यजुर्वेद - अध्याय 28/ मन्त्र 17
ऋषिः - अश्विनावृषी
देवता - अश्विनौ देवते
छन्दः - भुरिग्जगती
स्वरः - निषादः
59
दे॒वा दैव्या॒ होता॑रा दे॒वमिन्द्र॑मवर्द्धताम्। ह॒ताघ॑शꣳसा॒वाभा॑र्ष्टां॒ वसु॒ वार्या॑णि॒ यज॑मानाय शिक्षि॒तौ व॑सु॒वने॑ वसु॒धेय॑स्य वीतां॒ यज॑॥१७॥
स्वर सहित पद पाठदे॒वा। दैव्या॑। होता॑रा। दे॒वम्। इन्द्र॑म्। अ॒व॒र्द्ध॒ता॒म्। ह॒ताघ॑शꣳसा॒विति॑ ह॒तऽअ॑घशꣳसौ। आ। अ॒भा॒र्ष्टा॒म्। वसु॑। वार्या॑णि। यज॑मानाय। शि॒क्षि॒तौ। व॒सु॒वन॒ इति॑ वसु॒ऽवने॑। व॒सु॒धेय॒स्येति॑ वसु॒ऽधेय॑स्य। वी॒ता॒म्। यज॑ ॥१७ ॥
स्वर रहित मन्त्र
देवा देव्या होतारा देवमिन्द्रमवर्धताम् । हताघशँसावाभार्ष्टाँवसु वार्याणि यजमानाय शिक्षितौ वसुवने वसुधेयस्य वीताँयज ॥
स्वर रहित पद पाठ
देवा। दैव्या। होतारा। देवम्। इन्द्रम्। अवर्द्धताम्। हताघशꣳसाविति हतऽअघशꣳसौ। आ। अभार्ष्टाम्। वसु। वार्याणि। यजमानाय। शिक्षितौ। वसुवन इति वसुऽवने। वसुधेयस्येति वसुऽधेयस्य। वीताम्। यज॥१७॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह॥
अन्वयः
हे विद्वन्! यथा दैव्या होतारा देवा वायुवह्नी इन्द्रं देवमवर्द्धतां हताघशंसौ रोगानाभार्ष्टां यजमानाय शिक्षितौ सन्तौ वसुधेयस्य वसुवने वसु वार्याणि च वीतां तथा यज॥१७॥
पदार्थः
(देवा) सुखप्रदातारौ (दैव्या) देवेषु दिव्येषु गुणेषु भवौ (होतारा) धर्त्तारौ वायुपावकौ (देवम्) दिव्यगुणम् (इन्द्रम्) सूर्यम् (अवर्द्धताम्) वर्धयताम् (हताघशंसौ) हता अघशंसाः स्तेना याभ्यान्तौ (आ) (अभार्ष्टाम्) दहताम् (वसु) धनम् (वार्याणि) वर्त्तुमर्हाण्युदकानि (यजमानाय) (शिक्षितौ) विज्ञापितौ (वसुवने) (वसुधेयस्य) (वीताम्) व्याप्नुताम् (यज)॥१७॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यदि मनुष्या वायुविद्युतौ सूर्यनिमित्ते विज्ञायोपयुज्य धनानि सञ्चिनुयुस्तर्हि स्तेननाशकाः स्युः॥१७॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे विद्वन्! जैसे (दैव्या) उत्तम गुणों में प्रसिद्ध (होतारा) जगत् के धर्त्ता (देवा) सुख देने हारे वायु और अग्नि (देवम्) दिव्यगुणयुक्त (इन्द्रम्) सूर्य को (अवर्द्धताम्) बढ़ावें, (हताघशंसौ) चोरों को मारने के हेतु हुए रोगों को (आ, अभार्ष्टाम्) अच्छे प्रकार नष्ट करें, (यजमानाय) कर्म में प्रवृत्त हुए जीव के लिये (शिक्षितौ) जताये हुए (वसुधेयस्य) सब ऐश्वर्य के आधार ईश्वर के (वसुवने) धनदान के स्थान जगत् में (वसु) धन और (वार्यणि) ग्रहण करने योग्य जलों को (वीताम्) व्याप्त होवें, वैसे आप (यज) यज्ञ कीजिए॥१७॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य सूर्यलोक के निमित्त वायु और बिजुली को जान और उपयोग में लाके धनों का संचय करें तो चोरों को मारने वाले होवें॥१७॥
विषय
होता द्वारा भिन्न-भिन्न अधिकारियों की नियुक्ति और उनके विशेष आवश्यक लक्षण, अधिकार और शक्तियों का वर्णन।
भावार्थ
(देवौ) दो विद्वान् (दैव्या) विद्वानों और राजा के हितकारी, (होतारा) उत्तम सुखों और ऐश्वर्यों के देने वाले, ( देवम् ) विजिगीषु (इन्द्र) ऐश्वर्यवान्, शत्रुनाशक राजा को ( अवर्धताम् ) पुष्ट करें। वे दोनों (हताघशंसौ) पाप की शिक्षा देने वाले दुष्टों का नाश करके (वार्याणि) उत्तम (वसु) ऐश्वर्यों को ( अभाष्ट्रम् ) प्राप्त करावें । वे दोनों (शिक्षितौ ) शिक्षा प्राप्त करके, (यजमानाय वसुवने ) दानशील राष्ट्र के भोक्ता राजा के (वसुधेयस्य) ऐश्वर्य की ( वीताम् ) रक्षा करें। (यज) हे होतः ! इनको अधिकार दे ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भुरिग् जगती । निषादः ॥
विषय
दैव्या होतारौ
पदार्थ
१. ऐ० २।४ के अनुसार प्राणापान 'दैव्य होता' हैं। ये (देवा:) = दिव्य गुणयुक्त व शरीर के सारे व्यवहारों के साधक हैं। ये दोनों (दैव्या होतारा) = प्राणापान (देवम्) = दिव्य गुणोंवाले, काम क्रोधादि की विजिगीषावाले (इन्द्रम्) = जितेन्द्रिय पुरुष को (अवर्धताम्) = बढ़ाते हैं। सब प्रकार की उन्नति का निर्भर इन्हीं पर है। इनकी साधना से ही मन की वृत्ति को भी हमने वश में करना है। वशीभूत मन हमारे मोक्ष तक का साधक बनता है, अतः प्राणापान सचमुच हमारा उत्तम वर्धन करते हैं । २. (हता अघशंसौ) = अघ व पाप के शंसन [ प्रशंसन] को जिन्होंने नष्ट किया है। प्राणासाधना होने पर पाप पाप के रूप में दिखते हैं। उनका चमकीला रूप हमें लुब्ध नहीं कर पाता। ऐसे ये प्राणापान (यजमानाय) = यज्ञशील पुरुष के लिए (वार्याणि वसु) = [ वसूनि ] वरणीय धनों को (आभाष्टम्) = प्राप्त कराएँ [ आहृतवन्तौ] । ३. (शिक्षितौ) = इस प्रकार यज्ञशील के लिए उत्तम धन देने के लिए (अभ्यस्त) = ये प्राणापान (वसुवने) = धन के सेवन में (वसुधेयस्य) = धन के आधारभूत प्रभु का (वीताम्) = अपने में विकास करें और हे जीव! तू यज-इन प्राणापान को अपने साथ संगत कर ।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणापान की साधना हमारे दृष्टिकोण को शुद्ध करे। हम पाप को पाप के ही रूप में देखें।
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे सूर्याचे कारण असलेला वायू आणि विद्युत यांना जाणतात व त्यांचा उपयोग करून धन कमावितात अशी माणसे (रोगरूपी) चोरांनाही मारू शकतात.
विषय
पुन्हा त्याच विषयी -
शब्दार्थ
शब्दार्थ -हे विद्वान, जसे (दैव्या) उत्तम गुणांमुळे सुविख्यात असलेले (होतारा) सार्या जगाचे धरणकर्ता (देवा) दु:खकारक वायू आणि अग्नी (देवम्) दिव्यगुणवान (इन्द्रम्) सूर्याला (अधाताम्) वाढवितात (त्याप्रकारे तुम्ही यज्ञाने वायू, जल यांची शुद्धी करा) (हताघशंसौ) चोरांना मारण्यासाठी शक्ती संपादन व रोगनिवारण करण्याकरिता (अ, अभाष्टमि्) (वायू आणि अग्नी द्वारे यत्न करावेत) (यजमानाय) कर्मामधे प्रवृत्त जीवांकरिता (शिक्षितौ) हे वायू व अग्नी दोघे वसुधेयस्य) सर्वेश्वर्य धारक परमेश्वराने निमित्त या (वसुवने) ऐश्वयशाली, जगात (वसु) धन उत्पन्न करो आणि (वार्याणि) ग्रहणीय जलाला (वायू व अग्नीसह जलाला देखील) (वीताम्) प्राप्त करो. हे विद्वान, आपणही (यज) अशा प्रकारे सर्वांच्या कल्याणाकरिता यज्ञ करा. ॥17॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. जो सूर्यलोकाचे कारण असलेल्या वायू आणि विद्युत यांच्या शक्तीला ओळखतात, त्यांपासून लाभ घेतात व त्याद्वारे धनसंचय करतात, ते दुष्टांना, चोर आदी अन्यायीजनांना विनष्ट करण्यात समर्थ होतात. ॥17॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O learned person, just as pleasant air and fire, celebrated for their excellent attributes, the sustainers of the world heighten the radiant suns might, exterminate the diseases that kill the sinful thieves, and acting as monitors to the soul, procure us riches and drinkable water in Gods world, so shouldst thou perform yajna.
Meaning
Two high-priests of nature and yajna, wind and fire, generous and brilliant, full of divine properties, feed the sun-beams with the fragrance of yajna and the smell of earth and add to the prosperity of the world. They eliminate the agents of sin and crime (by the elimination of poverty) and burn out the causes of disease. Full of the spirit of nature’s wisdom, they beget choice gifts of wealth and water and promote the blessings of God upon the earth for the yajamana. Man of yajna, carry on with the yajna in unison with nature, never relent.
Translation
The two divine celestial priests (daivya-hotara) foster the strength of the divine aspirant. May both of them, the slayers of those who praise the sins, knowing well the realities, bring the coveted riches for the sacrificer. At the time of distribution of wealth, may both of them procure the store of wealth for us. Offer sacrifice. (1)
Notes
Hatāghaśamsa, हता अघशंसा याभ्यां, those two who have killed the sinners. Ābhārṣṭām, आहार्ष्टाम्, have braught; bring.
बंगाली (1)
विषय
পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ–হে বিদ্বন্! যেমন (দৈব্যা) উত্তম গুণসমূহে প্রসিদ্ধ (হোতারা) জগতের ধর্ত্তা (দেবা) সুখ প্রদানকারী বায়ু ও অগ্নি (দেবম্) দিব্যগুণযুক্ত (ইন্দ্রম্) সূর্য্যকে (অবর্দ্ধতাম্) বৃদ্ধি করিবে । (হতাঘশংসৌ) চোরদিগের মারিবার হেতু জাত রোগসমূহকে (আ, অভার্ষ্টাম্) উত্তম প্রকারে নষ্ট করিবে (য়জমানায়) কর্ম্মে প্রবৃত্ত জীবের জন্য (শিক্ষিতৌ) বিজ্ঞাপিত (বসুধেয়স্য) সকল ঐশ্বর্য্যের আধার ঈশ্বরের (বসুবনে) ধনদানের স্থান জগতে (বসু) ধন ও (বার্য়াণি) গ্রহণ করিবার যোগ্য জলে (বীতাম্) ব্যাপ্ত হউক সেইরূপ আপনি (য়জ) যজ্ঞ করুন ॥ ১৭ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যে সব মনুষ্য সূর্য্যলোকের নিমিত্ত বায়ু ও বিদ্যুৎকে জানিয়া এবং ব্যবহার করিয়া ধনের সঞ্চয় করে তাহারা চোরের নিধনকারী হইবে ॥ ১৭ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
দে॒বা দৈব্যা॒ হোতা॑রা দে॒বমিন্দ্র॑মবর্দ্ধতাম্ । হ॒তাঘ॑শꣳসা॒বাऽऽऽভা॑র্ষ্টাং॒ বসু॒ বার্য়া॑ণি॒ য়জ॑মানায় শিক্ষি॒তৌ ব॑সু॒বনে॑ বসু॒ধেয়॑স্য বীতাং॒ য়জ॑ ॥ ১৭ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
দেবা ইত্যস্যাশ্বিনাবৃষী । অশ্বিনৌ দেবতে । ভুরিগ্জগতী ছন্দঃ ।
নিষাদঃ স্বরঃ ॥
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