्य। वे॒तु॒। यज॑ ॥४४ ॥
स्वर रहित मन्त्र
देवम्बर्हिर्वारितीनान्देवमिन्द्रँवयोधसन्देवँदेवमवर्धयत् । ककुभा च्छन्दसेन्द्रियँयशऽइन्द्रे वयो दधद्वसुवने वसुधेयस्य वेतु यज ॥
स्वर रहित पद पाठ
देवम्। बर्हिः। वारितीनाम्। देवम्। इन्द्रम्। वयोधसमिति वयःऽधसम्। देवम्। देवम्। अवर्धयत्। ककुभा। छन्दसा। इन्द्रियम्। यशः। इन्द्रे। वयः। दधत्। वसुवन इति वसुऽवने। वसुधेयस्येति वसुऽधेयस्य। वेतु। यज॥४४॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे विद्वन् जन! जैसे (वारितीनाम्) अन्तरिक्ष के समुद्र का (देवम्) उत्तम (बर्हिः) जल (वयोधसम्) बहुत अवस्था वाले (देवम्) उत्तम (इन्द्रम्) राजा को और (देवम्) उत्तम गुणवान् (देवम्) प्रकाशमान प्रत्येक जीव को (अवर्धयत्) बढ़ाता है (ककुभा, छन्दसा) ककुप् छन्द से (इन्द्रे) उत्तम ऐश्वर्य के निमित्त (यशः) कीर्त्ति तथा (इन्द्रियम्) जीव के चिह्नरूप श्रोत्रादि इन्द्रिय को (वेतु) प्राप्त होवे, वैसे (वसुधेयस्य) धनकोष के (वसुवने) धन को सेवने हारे के लिए (वयः) अभीष्ट सुख को (दधत्) धारण करते हुए (यज) यज्ञ कीजिए॥४४॥
भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे विद्वान् मनुष्यो! जैसे जल समुद्रों को भर और जीवों की रक्षा करके मोती आदि रत्नों को उत्पन्न करता है, वैसे धर्म से धन के कोष को पूर्ण कर और अन्य दरिद्रियों की सम्यक् रक्षा करके कीर्त्ति को बढ़ाओ॥४४॥
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