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यजुर्वेद अध्याय - 28

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  • यजुर्वेद - अध्याय 28/ मन्त्र 9
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - निचृदतिजगती स्वरः - निषादः
    119

    होता॑ यक्ष॒त् त्वष्टा॑र॒मिन्द्रं॑ दे॒वं भि॒षज॑ꣳसु॒यजं॑ घृत॒श्रिय॑म्।पु॒रु॒रूप॑ꣳ सु॒रेत॑सं म॒घोन॒मिन्द्रा॑य॒ त्वष्टा॒ दध॑दिन्द्रि॒याणि॒ वेत्वाज्य॑स्य॒ होत॒र्यज॑॥९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    होता॑। य॒क्ष॒त्। त्वष्टा॑रम्। इन्द्र॑म्। दे॒वम्। भि॒षज॑म्। सु॒यज॒मिति॑ सु॒ऽयज॑म्। घृ॒त॒श्रिय॒मिति॑ घृत॒ऽश्रिय॑म् पु॒रु॒रूप॒मिति॑ पुरु॒ऽरूप॑म्। सु॒रेत॑स॒मिति॑ सु॒ऽरेत॑सम्। म॒घोन॑म्। इन्द्रा॑य। त्वष्टा॑। दध॑त्। इ॒न्द्रि॒याणि॑। वेतु॑। आज्य॑स्य। होतः॑। यज॑ ॥९ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    होता यक्षत्त्वष्टारमिन्द्रन्देवम्भिषजँ सुयजङ्घृतश्रियम् । पुरुरूपँ सुरेतसम्मघोनमिन्द्राय त्वष्टा दधदिन्द्रियाणि वेत्वाज्यस्य होतर्यज ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    होता। यक्षत्। त्वष्टारम्। इन्द्रम्। देवम्। भिषजम्। सुयजमिति सुऽयजम्। घृतश्रियमिति घृतऽश्रियम् पुरुरूपमिति पुरुऽरूपम्। सुरेतसमिति सुऽरेतसम्। मघोनम्। इन्द्राय। त्वष्टा। दधत्। इन्द्रियाणि। वेतु। आज्यस्य। होतः। यज॥९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 28; मन्त्र » 9
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    हे होतर्यथा होता त्वष्टारं सुरेतसं मघोनं पुरुरूपं घृतश्रियं सुयजं भिषजं देवमिन्द्रं यक्षदाज्यस्येन्द्रायेन्द्रियाणि दधत् सन् त्वष्टा वेतु तथा यज॥९॥

    पदार्थः

    (होता) (यक्षत्) (त्वष्टारम्) दोषविच्छेदकम् (इन्द्रम्) ऐश्वर्यवन्तम् (देवम्) देदीप्यमानम् (भिषजम्) वैद्यम् (सुयजम्) सुष्ठु सङ्गन्तारम् (घृतश्रियम्) घृतेनोदकेन शोभमानम् (पुरुरूपम्) बहुरूपम् (सुरेतसम्) सुष्ठु वीर्यम् (मघोनम्) परमपूजितधनम् (इन्द्राय) जीवाय (त्वष्टा) प्रकाशकः (दधत्) धरन् सन् (इन्द्रियाणि) श्रोत्रादीनि धनानि वा (वेतु) प्राप्नोतु (आज्यस्य) ज्ञातुं योग्यस्य (होतः) (यज)॥९॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्याः! यूयमाप्तं रोगनिवारकं श्रेष्ठौषधदायकं धनैश्वर्यवर्द्धकं वैद्यं सेवित्वा शरीरात्माऽन्तःकरणेन्द्रियाणां बलं वर्द्धयित्वा परमैश्वर्यं प्राप्नुत॥९॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे (होतः) शुभगुणों के दाता! जैसे (होता) पथ्य आहार-विहार कर्त्ता जन (त्वष्टारम्) धातुवैषम्य से हुए दोषों को नष्ट करने वाले (सुरेतसम्) सुन्दर पराक्रमयुक्त (मघोनम्) परम प्रशस्त धनवान् (पुरुरूपम्) बहुरूप (घृतश्रियम्) जल से शोभायमान (सुयजम्) सुन्दर संग करने वाले (भिषजम्) वैद्य (देवम्) तेजस्वी (इन्द्रम्) ऐश्वर्यवान् पुरुष का (यक्षत्) संग करता है और (आज्यस्य) जानने योग्य वचन के (इन्द्राय) प्रेरक जीव के लिए (इन्द्रियाणि) कान आदि इन्द्रियों वा धनों को (दधत्) धारण करता हुआ (त्वष्टा) तेजस्वी हुआ (वेतु) प्राप्त होता है, वैसे तू (यज) संग कर॥९॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो! तुम लोग आप्त, सत्यवादी, रोगनिवारक, सुन्दर ओषधि देने, धन ऐश्वर्य के बढ़ाने वाले वैद्यजन का सेवन कर शरीर, आत्मा, अन्तःकरण और इन्द्रियों के बल को बæढ़ा के परम ऐश्वर्य का प्राप्त होओ॥९॥

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    विषय

    होता द्वारा भिन्न-भिन्न अधिकारियों की नियुक्ति और उनके विशेष आवश्यक लक्षण, अधिकार और शक्तियों का वर्णन।

    भावार्थ

    ( त्वष्टारम् ) शरीर में कान्ति के उत्पन्न करने वाले, (भिष- जम् ) रोग के निवारक, (सुयजम् ) उत्तम पुष्टि बलदायक, (घृतश्रियम् ) स्निग्ध शोभा को धारण करने वाले, ( पुरुरूपम् ) नाना रूपों में प्रकट, (सुरेतसम् ) उत्तम वीर्य को जिस प्रकार मनुष्य सदा धारण करे उसी प्रकार (होता) सबको अधिकारपद प्रदान करने हारा 'होता' नामक विद्वान् (त्वष्टारम् ) तेजस्वी, ( इन्द्रम् ) शत्रुनिवारक, ( देवम् ) दान- शील, राष्ट्रनिरीक्षक, देख भाल करने में चतुर, ( भिषजम् ) त्रुटियों को दूर करने वाले, (सुयजम ) उत्तम व्यवस्था करने में कुशल, (घृतश्रियम् ) राज्यलक्ष्मी के धारण में समर्थ, (पुरुरूपम् ) नाना प्रकार के पशु, मनुष्य, मृगादि के स्वामी, ( सुरेतसम् ) उत्तम वीर्यवान्, ( मघोनम् ) ऐश्वर्यवान् पुरुष को (इन्द्राय) ‘इन्द्र' पद के लिये ( यक्षत् ) अधिकार प्रदान करे । (त्वष्टा) वह तेजस्वी पुरुष (इन्द्रियाणि) इन्द्रोचित समस्त अधिकारों, बलों, सामर्थ्यो को (वेत्) प्राप्त करे और (आज्यस्य) राष्ट्र की समृद्धि को भोगे । (होतर्यज) हे विद्वन् ! तू उसको अधिकार प्रदान कर।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    इन्द्रः । निचृदतिजगती । निषादः ॥

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    विषय

    त्वष्टा

    पदार्थ

    १. (होता) = दानपूर्वक अदन करनेवाला त्वष्टारम् देवशिल्पी, दिव्यगुणों का निर्माण करनेवाले ज्ञान की दीप्तिवाले [तक्षते : करोति कर्मणः] उत्तम कर्मों को करनेवाले प्रभु को (यक्षत्) = अपने साथ संगत करता है, जोकि (इन्द्रम्) = परमैश्वर्यशाली हैं। (देवम्) = दिव्य गुणों का पुञ्ज हैं। भिषजम् हमारे सब रोगों के चिकित्सक हैं, प्रभु के नाम-स्मरण से रोगों का प्रतीकार होता है, इस नाम स्मरण से रोग आते ही नहीं। सुयजम् सुगमता से उपास्य व संगतिकरण योग्य हैं। (घृतश्रियम्) दीप्तश्रीवाले हैं, (पुरुरूपम्) = विश्वरूप हैं, वेद में 'विश्वतश्चक्षुः' आदि शब्दों में इस पुरुरूपता का वर्णन द्रष्टव्य है। सुरेतसम् उत्तम रेतस्वाले हैं तथा उनके स्मरण से हमारा रेतस् पवित्र बना रहता है। (मघोनम्) = मघवान् हैं, सम्पूर्ण धनोंवाले हैं अथवा जो सम्पूर्ण यज्ञोंवाले हैं [ मघ = मख] । २. (त्वष्टा) = यह दीप्त प्रभु (इन्द्राय) = जितेन्द्रिय पुरुष के लिए (इन्द्रियाणि) = इन्द्रियशक्तियों को (दधत्) = धारण करते हैं। होता बनकर जीव त्वष्टा को अपने साथ संगत करता है तो त्वष्टा उसे शक्तियाँ प्राप्त कराते हैं। वस्तुत: यह त्वष्टा इस उपासक के हित के लिए आज्यस्य वेतु-शक्ति का पान करे, अर्थात् इस प्रभु-नाम-स्मरण से वासनाओं का विनाश होकर शक्ति का हममें सुरक्षण हो । हे (होतः) = प्रभु का आह्वान करनेवाले उपासक (यज) = तू यज्ञशील बन और प्रभु को अपने साथ संगत कर ।

    भावार्थ

    भावार्थ- वे प्रभु त्वष्टा हैं, हममें दिव्य गुणों का निर्माण करनेवाले हैं, ज्ञान से दीप्त हैं और सृष्टिनिर्माण आदि यज्ञात्मक कर्मों को करनेवाले हैं। उनके संग से सुरेतस् बनकर हम भी दिव्य गुण-सम्पन्न, ज्ञानदीप्त व यज्ञशील बनें।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! तुम्ही आप्त, सत्यवादी, रोगनिवारक, धन ऐश्वर्य वाढविणाऱ्या वैद्यांच्या औषधांनी शरीर, आत्मा, अंतःकरण इत्यादी इंद्रियांचे बल वाढवून परम ऐश्वर्य प्राप्त करा.

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    विषय

    पुनश्‍च, तोच विषय-

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ -हे (होतः) शुभगुणदाता, (होता) पथ्याप्रमाणे आहार-विहार करणार्‍या कोणी माणूस (त्वष्टारम्) धातुदोषामुळे उत्न्न झालेल्या दोषांना नष्ट करतो, त्यामुळे तो अद्भुत कार्यें करण्यात समर्थ होतो, तो (मघोनम्) प्रभूत धनवान (पुरुरूपम्) अनेक रूपाने कार्य करणारा (घृतश्रियम्) जलामुळे (वा स्नानामुळे वा जलसेवनामुळे सुंदर तेजस्वी शरीर असलेला (सुजयम्) सुंदर ऐक्य वा संगती निर्माण करणारा (भिषजम्) वैद्य (देवम्) तेजस्वी (इन्द्रम्) ऐश्‍वर्यवान व्यक्तीचा (यक्षत्) संग करतो आणि (आज्यस्य) ज्ञातव्य सरल सोपे वचनांद्वारे (इन्द्राय) प्रेरक प्राण्यांना (इन्द्रियाणि) कान आदी स्वस्थ इंद्रियें देतो वा त्यांना धन (दधत्) धारण करतो, तेंव्हा तो वैद्य (त्वष्टा) तेजस्विता (वेतु) प्रपात करतो. हे यजमान, तूही त्याच्याप्रमाणे स्वास्थ्यदानरूप (यज) यज्ञ कर ॥9॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. हे मनुष्यांनो, तुम्ही आप्त (विश्‍वसनीय), सत्यवादी, रोगनिवारक गुणकारी औषधी देणार्‍या आणि तुमचे धन-ऐश्‍वर्याची वृद्धी करणार्‍या वैद्यराजाकडे जा. आपल्या शरीर आत्मा, अंतःकरण आणि इंद्रियांचे बळ वाढवून परम सुख प्राप्त करा ॥9॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O inculcator of good virtues, just as an abstemious person, befriends a physician, the remover of physical maladies, the possessor of riches, full of many qualities, physically strong, highly social, brilliant, and supreme, and in obedience to the soul, the urger of knowledge, controlling his senses, gains power, so shouldst thou do.

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    Meaning

    Let the hota, yajaka, offer yajna to Tvashta, maker of refined forms beyond weakness. He blesses, Indra, valorous, glorious and generous, physician, honourable in yajna, abundant and graceful, versatile in various fields and nobly virile, lord of power and grandeur. And Tvashta would bless you with the excellence of mind and sense and create all the knowledge of sense and mind and culture for you. Man of yajna, carry on the yajna, never relent.

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    Translation

    The sacrificer worships the universal Architect (tvastr), the resplendent Lord, the divine physician, worthy of good worship, bright as purified butter, assuming various forms, prolific and bounteous. May the universal Architect bestow power of all the sense-organs on the aspirant. May He enjoy. O sacrificer, offer oblations of purified butter. (1)

    Notes

    Tvaṣṭā, the universal Architect. Also, Sun. Indram, परमैश्वर्यवंतं, resplendent; resplendent Lord. Bhişajam, the physician. Suyajam, easy to worship or to accompany. Ghrtaśriyam, bright as clarified butter. Suretasam, prolific. Pururupam, multiform. Maghonam, bounteous. Indriyam, power of all the sense-organs.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনরায় সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে (হোতা) শুভগুণগুলির দাতা যেমন (হোতা) পথ্য আহার-বিহার কর্ত্তা (ত্বষ্টারম্) ধাতুবৈষম্য হইতে উৎপন্ন দোষ সকলকে নষ্টকারী (সুরেতসম্) সুন্দর পরাক্রমযুক্ত (মঘোনম্) পরম প্রশস্ত ধনবান্ (পুরুরূপম্) বহুরূপ (ঘৃতশ্রিয়ম্) জল দ্বারা শোভায়মান (সুয়জম্) সুন্দর সঙ্গকারী (ভিষজম্) বৈদ্য (দেবম্) তেজস্বী (ইন্দ্রম্) ঐশ্বর্য্যবান্ পুরুষের (য়ক্ষৎ) সঙ্গ করে এবং (আজ্যস্য) জানিবার যোগ্য বচনের (ইন্দ্রায়) প্রেরক জীব হেতু (ইন্দ্রিয়াণি) কর্ণাদি ইন্দ্রিয় বা ধনসকলকে (দধৎ) ধারণ করিয়া (ত্বষ্টা) তেজস্বী হইয়া (বেতু) প্রাপ্ত হয় সেইরূপ তুমি (য়জ) সঙ্গ কর ॥ ঌ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- এই মন্ত্র বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । হে মনুষ্যগণ ! তোমরা আপ্ত সত্যবাদী রোগনিবারক সুন্দর ওষধি দিবার, ধন ঐশ্বর্য্য বৃদ্ধিকারী বৈদ্যজনের সেবন করিয়া শরীর আত্মা, অন্তঃকরণ এবং ইন্দ্রিয় বলকে বৃদ্ধি করিয়া পরম ঐশ্বর্য্যকে প্রাপ্ত হও ॥ ঌ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    হোতা॑ য়ক্ষ॒ৎ ত্বষ্টা॑র॒মিন্দ্রং॑ দে॒বং ভি॒ষজ॑ꣳসু॒য়জং॑ ঘৃত॒শ্রিয়॑ম্ । পু॒রু॒রূপ॑ꣳ সু॒রেত॑সং ম॒ঘোন॒মিন্দ্রা॑য়॒ ত্বষ্টা॒ দধ॑দিন্দ্রি॒য়াণি॒ বেত্বাজ্য॑স্য॒ হোত॒র্য়জ॑ ॥ ঌ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    হোতেত্যস্য প্রজাপতির্ঋষিঃ । ইন্দ্রো দেবতা । নিচৃদতিজগতী ছন্দঃ ।
    নিষাদঃ স্বরঃ ॥

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