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  • यजुर्वेद - अध्याय 28/ मन्त्र 46
    ऋषिः - सरस्वत्यृषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - आकृतिः स्वरः - पञ्चमः
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    अ॒ग्निम॒द्य होता॑रमवृणीता॒यं यज॑मानः॒ पच॒न् पक्तीः॒ पच॑न् पुरो॒डाशं॑ ब॒ध्नन्निन्द्रा॑य वयो॒धसे॒ छाग॑म्। सू॒प॒स्थाऽअ॒द्य दे॒वो वन॒स्पति॑रभव॒दिन्द्रा॑य वयो॒धसे॒ छागे॑न। अघ॒त्तं मे॑द॒स्तः प्रति॑पच॒ताऽग्र॑भी॒दवी॑वृधत् पुरो॒डशे॑न। त्वाम॒द्यऽऋ॑षे॥४६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्निम्। अ॒द्य। होता॑रम्। अ॒वृ॒णी॒त॒। अ॒यम्। यज॑मानः। पच॑न्। पक्तीः॑। पच॑न्। पु॒रो॒डाश॑म्। ब॒ध्नन्। इन्द्रा॑य। व॒यो॒धस॒ इति॑ वयः॒ऽधसे॑। छाग॑म्। सू॒प॒स्था इति॑ सुऽउप॒स्था। अ॒द्य। दे॒वः। वन॒स्पतिः॑। अ॒भ॒व॒त्। इन्द्रा॑य। व॒यो॒धस॒ इति॑ वयः॒ऽधसे॑। छागे॑न। अ॒घ॒त्तम्। मे॒द॒स्तः। प्रति॑। प॒च॒ता। अग्र॑भीत्। अवी॑वृधत्। पु॒रो॒डाशे॑न। त्वाम्। अ॒द्य। ऋ॒षे॒ ॥४६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निमद्य होतारमवृणीतायँयजमानः पचन्पक्तीः पचन्पुरोडाशम्बध्नन्निन्द्राय वयोधसे च्छागम् । सूपस्थाऽअद्य देवो वनस्पतिरभवदिन्द्राय वयोधसे च्छागेन । अघत्तम्मेदस्तः प्रतिपचताग्रभीदवीवृधत्पुरोडाशेन । त्वामद्यऽऋषे ॥ गलित मन्त्रः त्वामद्यऽऋषऽआर्षेयऽऋषीणान्नपादवृणीतायँयजमानो बहुभ्यऽआ सङ्गतेभ्यऽएष मे देवेषु वसु वार्यायक्ष्यतऽइति ता या देवा देव दानान्यदुस्तान्यस्माऽआ च शास्स्वा च गुरस्वेषितश्च होतरसि भद्रवाच्याय प्रेषितो मानुषः सूक्तवाकाय सूक्ता ब्रूहि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निम्। अद्य। होतारम्। अवृणीत। अयम्। यजमानः। पचन्। पक्तीः। पचन्। पुरोडाशम्। बध्नन्। इन्द्राय। वयोधस इति वयःऽधसे। छागम्। सूपस्था इति सुऽउपस्था। अद्य। देवः। वनस्पतिः। अभवत्। इन्द्राय। वयोधस इति वयःऽधसे। छागेन। अघत्तम्। मेदस्तः। प्रति। पचता। अग्रभीत्। अवीवृधत्। पुरोडाशेन। त्वाम्। अद्य। ऋषे॥४६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 28; मन्त्र » 46
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    पदार्थ -
    हे (ऋषे) मन्त्रार्थ जानने वाले विद्वान् पुरुष! जैसे (अयम्) यह (यजमानः) यज्ञ करने हारा (अद्य) इस समय (पक्तीः) नाना प्रकार के पाकों को (पचन्) पकाता और (पुरोडाशम्) यज्ञ में होमने के पदार्थ को (पचन्) पकाता हुआ (अग्निम्) तेजस्वी (होतारम्) होता को (अद्य) आज (अवृणीत) स्वीकार करे, वैसे (वयोधसे) सब के जीवन को बढ़ाने हारे (इन्द्राय) उत्तम ऐश्वर्य के लिए (छागम्) छेदन करने वाले बकरी आदि पशु को (बध्नन्) बांधते हुए स्वीकार कीजिए, जैसे (अद्य) आज (वनस्पतिः) वनों का रक्षक (देवः) विद्वान् (वयोधसे) अवस्थावर्धक (इन्द्राय) शत्रुविनाशक राजा के लिए (छागेन) छेदन के साथ उद्यत (अभवत्) होवे, वैसे सब लोग (सूपस्थाः) सुन्दर प्रकार समीप रहने वाले हों, वैसे (पचता) पकाये हुए (पुरोडाशेन) यज्ञपाक से (मेदस्तः) चिकनाई से (त्वाम्) आपको (प्रति, अग्रभीत्) ग्रहण करे और (अवीवृधत्) बढ़े, वैसे हे यजमान और होता लोगो! तुम दोनों यज्ञ के शेष भाग को (अघत्तम्) खाओ॥४६॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे रसोइये लोग उत्तम अन्न व्यञ्जनों को बना के भोजन करावें, वैसे ही भोक्ता लोग उनका मान्य करें। जैसे बकरी आदि पशु घास आदि को खाके सम्यक् पचा लेते हैं, वैसे ही भोजन किए हुए अन्नादि आदि को पचाया करें॥४६॥

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