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यजुर्वेद अध्याय - 28

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  • यजुर्वेद - अध्याय 28/ मन्त्र 16
    ऋषिः - अश्विनावृषी देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - भुरिगाकृतिः स्वरः - पञ्चमः
    79

    दे॒वीऽऊ॒र्जाहु॑ती॒ दुघे॑ सु॒दुघे॒ पय॒सेन्द्र॑मवर्द्धताम्। इष॒मूर्ज॑म॒न्या व॑क्ष॒त्सग्धि॒ꣳ सपी॑तिम॒न्या नवे॑न॒ पूर्वं॒ दय॑माने पुरा॒णेन॒ नव॒मधा॑ता॒मूर्ज॑मू॒र्जा॑हुतीऽ ऊ॒र्जय॑माने॒ वसु॒ वार्या॑णि॒ यज॑मानाय शिक्षि॒ते व॑सु॒वने॑ वसु॒धेय॑स्य वीतां॒ यज॑॥१६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒वीऽइति॑ दे॒वी। ऊ॒र्जाहु॑ती॒ इत्यू॒र्जाऽआ॑हुती। दुघे॑। सु॒दुघे॒ इति॑ सु॒ऽदुघे॑। पय॑सा। इन्द्र॑म्। अ॒व॒र्द्ध॒ता॒म्। इष॑म्। ऊर्ज॑म्। अ॒न्या। व॒क्ष॒त्। सग्धि॑म्। सपी॑ति॒मिति॒ सऽपी॑तिम्। अ॒न्या। नवे॑न। पूर्व॑म्। दय॑माने॒ इति॒ दय॑माने। पु॒रा॒णेन॑। नव॑म्। अधा॑ताम्। ऊर्ज॑म्। ऊ॒र्जाहु॑ती॒ इत्यू॒र्जाऽआ॑हुती। ऊ॒र्जय॑मानेऽइत्यू॒र्जय॑माने। वसु॑। वार्या॑णि। यज॑मानाय। शि॒क्षि॒तेऽइति॑ शिक्षि॒ते। व॒सु॒वन॒ इति॑ वसु॒ऽवने॑। व॒सु॒धेय॒स्येति॑ वसु॒ऽधेय॑स्य। वी॒ता॒म्। यज॑ ॥१६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवीऽऊर्जाहुती दुघे पयसेन्द्रमवर्धताम् । इषमूर्जमन्या वक्षत्सग्धिँ सपीतिमन्या नवेन पूर्वन्दयमाने पुराणेन नवमधातामूर्जाहुतीऽऊर्जयमाने वसु वृयाणि यजमानाय शिक्षिते वसुवने वसुधेयस्य वीताँयज ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    देवीऽइति देवी। ऊर्जाहुती इत्यूर्जाऽआहुती। दुघे। सुदुघे इति सुऽदुघे। पयसा। इन्द्रम्। अवर्द्धताम्। इषम्। ऊर्जम्। अन्या। वक्षत्। सग्धिम्। सपीतिमिति सऽपीतिम्। अन्या। नवेन। पूर्वम्। दयमाने इति दयमाने। पुराणेन। नवम्। अधाताम्। ऊर्जम्। ऊर्जाहुती इत्यूर्जाऽआहुती। ऊर्जयमानेऽइत्यूर्जयमाने। वसु। वार्याणि। यजमानाय। शिक्षितेऽइति शिक्षिते। वसुवन इति वसुऽवने। वसुधेयस्येति वसुऽधेयस्य। वीताम्। यज॥१६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 28; मन्त्र » 16
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    हे विद्वन् यथा वसुधेयस्य वसुवने वर्त्तमाने विद्वद्भिर्वसु वार्याणि शिक्षितेरात्रिदिने यजमानाय व्यवहारं वीतां तथोर्जाहुती देवी पयसा दुघे सुदुघे सत्याविन्द्रमवर्द्धतां तयोरन्या इषमूर्जं वक्षदन्या सपीतिं सग्धिं वक्षद् दयमाने सत्यौ नवेन पूर्वं पुराणेन नवमधातामूर्जयमाने ऊर्जाहुती ऊर्जमधातां तथा यज॥१६॥

    पदार्थः

    (देवी) दिव्यगुणप्रापिके (ऊर्जाहुती) बलप्राणधारिके (दुघे) सुखानां प्रपूरिके (सुदुघे) सुष्ठु कामवर्द्धिके (पयसा) जलेन (इन्द्रम्) ऐश्वर्यम् (अवर्द्धताम्) वर्द्धयतः (इषम्) अन्नम् (ऊर्जम्) बलम् (अन्या) रात्रिः (वक्षत्) प्रापयति (सग्धिम्) समानं भोजनम् (सपीतिम्) पानेन सह वर्त्तमानम् (अन्या) दिनाख्या (नवेन) नवीनेन (पूर्वम्) (दयमाने) रात्र्यौ (पुराणेन) प्राचीनेन स्वरूपेण (नवम्) नवीनं स्वरूपम् (अधाताम्) दध्याताम् (ऊर्जम्) प्राणनम् (ऊर्जाहुती) बलस्यादात्र्यौ (ऊर्जयमाने) बलं कुर्वाणे (वसु) धनम् (वार्याणि) वरितुमर्हाणि कर्माणि (यजमानाय) सङ्गत्यै प्रवर्त्तमानाय जीवाय (शिक्षिते) विद्वद्भिरुपदिष्टे (वसुवने) धनदानाधिकरणे (वसुधेयस्य) वस्वैश्वर्यं धेयं यत्र तस्येश्वरस्य (वीताम्) व्याप्नुताम् (यज) संगच्छस्व॥१६॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्याः! यथा रात्रिदिने वर्त्तमानस्वरूपेण पूर्वापरस्वरूपज्ञापिके आहारविहारप्रापिके वर्त्तेते तथाऽग्नौ हुता आहुतयः सर्वसुखप्रपूरिका जायन्ते। यदि मनुष्याः कालस्य सूक्ष्मामपि वेलां व्यर्थां नयेयुर्वाय्वादिपदार्थान्न शोधयेयुरदृष्टमनुमानेन न विद्युस्तर्हि सुखमपि नाप्नुयुः॥१६॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे विद्वन्! जैसे (वसुधेयस्य) ऐश्वर्य धारण करने योग्य ईश्वर के (वसुवने) धन दान के स्थान जगत् में वर्त्तमान विद्वानों ने (वार्याणि) ग्रहण करने योग्य (वसु) धन की (शिक्षिते) जिन में शिक्षा की जावे, वे रात-दिन (यजमानाय) संगति के लिए प्रवृत्त हुए जीव के लिए व्यवहार को (वीताम्) व्याप्त हों, वैसे (ऊर्जाहुती) बल तथा प्राण को धारण करने और (देवी) उत्तम गुणों को प्राप्त करने वाले दिन रात (पयसा) जल से (दुघे) सुखों को पूर्ण और (सुदुघे) सुन्दर कामनाओं के बढ़ाने वाले होते हुए (इन्द्रम्) ऐश्वर्य को (अवर्धताम्) बढ़ाते हैं उन में से (अन्या) एक (इषम्) अन्न और (ऊर्जम्) बल को (वक्षत्) पहुँचाती और (अन्या) दिनरूप वेला (सपीतिम्) पीने के सहित (सग्धिम्) ठीक समान भोजन को पहुँचाती है, (दयमाने) आवागमन गुण वाली अगली पिछली दो रात्रि प्रवृत्त हुई (नवेन) नये पदार्थ के साथ (पूर्वम्) प्राचीन और (पुराणेन) पुराणे के साथ (नवम्) नवीन स्वरूप वस्तु को (अधाताम्) धारण करे, (ऊर्जयमाने) बल करते हुए (ऊर्जाहुती) अवस्था घटाने से बल को लेने हारे दिन-रात (ऊर्जम्) जीवन को धारण करें, वैसे आप (यज) यज्ञ कीजिए॥१६॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो! जैसे रात-दिन अपने वर्त्तमान रूप से पूर्वापररूप को जताने तथा आहार-विहार को प्राप्त करने वाले होते हैं, वैसे अग्नि में होमी हुई आहुतीं सब सुखों को पूर्ण करने वाली होती हैं। जो मनुष्य काल की सूक्ष्म वेला को भी व्यर्थ गमायें, वायु आदि पदार्थों को शुद्ध न करें, अदृष्ट पदार्थ को अनुमान से न जानें तो सुख को भी न प्राप्त हों॥१६॥

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    विषय

    होता द्वारा भिन्न-भिन्न अधिकारियों की नियुक्ति और उनके विशेष आवश्यक लक्षण, अधिकार और शक्तियों का वर्णन।

    भावार्थ

    ( सुदुधे पयसा ) उत्तम रीति से दूध देनेवाली दो गौएं स्वामी या बछड़ों को पुष्ट करती हैं, उसी प्रकार दो संस्थाएं (देवी) उत्तम अन्न आदि देने में समर्थ, (दुघे) समस्त राष्ट्र को पूर्ण करने वाली, (ऊर्जाहुती) अन्न देने वाली, ( पयसा ) पुष्टिकारक अन्न से ( इन्द्रम् ) ऐश्वर्यवान् राष्ट्रपति और राष्ट्र की ( अवर्धताम् ) वृद्धि करें। उन दोनों में से (अन्या) एक संस्था ( ऊर्जम् ) राष्ट्र के अन्न को धारण करे । और (अन्या) दूसरी ( सग्धिम् सपीतिम् ) सबके एक समान जल आदि पान के योग्य पदार्थों को ( आवक्षत् ) प्राप्त करावे । वे दोनों (नवेत) नये अन्न से (पूर्वम् ) पूर्व विद्यमान अन्न की और (पुराणेन) पुराने गत वर्ष के अन्न से (नवम् ) नये ( ऊर्जम् ) अन्न को ( अधाताम् ) सुरक्षित रक्खें ! अर्थात् नया अन्न प्राप्त करके पुराने की भी इसलिये रक्षा करें कि पुराने अन्न को प्रयोग में लाकर उसको बीज रूप में क्षेत्रों में डलवा कर उससे नये अन्न को प्राप्त करें । इस प्रकार वे (ऊर्जम्) राष्ट्र को अन्न (दयमाने) प्रदान करती और रक्षा करती हुईं ही (ऊर्जाहुती) राष्ट्र को अन्न सम्पत् देने से 'ऊर्जाहुती' हैं। वे दोनों (ऊर्जयमाने ) अन्न द्वारा बल वृद्धि करती हुई (शिक्षिते) नाना विद्याओं में शिक्षा प्राप्त करके (वार्याणि वसु) प्राप्त करने योग्य नाना उत्तम ऐश्वर्यो को (वसुवने) ऐश्वर्य के भोक्ता (यजमानाय ) राजा के (वसुधेयस्य) धनैश्वर्य को (वीताम् ) प्राप्त करें और उसकी रक्षा करें। (होत: यज) हे होत: ! विद्वन् ! तू उन दोनों संस्थाओं को अधिकार प्रदान कर ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भुरिगाकृतिः । निषादः ॥

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    विषय

    देवी ऊर्जाहुती [ द्यावापृथिव्यौ ]

    पदार्थ

    १. यहाँ 'ऊर्जाहुती' शब्द द्युलोक व पृथिवीलोक के लिए आया है [नि० ९।४२] । ये हममें 'ऊर्ज्' की आहुति देनेवाले हैं। इन्हीं से अन्न व रस के द्वारा बल व प्राणशक्ति प्राप्त करायी जाती है, अतएव ये (देवी) = दिव्य गुणोंवाले अथवा बल व प्राणशक्ति को देनेवाले हैं। वे (दुघे) = अन्न व रस के द्वारा हमारा पूरण करनेवाले हैं [दुह प्रपूरणे], (सुदुघे) = बड़ी उत्तमता से ये हमारा पूरण करनेवाले हैं। ये दोनों (पयसा) = आप्यायन व वर्धन के कारणभूत रस से (इन्द्रम्) = जितेन्द्रिय पुरुष को (अवर्धताम्) = बढ़ाते हैं । २. इनमें से (अन्या) = दूसरा पितृस्थानापन्न द्युलोक (सग्धिम्) = सहभोजन को तथा (सपीतिम्) = सहपान को प्राप्त कराता है। पृथिवी से उत्पन्न हुए हुए अन्न को उस उस भूमि के स्वामी अपना समझते हैं और स्वयं खाते हैं, परन्तु द्युलोक से होनेवाली वृष्टि पर व्यक्ति का अधिकार नहीं, इसमें बहनेवाली हवा को सभी श्वासवायु के साथ अपने अन्दर ग्रहण करते हैं। इस प्रकार द्युलोक सपीति व सग्धि को प्राप्त कराता है। ३. ये द्यावापृथिवी (नवेन) = नव अन्न से (पूर्वं ऊर्जम्) = पुराने अन्न की दयमाने रक्षा करते हैं और (पुराणेन) = पुराने से (नवं ऊर्जम्) = नये अन्न को (अधाताम्) = धारण करते हैं। कई बार चावल इत्यादि कुछ देर तक रखने आवश्यक हो जाते हैं, उसे पुराने अन्न में कुछ औषधगुणों की अधिकता हो जाती है, परन्तु नये चावल न आएँ तो पुराने को समाप्त करना पड़ जाता है, परन्तु द्युलोक व पृथिवीलोक नये धान्य को पैदा करके पुराने का रक्षण कर देते हैं और यह तो स्पष्ट ही है कि पुराने को बोकर हम नये धान को प्राप्त करते हैं। ४. इस प्रकार (ऊर्जयमाने) = ऊर्जा को बढ़ाते हुए (ऊर्जाहुती) = ये द्युलोक व पृथिवीलोक (यजमानाय) = यज्ञशील पुरुष के लिए वार्याणि वसु-वरणीय धनों को [अधाताम्] धारण करते हैं । ५. इस प्रकार शिक्षिते नव से पुराने की रक्षा व पुराने से नव का धारण तथा यजमान के लिए वरणीय वसुओं के प्रापण की शिक्षा को पाये हुए ये द्यावापृथिवी (वसुवने) = धन के सेवन में (वसुधेयस्य) = सब धनों के आधारभूत उस प्रभु का (वीताम्) = अपने में प्रजनन व प्रादुर्भाव करें। हे जीव ! तू (यज) = उस प्रभु को अपने साथ संगत करनेवाला बन । धन को प्राप्त कर तथा उस धन का दान देनेवाला बन।

    भावार्थ

    भावार्थ- द्युलोक व पृथिवीलोक हमारे लिए उत्तम अन्नों का दोहन करनेवाले हों। ये यज्ञशील को वार्य वसु प्राप्त कराएँ। इनसे धनों को प्राप्त करते हुए हम धनों के आधारभूत प्रभु को न भूल जाएँ।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जसे दिवस व रात्र यांच्यामुळे पुढच्या व मागच्या सर्व गोष्टी कळतात आणि आहार व विहारासंबंधी ही ज्ञान प्राप्त होते तसे अग्नीत टाकलेल्या आहुतीमुळे सर्व सुख प्राप्त होते. जी माणसे काळाच्या सूक्ष्म क्षणाचा विचार न करता व्यर्थ वेळ घालवितात. वायू वगैरे पदार्थ शुद्ध करत नाहीत त्यांना अदृश्य पदार्थ अनुमानाने जाणता येत नाहीत व त्यामुळे सुखही प्राप्त होत नाही.

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    विषय

    पुन्हा त्याच विषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ -हे विद्वान, ज्याप्रमाणे (वसुधेयस्य) ईश्‍वराच्या ज्या (जगात) ऐश्‍वर्य अर्जित केले जाते (वसुवने) त्या धनदानाचे स्थान, या जगात विद्वानांनी (वार्याणि) ग्रहणीय (वसु) धन (अर्जित केले आहे वा करतात तसेच ज्या जगात (शिक्षिते) शिक्षा वा व्यवहाराच्या नियमाचे शिक्षण घेणार्‍या (यजमानाय) संगती, सहकार्य चाहणार्‍या प्राण्यासाठी (वीताम्) सर्व नियम प्राप्त होतात (तसे तुलाही प्राप्त व्हावेत.) (ऊर्जाहुती बल व प्राण यांना धारण करणारे आणि (देवी) दिव्य गुण प्राप्त करून देणारे दिवस आणि रात्र (पदसा) जलाद्वारे (दुघे) सुखांनी जगाला परिपूर्ण करतात तसेच (सुदुघे) सुंदर कामना पूर्ण करणारे होत ते दिवस-रात्र (इन्द्रम्) ऐश्‍वर्याची (अवर्धताम्) वृद्वी करतात. त्या दिवस रात्र पैकी (अन्या) एक (इषम्) अन्न-धान्य आणि (ऊर्जम्) बळ (वक्षत्) प्राप्त करून देते (म्हणजे रात्र शांति व विश्रांती देते) आणि (अन्या) दिवसरूप वेळा (सपीतिम्) पिण्याच्या पदार्था व्यतिरिक्त (सग्धिम्) भोजनदेखील पोहचविते (वा सर्वांस देते) (दयमान) येणारी व गेलेली अशा दोन रात्री (नवेन) नवीन पदर्थांसह (पूर्वम्) प्राचीन आणि (पुराणेम) जुन्या पदार्थांसह (नवम्) नवीन स्वरूप (अधाताम्) धारण करोत (आम्हांला कालची रात्र व येणारी रात्र नवीन समृद्धी घेऊन येणारी होवो) (ऊर्जयमाने) शक्ती वाढवीत तर (ऊर्जाहुती) कधी शक्तीचा र्‍हास करीत दिवस-रात्र यांनी (ऊर्जम्) नवीन जीवन द्यावे, तसे हे विद्वान, तुम्हीही (यज) यज्ञ करा. ॥16॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. हे मनुष्यांनो, जसे हे रात्र-दिवस आपल्या पूर्वापार रूप जाणून एकानंतर एक असे नियमाने देत-जात योग्य आहार विहारासाठी उचित वातावरण निर्माण करतात, तसेच अग्नीत आहुत सर्व आहुती सर्व सुख देणार्‍या असतात. जे लोक समयाच्या एक छोटासा अंश देखील व्यर्थ घालवतात, आणि वायू, जल आदी नदार्थाना यज्ञाद्वारे शुद्ध करीत नाहीत, पुढे होणार्‍या आपल्या हानीचा अनुमान आधीच करून घेत नाहीत, तर ते कदापी सुखी होणार नाहीत ॥16॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O learned person, just as educated persons, in this world, the creation of God, in day and night, comprehend the soul intent upon the acquisition of spiritual knowledge ; and just as day and night the retainers of strength and breath, the givers of happiness, gladden us with water, impel our noble ambitions and add to our prosperity, one of which brings food and energy, the other feast and drinks, and just as the outgoing and in-coming nights blend the old energy with the new and new with the old, and day and night, the decreasers of life and dissipators of strength, preserve our existence so shouldst thou perform yajna.

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    Meaning

    Two sacred divinities of nature, day and night, holding strength and energy, both generous and abundant in joy and fulfilment, nourish and advance Indra, spirit of humanity and prosperity of the world. One of them, the night, begets food and replenishment of energy and the other, the day, begets a common meal and common drink for us. Full of peace and joy, they hold and join the old with the new, and the new with the old. Replete with the spirit and wisdom of divinity, blest with wealth of energy, blessing all with energy, they hold the choicest gifts of life in store for the yajamana, the human soul, and bring us showers of peace and grace of God upon the earth. Man of yajna, carry on the yajna in unison with the night and day.

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    Translation

    The divine heaven (urja) and earth (ahuti), the two teeming cows, easy to milk, foster the strength of the aspirant with their milk. One of them (urja) provides with the food and vigour and the other (ahuti) brings feasting and banqueting. Bestowers of strength, the heaven and earth are pleased to put new energy in the old and the energy of the old in the new and well-ordained they supply the sacrificer with riches. At the time of distribution of wealth, may both of them procure the store of wealth for us. Offer sacrifice. (1)

    Notes

    Işam ürjam, food and vigour, Sagdhim sapitim, feasting and drinking in company. Vāryāṇi, वरणीयानि, coveted, desired.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে বিদ্বন্! যেমন (বসুধেয়স্য) ঐশ্বর্য্য ধারণ করিবার যোগ্য ঈশ্বরের (বসুবনে) ধন দানের স্থান জগতে বর্ত্তমান বিদ্বান্সকল (বার্য়াণি) গ্রহণ করিবার যোগ্য (বসু) ধনের (শিক্ষিতে) যাহাতে শিক্ষা করা হয় সেই সব রাত-দিন (য়জ্ঞমানায়) সঙ্গতির জন্য প্রবৃত্ত জীবের জন্য ব্যবহারকে (বীতাম্) ব্যাপ্ত হয় তদ্রূপ (ঊর্জাহুতী) জল তথা প্রাণকে ধারণকারী এবং (দেবী) উত্তম গুণ সকল প্রাপক দিন-রাত (পয়সা) জল দ্বারা (দুঘে) সুখকে পূর্ণ এবং (সুদুঘে) সুন্দর কামনাগুলিকে বৃদ্ধিকারী হইয়া (ইন্দ্রম্) ঐশ্বর্য্যকে (অবর্ধতাম্) বৃদ্ধি করে তাহাদের মধ্য হইতে (অন্যা) এক (ইষম্) অন্ন এবং (ঊর্জম্) বলকে (বক্ষৎ) প্রাপ্ত করায় এবং (অন্যা) দিনরূপ সময় (সপীতিম্) পান করিবার সহিত (সগ্ধিম্) ঠিক সমান ভোজনকে পৌঁছায় । (দয়মানে) আবাগমন গুণযুক্তা আগামী ও গত দুই রাত্রি প্রবৃত্ত হওয়া (নবেন) নব পদার্থ সহ (পূর্বম্) প্রাচীন এবং (পুরাণেন) পুরাণ সহ (নবম্) নবীন স্বরূপ বস্তুকে (অধাতাম্) ধারণ করিবে (ঊর্জয়মানে) বল করিয়া (ঊর্জাহুতী) অবস্থা কম করিয়া বল গ্রহনকারী দিন রাত (ঊর্জম্) জীবনকে ধারণ করিবে সেইরূপ আপনি (য়জ) যজ্ঞ করুন ॥ ১৬ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । হে মনুষ্যগণ ! যেমন রাত দিন নিজের বর্ত্তমান রূপে পূর্বাপররূপ জ্ঞাপক তথা আহার বিহারের প্রাপক হইয়া থাকে সেইরূপ অগ্নিতে হবনকৃত আহুতি সকল সুখকে পূর্ণ করে । যে সব মনুষ্য কালের সূক্ষ্ম বেলাকেও ব্যর্থ নষ্ট করিবে, বায়ু ইত্যাদি পদার্থকে শুদ্ধ করিবে না, অদৃষ্ট পদার্থকে অনুমান পূর্বক জানিবে না, তাহারা সুখকেও প্রাপ্ত হইবে না ॥ ১৬ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    দে॒বীऽঊ॒র্জাহু॑তী॒ দুঘে॑ সু॒দুঘে॒ পয়॒সেন্দ্র॑মবর্দ্ধতাম্ । ইষ॒মূর্জ॑ম॒ন্যা ব॑ক্ষ॒ৎসগ্ধি॒ꣳ সপী॑তিম॒ন্যা নবে॑ন॒ পূর্বং॒ দয়॑মানে পুরা॒ণেন॒ নব॒মধা॑তা॒মূর্জ॑মূ॒র্জা॑হুতীऽ ঊ॒র্জয়॑মানে॒ বসু॒ বার্য়া॑ণি॒ য়জ॑মানায় শিক্ষি॒তে ব॑সু॒বনে॑ বসু॒ধেয়॑স্য বীতাং॒ য়জ॑ ॥ ১৬ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    দেবী ইত্যস্যাশ্বিনাবৃষী । ইন্দ্রো দেবতা । ভুরিগাকৃতিশ্ছন্দঃ ।
    পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥

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