यजुर्वेद - अध्याय 28/ मन्त्र 15
ऋषिः - अश्विनावृषी
देवता - इन्द्रो देवता
छन्दः - भुरिगतिजगती
स्वरः - निषादः
55
दे॒वी जोष्ट्री॒ वसु॑धिती दे॒वमिन्द्र॑मवर्धताम्। अया॑व्य॒न्याघा द्वेषा॒स्यान्या व॑क्ष॒द्वसु॒ वार्या॑णि॒ यज॑मानाय शिक्षि॒ते व॑सु॒वने॑ व॑सु॒धेय॑स्य वीतां॒ यज॑॥१५॥
स्वर सहित पद पाठदे॒वी इति॑ दे॒वी। जोष्ट्री॒ इति॒ जोष्ट्री॑। वसु॑धिती॒ इति॒ वसु॑ऽधिती। दे॒वम्। इन्द्र॑म्। अ॒व॒र्ध॒ता॒म्। अया॑वि। अ॒न्या। अ॒घा। द्वेषा॑सि। आ। अ॒न्या। व॒क्ष॒त्। वसु॑। वार्या॑णि। यज॑मानाय। शि॒क्षि॒त इति॑ शिक्षि॒ते। व॒सु॒वन॒ इति॑ वसु॒ऽवने॑। व॒सु॒धेय॒स्येति॑ वसु॒ऽधेय॑स्य। वी॒ता॒म्। यज॑ ॥१५ ॥
स्वर रहित मन्त्र
देवी जोष्ट्री वसुधिती देवमिन्द्रमवर्धताम् । अयाव्यन्याघा द्वेषाँस्यान्या वक्षद्वसु वार्याणि यजमानाय शिक्षिते वसुवने वसुधेयस्य वीताँयज ॥
स्वर रहित पद पाठ
देवी इति देवी। जोष्ट्री इति जोष्ट्री। वसुधिती इति वसुऽधिती। देवम्। इन्द्रम्। अवर्धताम्। अयावि। अन्या। अघा। द्वेषासि। आ। अन्या। वक्षत्। वसु। वार्याणि। यजमानाय। शिक्षित इति शिक्षिते। वसुवन इति वसुऽवने। वसुधेयस्येति वसुऽधेयस्य। वीताम्। यज॥१५॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह॥
अन्वयः
हे विद्वन्! यथा वसुधिती जोष्ट्री देवी उषासानक्तेन्द्रं देवमवर्द्धतान्तयोरन्याऽघा द्वेषांस्यायाव्यन्या च वसु वार्याणि च वक्षत्। यजमानाय वसुधेयस्य वसुवने शिक्षिते वीतां तथा यज॥१५॥
पदार्थः
(देवी) देदीप्यमाने (जोष्ट्री) सेवमाने (वसुधिती) द्रव्यधारिके (देवम्) प्रकाशस्वरूपम् (इन्द्रम्) सूर्यम् (अवर्द्धताम्) वर्धयतः (अयावि) पृथक्कुरुतः (अन्या) भिन्ना (अघा) अन्धकाररूपा (द्वेषांसि) द्वेषयुक्तानि जन्तुजातानि (आ) (अन्या) भिन्ना प्रकाशरूपोषाः (वक्षत्) वहेत् (वसु) धनम् (वार्याणि) वारिषूदकेषु साधूनि (यजमानाय) पुरुषार्थिने (शिक्षिते) कृतशिक्षे सत्यौ (वसुवने) पृथिव्यादीनां संविभागे जगति (वसुधेयस्य) अन्तरिक्षस्य मध्ये (वीताम्) व्याप्नुताम् (यज) यज्ञं कुरु॥१५॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्याः! यूयं यथा रात्रिदिने विभक्ते सती मनुष्यादीनां सर्वे व्यवहारं वर्द्धयतस्तयो रात्रिः प्राणिनः स्वापयित्वा द्वेषादीन् निवर्त्तयति। अन्यद्दिनञ्च तान् द्वेषादीन् प्रापयति सर्वान् व्यवहारान् प्रद्योतयति च तथा योगाभ्यासेन रागादीन् निवार्य शान्त्यादीन् गुणान् प्राप्य सुखानि प्राप्नुत॥१५॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे विद्वन्! जैसे (वसुधिती) द्रव्य को धारण करने वाले (जोष्ट्री) सब पदार्थों को सेवन करते हुए (देवी) प्रकाशमान दिन-रात (देवम्) प्रकाशस्वरूप (इन्द्रम्) सूर्य को (अवर्द्धताम्) बढ़ाते हैं, उन दिन-रात के बीच (अन्या) एक (अघा) अन्धकाररूप रात्रि (द्वेषांसि) द्वेषयुक्त जन्तुओं को (आ, अयावि) अच्छे प्रकार पृथक् करती और (अन्या) उन दोनों में से एक प्रातःकाल उषा (वसु) धन तथा (वार्याणि) उत्तम जलों को (वक्षत्) प्राप्त करे (यजमानाय) पुरुषार्थी मनुष्य के लिए (वसुधेयस्य) आकाश के बीच (वसुवने) जिस में पृथिवी आदि का विभाग हो, ऐसे जगत् में (शिक्षिते) जिन में मनुष्यों ने शिक्षा की ऐसे हुए दिन रात (वीताम्) व्याप्त होवें (यज) यज्ञ कीजिए॥१५॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो! तुम लोग जैसे रात-दिन विभाग को प्राप्त हुए मनुष्यादि प्राणियों के सब व्यवहार को बढ़ाते हैं, उन में से रात्रि प्राणियों को सुलाकर द्वेष आदि को निवृत्त करती और दिन उन द्वेषादि को प्राप्त और सब व्यवहारों को प्रकट करता है, वैसे प्रातःकाल में योगाभ्यास से रागादि दोषों को निवृत्त और शान्ति आदि गुणों को प्राप्त होकर सुखों को प्राप्त होओ॥१५॥
विषय
होता द्वारा भिन्न-भिन्न अधिकारियों की नियुक्ति और उनके विशेष आवश्यक लक्षण, अधिकार और शक्तियों का वर्णन।
भावार्थ
(देवी) दिन और रात्रि दोनों जिस प्रकार सूर्य से प्रकाशित होते हैं उसी प्रकार राजा के प्रभाव से उत्तम गुणों को धारण करने वाले स्त्री पुरुष या दो संस्थाएं (जोष्ट्री ) राष्ट्र की यथायोग्य सेवा करने वाली, (वसुधिती ) बसने योग्य राष्ट्र और ऐश्वर्य को धारण करने वाली होकर ( इन्द्रम् ) राजा के बल ऐश्वर्य को ( अवर्धताम् ) बढ़ावे | (अन्या) दोनों में से एक (अघा) पापी, (द्वेषांसि ) प्रजा को दुःख देने वाले, शत्रुओं को (अयावि) दूर हटावे । और (अन्या) दूसरी (वार्याणि) वरण योग्य (वसु) ऐश्वर्यों को (वक्षत् ) धारण करे । और वे दोनों (शिक्षिते) सुशिक्षित (यजमानाय ) दानशील (वसुवते) ऐश्वर्य के भोक्ता राजा के (वसुधेयस्य) धन को ( वीताम् ) प्राप्त करें। (यज) उनको अधिकार दे ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भुरिगतिजगती । निषादः ॥
विषय
देवी जोष्ट्री [अहोरात्रे ]
पदार्थ
१. यहाँ 'जोष्ट्री' शब्द अहोरात्र के लिए आया है। ये अहोरात्र परस्पर एक-दूसरे का प्रीतिपूर्वक सेवन करनेवाले हैं, एक-दूसरे से सम्बद्ध हैं, दोनों के लिए 'दिन व रात' अलग-अलग शब्दों का प्रयोग भी होता है- रात्रिन्दिवं, नक्तन्दिवं, अहोरात्र' आदि शब्दों में द्वन्द्वात्मक प्रयोग तो इनका है ही। ये दोनों (देवी) = दिव्य गुणोंवाले हैं, इस दिव्यता का उल्लेख प्रस्तुत मन्त्र में ही आगे है। ये (वसुधिती) = सब निवासक तत्त्वों का धारण करनेवाले हैं। ये (देवम्) = देव वृत्तिवाले (इन्द्रम्) = जितेन्द्रिय पुरुष को (अवर्धताम्) = बढ़ाते हैं, उसकी उन्नति का कारण बनते हैं। आसुर वृत्तिवाले तो इन दिन- रोतों में भोगमय जीवन बिताते हुए अपना ह्रास कर बैठते हैं । २. इनमें से (अन्या) = एक 'रात्रि' (अघा) = पापों को व (द्वेषांसि) = द्वेषों को (अयावि) = हमसे पृथक् करती है। रात्रि में सो जाने पर पाप व द्वेष विस्मृत हो जाते हैं। महानिद्रा व मृत्यु की व्यवस्था भी इन राग-द्वेषों को भुलाने के लिए ही हुई है। हम महानिद्रा में जाकर इन द्वेषों व पापवृत्तियों को बिल्कुल भूल जाते हैं। ३. (अन्या) = दूसरा यह 'दिन' (वार्याणि वसु) = [ वसूनि ] वरणीय धनों को (यजमानाय) = यज्ञशील पुरुष के लिए, उत्तम कर्मों में लगे हुए पुरुष के लिए आवक्षत् प्राप्त कराता है। दिन में हम सुपथ से, उत्तम मार्ग से धन कमानेवाले होते हैं । ४. इस प्रकार शिक्षिते -द्वेष व पाप के अपनयन [दूर करने में] में तथा वरणीय वसुओं के प्रापण में सधे हुए [trained ] ये दिन-रात वसुवने धन के सेवन में (वसुधेयस्य) = धन के आधारभूत परमात्मा को (वीताम्) = प्रकाशित करें, आविर्भूत करें, अर्थात् हम प्रभु को भूलें नहीं । ५. हे जीव! तू (यज) = इस प्रकार प्रभु से अपना मेल बना, यज्ञशील बन, दान दे।
भावार्थ
भावार्थ - रात्रि हमें सब द्वेषों व पापों को भुला देती है। दिन हमें वरणीय धनों के प्रापण में सहायक होता है। ये हमें धन प्राप्त कराते हुए प्रभु का भी स्मरण कराएँ ।
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! रात्र व दिवसामुळे माणसांचे सर्व व्यवहार पार पडतात. त्यापैकी रात्री प्राणी झोपेच्या अधीन होऊन द्वेष इत्यादीपासून दूर राहतो तर दिवसा त्याचे द्वेष वगैरे व्यवहार प्रकट होत असतात. त्यासाठी प्रातःकाळी राग द्वेष वगैरे दोष दूर करून योगाभ्यासाने शांतता वगैरे गुण प्राप्त करा व सुख भोगा.
विषय
पुढील मंत्रात त्याचविषयी -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे विद्वान, (वसुधिती) द्रव्यांना धारण करणारे (जोष्ट्री) सर्व पदार्थांचे सेवन वा उपभोग घेणारे (देवी) दिव्यगुणयुक्त दिवस आणि रात्र (देवम्) प्रकाशरूप (इन्द्रम्) सूर्याला (अवर्द्धताम्) वाढवितात, त्या दिवसरात्रीच्या मधे (अन्या) एक (अघा) अंधकाररूप रात्र (द्वेषांसि) द्वेषी जीव-जन्तूनां) (आ, अयामि) चांगल्याप्रमाणे वेगळे करते. (रात्र झाल्यामुळे जीव-जंतू झोपी जातात वा भीतीमुळे तापून बसतात) तसेच (अन्या) त्या दोन पैकी एक म्हणजे सकाळ, उषःकाळ (वसु) धन आणि (वार्याणि) उत्तम जल आदी (यक्षत) प्राप्त करून देते. (सकाळी लवकर उठणार्या लोकांना संपत्ती लाभते) त्याप्रमाणे (यजमानाय) पुरूषार्थी मनुष्यासाठी (वसुधेयस्य) आकाशात तसेच (वसुवने) पृथ्वी आदी विभाग असणार्या या जगात (शिक्षिते) मनुष्यानी आपले सर्व व्यवहार दिवस व रात्री (वीताम्) पूर्ण करून घ्यावेत. हे विद्वान, तुम्हीही (यज) यज्ञ करा वा आपली कामें रात्री वा दिवसा पूर्ण करून घ्या. ॥15॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. हे मनुष्यांनो, ज्याप्रमाणे रात्र आणि दिवस आपापल्या काळात मनुष्य आदी प्राण्यांचे सर्व व्यवहार पूर्ण करण्यास सहाय्यक होतात, (त्याप्रमाणे तुम्हीही परस्पर पूरक व्हा) या दिवस-रात्रपैकी जी रात्र आहे ती प्राण्यांना निद्रासुख देऊन द्वेष आदी दुर्भावनांना निवारित करते. दिवस मात्र त्या द्वेष आदीमुळे प्रेरित होऊन तसे व्यवहार घडवितो त्याचप्रमाणे सकाळ मात्र योगाभ्यासादीद्वारे दोषनिवृत्ती करते आणि लोक शांती आदी गुण प्राप्त करून सुखी होतात वा तुम्ही सुखी व्हा ॥15॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O learned person, just as lustrous day and night, wealth-givers, engulfing all objects, heighten the radiant sun, and one of them the night drives away hatreds and sins ; the other, the Dawn brings boons and treasures ; and just as day and night in which men receive education, under the sky on this earth a part of the world, comprehend the active sacrificer, so shouldst thou perform yajna.
Meaning
Two divine powers of nature, the dawn and the day, and the evening and the night augment the light and beauty of the sun. One, the evening, wards off the hate and sins of the mind and the other, the morning, proclaims and points to the choicest wealths of the world. May both create, promote, and bring down the wealth of heaven for the world and the yajamana. Man of yajna, carry on the yajna.
Translation
The divine heaven and earth (jostri), omniscient, bestowers of rich treasures, foster the strength of the aspirant. One of them drives away the sins and the hatred, and the other brings the coveted treasures for the Sacrificer. At the time of distribution of wealth, may both of them procure the store of wealth for us. Offer Sacrifice. (1)
Notes
Joştri devi, प्रीतियुक्ते देव्यौ, two divinities affectionate to each other, i. e. the heaven and earth. Vasudhiti, two bestowers of treasures. Ayāvi anya aghã dveṣāmsi, one drives away the sins and hatreds. Anyā vakṣad vasu, the other bestows riches.
बंगाली (1)
विषय
পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ– হে বিদ্বন্! যেমন (বসুধিতী) দ্রব্যকে ধারণকারী (জোষ্ট্রী) সকল পদার্থের সেবন করিতে থাকিয়া (দেবী) প্রকাশমান দিন রাত (দেবম্) প্রকাশস্বরূপ (ইন্দ্রম্) সূর্য্যকে (অবর্দ্ধতাম্) বৃদ্ধি করায় সেই সব দিবস-রাত্রির মধ্যে (অন্যা) এক (অঘা) অন্ধকাররূপ রাত্রি (দ্বেষাংসি) দ্বেষযুক্ত পশুগুলিকে (আ, অয়াবি) উত্তম প্রকার পৃথক করে এবং (অন্যা) তাহাদের মধ্যে এক প্রাতঃকাল ঊষা (বসু) ধন তথা (বার্য়াণি) উত্তম জলকে (বক্ষৎ) প্রাপ্ত করিবে । (য়জমানায়) পুরুষার্থী মনুষ্যের জন্য (বসুধেয়স্য) আকাশের মধ্যে (বসুবনে) যাহাতে পৃথিবী আদির বিভাগ হয়, এমন জগতে (শিক্ষিতে) যাহাতে মনুষ্যগণ শিক্ষিত হইয়া দিন রাত (বীতাম্) ব্যাপ্ত হইবে সুতরাং (যজ) যজ্ঞ করুন ॥ ১৫ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ– এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । হে মনুষ্যগণ ! তোমরা যেমন রাত্রি-দিবস বিভাগ প্রাপ্ত মনুষ্যাদি প্রাণীদের সকল ব্যবহারকে বৃদ্ধি কর, তাহাদের মধ্যে রাত্রি প্রাণীদিগকে ঘুম পাড়াইয়া দ্বেষাদিকে নিবৃত্ত করে এবং দিবস সেই সব দ্বেষাদিকে প্রাপ্ত এবং সকল ব্যবহারকে প্রকাশ করে এবং প্রাতঃকালে যোগাভ্যাস দ্বারা রাগাদি দোষ গুলিকে নিবৃত্ত এবং শান্তি আদি গুণগুলিকে প্রাপ্ত হইয়া সুখকে প্রাপ্ত হও ॥ ১৫ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
দে॒বী জোষ্ট্রী॒ বসু॑ধিতী দে॒বমিন্দ্র॑মবর্ধতাম্ । অয়া॑ব্য॒ন্যাঘা দ্বেষা॒ᳬंস্যান্যা ব॑ক্ষ॒দ্বসু॒ বার্য়া॑ণি॒ য়জ॑মানায় শিক্ষি॒তে ব॑সু॒বনে॑ বসু॒ধেয়॑স্য বীতাং॒ য়জ॑ ॥ ১৫ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
দেবী ইত্যস্যাশ্বিনাবৃষী । ইন্দ্রো দেবতা । ভুরিগতিজগতী ছন্দঃ ।
নিষাদঃ স্বরঃ ॥
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