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यजुर्वेद अध्याय - 28

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  • यजुर्वेद - अध्याय 28/ मन्त्र 22
    ऋषिः - अश्विनावृषी देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    दे॒वोऽअ॒ग्निः स्॑िवष्ट॒कृद्दे॒वमिन्द्र॑मवर्धयत्।स्वि॑ष्टं कु॒र्वन्त्स्वि॑ष्ट॒कृत् स्वि॑ष्टम॒द्य क॑रोतु नो वसु॒वने॑ वसु॒धेय॑स्य वेतु॒ यज॑॥२२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒वः। अ॒ग्निः। स्वि॒ष्टकृदिति॑ स्विष्ट॒ऽकृत्। दे॒वम्। इन्द्र॑म्। अ॒व॒र्ध॒य॒त्। स्वि॑ष्ट॒मिति॒ सुऽइ॑ष्टम्। कु॒र्वन्। स्वि॒ष्ट॒कृदिति॑ स्विष्ट॒ऽकृत्। स्वि॑ष्ट॒मिति॒ सुऽइ॑ष्टम्। अ॒द्य। क॒रो॒तु॒। नः॒। व॒सु॒वन॒ इति॑ वसु॒ऽवने॑। व॒सु॒धेयस्येति॑ वसु॒ऽधेय॑स्य। वे॒तु॒। यज॑ ॥२२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवोऽअग्निः स्विष्टकृद्देवमिन्द्रमवर्धयत् । स्विष्टङ्कुर्वन्त्सि्वष्टकृत्स्विष्टमद्य करोतु नो वसुवने वसुधेयस्य वेतु यज ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    देवः। अग्निः। स्विष्टकृदिति स्विष्टऽकृत्। देवम्। इन्द्रम्। अवर्धयत्। स्विष्टमिति सुऽइष्टम्। कुर्वन्। स्विष्टकृदिति स्विष्टऽकृत्। स्विष्टमिति सुऽइष्टम्। अद्य। करोतु। नः। वसुवन इति वसुऽवने। वसुधेयस्येति वसुऽधेयस्य। वेतु। यज॥२२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 28; मन्त्र » 22
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    हे विद्वन्! यथा स्विष्टकृद् देवोऽग्निरिन्द्रं देवमवर्धयद्, यथा च स्विष्टं कुर्वन् स्विष्टकृत् सन्नग्निः स्विष्टं करोति, तथाऽद्य नः सुखं करोतु, धनं वेतु वसुधेयस्य वसुवने यज च॥२२॥

    पदार्थः

    (देवः) दिव्यगुणः (अग्निः) पावकः (स्विष्टकृत्) यः शोभनमिष्टं करोति सः (देवम्) दिव्यगुणम् (इन्द्रम्) जीवम् (अवर्धयत्) वर्धयेत् (स्विष्टम्) शोभनञ्च तदिष्टम् (कुर्वन्) सम्पादयन् (स्विष्टकृत्) उत्तमेष्टकारी (स्विष्टम्) अतिशयेनाभीप्सितम् (अद्य) (करोतु) (नः) अस्मभ्यम् (वसुवने) (वसुधेयस्य) (वेतु) (यज)॥२२॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा गुणकर्मस्वभावैर्विज्ञातः कर्मसु संप्रयुक्तोऽग्निरभीष्टानि कार्याणि साध्नोति तथा विद्वद्भिर्वर्तितव्यम्॥२२॥

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    हिन्दी (2)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे विद्वन् जैसे (स्विष्टकृत्) सुन्दर प्रकार इष्ट का साधक (देवः) उत्तम गुणों वाला (अग्निः) अग्नि (इन्द्रम्, देवम्) उत्तम गुणों वाले जीव को (अवर्धयत्) बढ़ावे, यथा जैसे (स्विष्टम्) सुन्दर इष्ट को (कुर्वन्) सिद्ध करता और (स्विष्टकृत्) उत्तम इष्टकारी हुआ अग्नि (स्विष्टम्) अत्यन्त चाहे हुए कार्य को करता है, वैसे (अद्य) आज (नः) हमारे लिए सुख को (करोतु) कीजिए, (वेतु) धन को प्राप्त हूजिए और (वसुधेयस्य) सब द्रव्यों के आधार जगत् के बीच (वसुवने) पदार्थविद्या को चाहते हुए मनुष्य के लिए (यज) दान कीजिए॥२२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे गुण, कर्म, स्वभावों करके जाना गया, कर्मों में नियुक्त किया अग्नि, अभीष्ट कार्यों को सिद्ध करता है, वैसे विद्वानों को वर्त्तना चाहिए॥२२॥

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    विषय

    होता द्वारा भिन्न-भिन्न अधिकारियों की नियुक्ति और उनके विशेष आवश्यक लक्षण, अधिकार और शक्तियों का वर्णन।

    भावार्थ

    (अग्निः देवः) अग्नि के समान तेजस्वी, अग्रणी विद्वान् पुरुष(स्वष्टकृत् ) उत्तम यज्ञों का परिमित कार्यों का कर्त्ता भी ( देवम् इन्द्रम् अवर्धयत् ) देव, 'इन्द्र', राजा व राज्य की वृद्धि करता है । वह (स्विष्टम् ) शुभ इष्ट कार्यों का सम्पादन ( कुर्वन् ) करता हुआ ही (स्विष्टकृत्) 'स्विष्टकृत् ' उत्तम काम करने वाला है । वह (नः) हम प्रजाजनों का भी (अद्य) आज (सु-इष्टं करोतु ) वांच्छित कार्यों को करे ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    निचृत् त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा उत्तम गुण, कर्म स्वभावयुक्त अग्नी इष्ट कार्य सिद्ध करतो तसे विद्वानांनी वागावे.

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    विषय

    पुनश्‍च, त्याच विषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे विद्वान, ज्याप्रमाणे (स्विष्टकृत्) इच्छिताची प्राप्ती करून देणारा (देवः) (अग्नीः) उत्तमगुणधारक अग्नी (इन्द्रम्), देवम्) उत्तम गुणवान जीवाला (अवर्धयत्) वाढवितो, आणि (स्विष्टम्) सुंदर इष्ट इच्छिताचा (कुर्वन्) पूर्ती करतो, तोच (स्विष्टकृत्) उत्तम इष्टपूर्ती करणारा अग्नी (स्विष्टम्) आमचे अत्यंत प्रिय व वांछित कार्य पूर्ण करण्यात सहाय्यभूत होतो, त्याप्रमाणे आपण (अद्य आज (नः) आमच्याकरीता सुख (करोतु) निर्माण करा. (वेतु) धन प्राप्त करण्यात सहाय्यभूत व्हा. (वसुधेयस्य) सर्व द्रव्यांचा जे जग, त्या जगात (वसुवने) पदार्थ विद्या शिकण्याची इच्छा करणार्‍या मनुष्यासाठी (यज) दान द्या. ॥22॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. ज्याप्रमाणे आपल्या गुण, कर्म, स्वभावाप्रमाणे याज्ञिकजन आवश्यक अग्नीचा विविध कार्यात उपयोग करतो आणि मग अग्नी त्याच्या अभीष्ट कार्य सिद्ध करतो, विद्वानांनीही त्याप्रमाणे केले पाहिजे. ॥22॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O learned person, just as efficacious fire, with diverse uses, heightens the noble soul, and just as fire accomplishing the desired ambition, being highly serviceable, fulfils our cherished aim, so shouldst thou ever contribute to our happiness, amass wealth, and give monetary help to the scientist in this precious world.

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    Meaning

    Blessed Agni, brilliant and generous divine fire energy, which purifies and sanctifies everything, may bless and elevate Indra, the human soul, turning everything to good and auspicious for us today. Power of good and blessedness, may it bestow the wealth of the world on the dedicated man of yajna yearning for wealth. Man of yajna, keep the fire burning.

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    Translation

    The divine adorable Lord, fulfiller of good desires (svistakrt), fosters the divine aspirant. May the fulfiller of good desires, fulfilling good desires, accomplish today for us what we desire. At the time of the distribution of wealth, may He procure the store of wealth for us. Offer sacrifice. (1)

    Notes

    Sviştkṛt, सु इष्टकृत् , fulfiller of good desires.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে বিদ্বন্! যেমন (স্বিষ্টকৃৎ) সুন্দর প্রকার ইষ্টের সাধক (দেবঃ) উত্তম গুণযুক্ত (অগ্নিঃ) অগ্নি (ইন্দ্রম্, দেবম্) উত্তম গুণসম্পন্ন জীবকে (অবর্ধয়ৎ) বৃদ্ধি করিবে যথা যেমন (স্বিষ্টম্) সুন্দর ইষ্টকে (কুর্বন্) প্রতিপন্ন করে এবং (স্বিষ্টকৃৎ) উত্তম ইষ্টকারী অগ্নি (স্বিষ্টম্) অত্যন্ত বাঞ্ছিত কার্য্যকে করে তদ্রূপ (অদ্য) আজ (নঃ) আমাদের জন্য সুখকে (করোতু) করুন । (বেতু) ধনকে প্রাপ্ত হউন এবং (বসুধেয়স্য) সকল দ্রব্যসমূহের আধার জগতের মধ্যে (বসুবনে) পদার্থবিদ্যার কামনা করিয়া মনুষ্যদিগের জন্য (য়জ) দান করুন ॥ ২২ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যেমন গুণ-কর্ম-স্বভাব দ্বারা জ্ঞাত কর্ম্মে নিযুক্ত অগ্নি অভীষ্ট কার্য্য সিদ্ধ করে তদ্রূপ বিদ্বান্দিগের ব্যবহার করা উচিত ॥ ২২ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    দে॒বোऽঅ॒গ্নিঃ স্বিষ্ট॒কৃদ্দে॒বমিন্দ্র॑মবর্ধয়ৎ । স্বি॑ষ্টং কু॒র্বন্ৎস্বি॑ষ্ট॒কৃৎ স্বি॑ষ্টম॒দ্য ক॑রোতু নো বসু॒বনে॑ বসু॒ধেয়॑স্য বেতু॒ য়জ॑ ॥ ২২ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    দেব ইত্যস্যাশ্বিনাবৃষী । অগ্নির্দেবতা । নিচৃৎ ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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