यजुर्वेद - अध्याय 28/ मन्त्र 33
ऋषिः - सरस्वत्यृषिः
देवता - इन्द्रो देवता
छन्दः - निचृदत्यष्टिः
स्वरः - गान्धारः
7
होता॑ यक्ष॒द् वन॒स्पति॑ꣳ शमि॒तार॑ꣳ श॒तक्र॑तु॒ꣳ हिर॑ण्यपर्णमु॒क्थिन॑ꣳ रश॒नां बिभ्र॑तं व॒शिं भग॒मिन्द्रं॑ वयो॒धस॑म्। क॒कुभं॒ छन्द॑ऽइ॒हेन्द्रि॒यं व॒शां वे॒हतं॒ गां वयो॒ दध॒द् वेत्वाज्य॑स्य॒ होत॒र्यज॑॥३३॥
स्वर सहित पद पाठहोता॑। य॒क्ष॒त्। वन॒स्पति॑म्। श॒मि॒तार॑म्। श॒तक्र॑तु॒मिति॑ श॒तऽक्र॑तुम्। हिर॑ण्यपर्ण॒मिति॒ हिर॑ण्यऽपर्णम्। उ॒क्थिन॑म्। र॒श॒नाम्। बिभ्र॑तम्। व॒शिम्। भग॑म्। इन्द्र॑म्। व॒यो॒धस॒मिति॑ वयः॒ऽधस॑म्। क॒कुभ॑म्। छन्दः॑। इ॒ह। इ॒न्द्रि॒यम्। व॒शाम्। वे॒हत॑म्। गाम्। वयः॑। दध॑त्। वेतु॑। आज्य॑स्य। होतः॑। यज॑ ॥३३ ॥
स्वर रहित मन्त्र
होता यक्षद्वनस्पतिँ शमितारँ शतक्रतुँ हिरण्यपर्णमुक्थिनँ रशनाम्बिभ्रतँवशिम्भगमिन्द्रँवयोधसम् । ककुभञ्छन्दऽइहेन्द्रियँवशाँ वेहतङ्गाँवयो दधद्वेत्वाज्यस्य होतर्यज ॥
स्वर रहित पद पाठ
होता। यक्षत्। वनस्पतिम्। शमितारम्। शतक्रतुमिति शतऽक्रतुम्। हिरण्यपर्णमिति हिरण्यऽपर्णम्। उक्थिनम्। रशनाम्। बिभ्रतम्। वशिम्। भगम्। इन्द्रम्। वयोधसमिति वयःऽधसम्। ककुभम्। छन्दः। इह। इन्द्रियम्। वशाम्। वेहतम्। गाम्। वयः। दधत्। वेतु। आज्यस्य। होतः। यज॥३३॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे (होतः) दान देनेहारे जन! जैसे (इह) इस संसार में (आज्यस्य) घी आदि उत्तम पदार्थ का (होता) होम करने वाला (शमितारम्) शान्तिकारक (हिरण्यपर्णम्) तेजरूप रक्षाओं वाले (वनस्पतिम्) किरणापालक सूर्य के तुल्य (शतक्रतुम्) बहुत बुद्धि वाले (उक्थिनम्) प्रशस्त कहने योग्य वचनों से युक्त (रशनाम्) अङ्गुलि को (बिभ्रतम्) धारण करते हुए (वशिम्) वश में करने हारे (भगम्) सेवने योग्य ऐश्वर्य (वयोधसम्) अवस्था के धारक (इन्द्रम्) जीव (ककुभम्) अर्थ के निरोधक (छन्दः) प्रसन्नताकारक (इन्द्रियम्) धन (वशाम्) वन्ध्या तथा (वेहतम्) गर्भ गिराने हारी (गाम्) गौ और (वयः) अभीष्ट वस्तु को (दधत्) धारण करता हुआ (यक्षत्) यज्ञ करे तथा (वेतु) चाहना करे, वैसे (यज) यज्ञ कीजिए॥३३॥
भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य सूर्य के तुल्य विद्या, धर्म और उत्तम शिक्षा के प्रकाश करनेहारे बुद्धिमान् अपने अङ्गों को धारण करते हुए विद्या और ऐश्वर्य को प्राप्त होके औरों को देते, वे प्रशंसा पाते हैं॥३३॥
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