यजुर्वेद - अध्याय 28/ मन्त्र 15
ऋषिः - अश्विनावृषी
देवता - इन्द्रो देवता
छन्दः - भुरिगतिजगती
स्वरः - निषादः
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दे॒वी जोष्ट्री॒ वसु॑धिती दे॒वमिन्द्र॑मवर्धताम्। अया॑व्य॒न्याघा द्वेषा॒स्यान्या व॑क्ष॒द्वसु॒ वार्या॑णि॒ यज॑मानाय शिक्षि॒ते व॑सु॒वने॑ व॑सु॒धेय॑स्य वीतां॒ यज॑॥१५॥
स्वर सहित पद पाठदे॒वी इति॑ दे॒वी। जोष्ट्री॒ इति॒ जोष्ट्री॑। वसु॑धिती॒ इति॒ वसु॑ऽधिती। दे॒वम्। इन्द्र॑म्। अ॒व॒र्ध॒ता॒म्। अया॑वि। अ॒न्या। अ॒घा। द्वेषा॑सि। आ। अ॒न्या। व॒क्ष॒त्। वसु॑। वार्या॑णि। यज॑मानाय। शि॒क्षि॒त इति॑ शिक्षि॒ते। व॒सु॒वन॒ इति॑ वसु॒ऽवने॑। व॒सु॒धेय॒स्येति॑ वसु॒ऽधेय॑स्य। वी॒ता॒म्। यज॑ ॥१५ ॥
स्वर रहित मन्त्र
देवी जोष्ट्री वसुधिती देवमिन्द्रमवर्धताम् । अयाव्यन्याघा द्वेषाँस्यान्या वक्षद्वसु वार्याणि यजमानाय शिक्षिते वसुवने वसुधेयस्य वीताँयज ॥
स्वर रहित पद पाठ
देवी इति देवी। जोष्ट्री इति जोष्ट्री। वसुधिती इति वसुऽधिती। देवम्। इन्द्रम्। अवर्धताम्। अयावि। अन्या। अघा। द्वेषासि। आ। अन्या। वक्षत्। वसु। वार्याणि। यजमानाय। शिक्षित इति शिक्षिते। वसुवन इति वसुऽवने। वसुधेयस्येति वसुऽधेयस्य। वीताम्। यज॥१५॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे विद्वन्! जैसे (वसुधिती) द्रव्य को धारण करने वाले (जोष्ट्री) सब पदार्थों को सेवन करते हुए (देवी) प्रकाशमान दिन-रात (देवम्) प्रकाशस्वरूप (इन्द्रम्) सूर्य को (अवर्द्धताम्) बढ़ाते हैं, उन दिन-रात के बीच (अन्या) एक (अघा) अन्धकाररूप रात्रि (द्वेषांसि) द्वेषयुक्त जन्तुओं को (आ, अयावि) अच्छे प्रकार पृथक् करती और (अन्या) उन दोनों में से एक प्रातःकाल उषा (वसु) धन तथा (वार्याणि) उत्तम जलों को (वक्षत्) प्राप्त करे (यजमानाय) पुरुषार्थी मनुष्य के लिए (वसुधेयस्य) आकाश के बीच (वसुवने) जिस में पृथिवी आदि का विभाग हो, ऐसे जगत् में (शिक्षिते) जिन में मनुष्यों ने शिक्षा की ऐसे हुए दिन रात (वीताम्) व्याप्त होवें (यज) यज्ञ कीजिए॥१५॥
भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो! तुम लोग जैसे रात-दिन विभाग को प्राप्त हुए मनुष्यादि प्राणियों के सब व्यवहार को बढ़ाते हैं, उन में से रात्रि प्राणियों को सुलाकर द्वेष आदि को निवृत्त करती और दिन उन द्वेषादि को प्राप्त और सब व्यवहारों को प्रकट करता है, वैसे प्रातःकाल में योगाभ्यास से रागादि दोषों को निवृत्त और शान्ति आदि गुणों को प्राप्त होकर सुखों को प्राप्त होओ॥१५॥
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