यजुर्वेद - अध्याय 28/ मन्त्र 18
दे॒वीस्ति॒स्रस्ति॒स्रो दे॒वीः पति॒मिन्द्र॑मवर्धयन्। अस्पृ॑क्ष॒द् भाार॑ती॒ दिव॑ꣳ रु॒द्रैर्य॒ज्ञꣳ सर॑स्व॒तीडा॒ वसु॑मती गृ॒हान् व॑सु॒वने॑ वसु॒धेय॑स्य व्यन्तु॒ यज॑॥१८॥
स्वर सहित पद पाठदे॒वीः। ति॒स्रः। ति॒स्रः। दे॒वीः। पति॑म्। इन्द्र॑म्। अ॒व॒र्ध॒य॒न्। अस्पृ॑क्षत्। भार॑ती। दिव॑म्। रु॒द्रैः। य॒ज्ञम्। सर॑स्वती। इडा॑। वसु॑म॒तीति॒ वसु॑ऽमती। गृ॒हान्। व॒सु॒वन॒ इति॑ वसु॒ऽवने॑। व॒सु॒धेय॒स्येति॑ वसु॒ऽधेय॑स्य। व्य॒न्तु॒। यज॑ ॥१८ ॥
स्वर रहित मन्त्र
देवीस्तिस्रस्तिस्रो देवीः पतिमिन्द्रमवर्धयन् । अस्पृक्षद्भारती दिवँ रुद्रैर्यज्ञँ सरस्वतीडा वसुमती गृहान्वसुवने वसुधेयस्य व्यन्तु यज ॥
स्वर रहित पद पाठ
देवीः। तिस्रः। तिस्रः। देवीः। पतिम्। इन्द्रम्। अवर्धयन्। अस्पृक्षत्। भारती। दिवम्। रुद्रैः। यज्ञम्। सरस्वती। इडा। वसुमतीति वसुऽमती। गृहान्। वसुवन इति वसुऽवने। वसुधेयस्येति वसुऽधेयस्य। व्यन्तु। यज॥१८॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह॥
अन्वयः
हे विद्वन्! या रुद्रैर्भारती दिवं सरस्वती यज्ञं वसुमतीडा गृहान् धरन्त्यो देवीस्तिस्रस्तिस्रो देवीः पतिमिन्द्रञ्चावर्द्धयन् वसुधेयस्य वसुवने गृहान् व्यन्तु तास्त्वं यज भवानस्पृक्षत्॥१८॥
पदार्थः
(देवीः) देव्यः (तिस्रः) त्रित्वसंख्याकाः (तिस्रः) पुनरुक्तमतिशयबोधनार्थम् (देवीः) दिव्याः क्रियाः (पतिम्) पालकम् (इन्द्रम्) सूर्यमिव जीवम् (अवर्द्धयन्) वर्द्धयन्ति (अस्पृक्षत्) स्पृहेत् (भारती) धारिका (दिवम्) प्रकाशम् (रुद्रैः) प्राणैः (यज्ञम्) सङ्गन्तव्यं व्यवहारम् (सरस्वती) विज्ञानयुक्ता वाक् (इडा) प्रशंसनीया वाणी (वसुमती) बहूनि वसूनि द्रव्याणि विद्यन्ते यस्यां सा (गृहान्) गृहस्थान् गृहाणि वा (वसुवने) (वसुधेयस्य) (व्यन्तु) (यज)॥१८॥
भावार्थः
यथा जलाग्निवायुगतयो दिव्याः क्रियाः सूर्यप्रकाशं च वर्द्धयन्ति, तथा ये मनुष्याः सकलविद्याधारिकामखिलक्रियाहेतुं सर्वदोषगुणविज्ञापिकां त्रिविधां वाचं विजानन्ति, तेऽस्मिन् सर्वद्रव्याकरे संसारे श्रियमाप्नुवन्ति॥१८॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे विद्वन्! जो (रुद्रैः) प्राणों से (भारती) धारण करने हारी (दिवम्) प्रकाश को (सरस्वती) विज्ञानयुक्त वाणी (यज्ञम्) सङ्गति के योग्य व्यवहार को (वसुमती) बहुत द्रव्यों वाली (इडा) प्रशंसा के योग्य वाणी (गृहान्) घरों वा गृहस्थों को धारण करती हुई (देवीः, तिस्रः) (तिस्रः, देवीः) तीन दिव्य क्रिया (यहां पुनरुक्ति आवश्यकता जताने के लिए है) (पतिम्) पालन करने हारे (इन्द्रम्) सूर्य के तुल्य तेजस्वी जीव को (अवर्धयन्) बढ़ाती हैं, (वसुधेयस्य) धन कोष के (वसुवने) धन दान में घरों को (व्यन्तु) प्राप्त हों, उनको आप (यज) प्राप्त हूजिये और आप (अस्पृक्षत्) अभिलाषा कीजिए॥१८॥
भावार्थ
जैसे जल अग्नि और वायु की गति उत्तम क्रियाओं और सूर्य के प्रकाश को बढ़ाती हैं, वैसे जो मनुष्य सब विद्याओं का धारण करने सब क्रिया का हेतु और सब दोष गुणों को जताने वाली तीन प्रकार की वाणी को जानते हैं, वे इस सब द्रव्यों के आधार संसार में लक्ष्मी को प्राप्त हो जाते हैं॥१८॥
विषय
होता द्वारा भिन्न-भिन्न अधिकारियों की नियुक्ति और उनके विशेष आवश्यक लक्षण, अधिकार और शक्तियों का वर्णन।
भावार्थ
(देवी) देवियां जैसे (पतिम् ) पालक पति के वंश की वृद्धि करती हैं, उसी प्रकार (तिस्रः देवी:) दिव्य गुण वाली तीन संस्थाएं भी ( पतिम् इन्द्रम् ) अपने पति, इन्द्र, ऐश्वर्यवान् राजा की ( अवर्धयन् ) वृद्धि करें । उनमें से एक (भारती) 'भारती' नामक संस्था है । (दिवम् ) द्यौलोक को जैसे सूर्य रूप लाखों नक्षत्र जगमगा देते हैं उसी प्रकार 'भारती' परिषत् ( दिवम् अस्पृक्षत् ) विद्वान् पुरुषों की बनी 'दिव्' नाम सर्वोच्च राजसभा को संयोजित करती है । और (सरस्वती) सरस्वती नाम विद्वत्सभा (रुदैः) दुष्टों के रुलाने बलवान्, ज्ञानोपदेश करने वाले विद्वान् पुरुषों से ( यज्ञम् अस्पृक्षत् ) व्यवस्थित राष्ट्र का प्रबन्ध करती है और तीसरी (इडा) 'इडा' (वसुमती) वसु, राष्ट्रवासियों को धारण करने वाली जनपदसभा या लोकसभा, प्रजासभा, (गृहान् ) गृहों गृहस्थ नागरिकों का प्रबन्ध करती है । (वसुवने) राजा के (वसुधेस्य) राजा के ( वसुधेयस्य व्यन्तु ) राष्ट्रजन की ये तीनों संस्थाएं वृद्धि या रक्षा करें । हे होतः ! (यज) तु तीनों सभाओं की योजना कर । भारती राजसभा है जो शासक पुरुषों के निमित्त उपद्रवकारी दुष्टों के दमन के उपायों का विचार करती है। दूसरी सरस्वती विद्वत्सभा है जो ज्ञान वृद्धि करती हैं और तीसरी 'इडा' है जो गृहों जनपदवासियों नागरिकों की व्यवस्था करती है ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अतिजगती । निषादः ॥
विषय
तीन देवताएँ
पदार्थ
१. (तिस्रः देवी:) = भारती, सरस्वती व (इडा) = नामक तीन देवियाँ, जो (तिस्रः) = तीनों की तीनों (देवी:) = द्युति - ज्ञानदीप्ति व दानवृत्ति को हमें प्राप्त करानेवाली हैं, ये देवियाँ (पतिम् इन्द्रम्) = काम-क्रोधादि को वश में करनेवाले जितेन्द्रिय पुरुष को (अवर्धयन्) = बढ़ाती हैं । २. इस रक्षक जीव को (दिवम्) = मस्तिष्करूप द्युलोक में (भारती) = [ भरत आदित्य:, तस्य भा भारती] हमारा धारण करनेवाली ये सूर्य की किरणें (अस्पृक्षत्) = छूती हैं ३. (रुद्रैः) = [रोरुयमाणो द्रवति - नि०] उस प्रभु के नामोच्चारण के साथ क्रिया में लगे रहने के साथ (सरस्वती) = शिक्षा की अधिदेवता यज्ञम् आत्मा के इन्द्रियों के साथ संगतिकरण करानेवाले मन को [हृदयान्तरिक्ष को] छूती है तथा ४. यह (वसुमती) = सब वसुओं को देनेवाली (इडा) = श्रद्धा (गृहान्) = हमारे इन शरीररूपी घरों को छूती है, अर्थात् इन तीन देवियों के अनुग्रह से हमारा मस्तिष्क, मन व गृहरूप शरीर सब सुन्दर बन जाते हैं । ५. ये तीनों देवियाँ (वसुवने) = धन के सेवन में (वसुधेयस्य) = उस धन के आधारभूत प्रभु को (व्यन्तु) = विकसित करें, उसकी भावना को अपने में जागरित करें, अर्थात् प्रभु को भूलें नहीं। (यज) = हे जीव ! तू इन देवियों को अपने साथ संगत कर अथवा प्रभु के साथ अपना मेल बना और उसके लिए दानशील बन।
भावार्थ
भावार्थ- हम 'भारती, सरस्वती व इडा' इन देवियों के पति बनें। इनसे हमारे मस्तिष्क, मन व शरीररूप गृह सुभूषित हों।
मराठी (2)
भावार्थ
जसे जल, अग्नी व वायूची गती यांच्यामुळे उत्तम क्रिया होते व सूर्यप्रकाश वाढतो. तसे जी माणसे सर्व विद्या धारण करणारी वाणी, सर्व क्रियांचा हेतू असणारी वाणी व गुणदोष दाखविणारी वाणी अशी तीन प्रकारची वाणी जाणतात ती या जगात लक्ष्मीला प्रसन्न करून घेतात.
विषय
पुनश्च, तोच विषय -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे विद्वान, (या तीन गृहस्थदेवी पती वा घराला उन्नत वा वर्धित करतात) (रूद्रैः) प्राणांद्वारे (भारती) धारण करणारी स्त्री (दिवम्) प्रकाशाला, (सरस्वती) ज्ञान-विज्ञानयुक्त वाणी (यज्ञम्) संगती वा संगठन वाढविणार्या कार्याला, (वसुमती) द्रव्यधनवान् स्त्री (इडा) प्रशंसनीय वाणीद्वारे (गृहान्) घराला वा गृहस्थीला धारण करते (मधुर वाणीद्वारा स्त्री घरात ऐक्य सांभाळते) या (देवीः, तिस्रः) तीन देवी (तिस्रः देवी) (येथे तिस्रः देवी या शब्दांची पुनरूक्ति केली आहे, ती या शब्दांवर भर देण्यासाठी आहे) (पतिम्) पालन करणार्या (इन्द्रम्) सूर्याप्रमाणे तेजस्वी असलेल्या (पतीला वा वीराला या तीन स्वभावाच्या स्त्रिया (अवर्धयन्) वाढवतात. (वसुधेयस्य) त्यांचे कोषातील धन (वसुवने) दान देण्यासाठी (व्यन्तु) प्राप्त व्हावे. हे विद्वान्, आपण त्यांना (यज) प्राप्त व्हा आणि आपण तशी (अस्पृक्षद्) अभिलाषा करा. ॥18॥
भावार्थ
भावार्थ - ज्याप्रमाणे जल, अग्नी आणि वायू, यांची गती आणि उवम क्रिया सूर्यप्रकाशाची वृद्धी करतात, त्याप्रमाणे जे मनुष्य, (1) सर्व विद्या धारण करणारी (2) सर्व क्रिया वा कर्माचे कारण आणि (3) सर्व दोष दाखवून ते दूर करणारी, अशा तीन प्रकारचा उपयोग करणे जाणतात, ते लोक सर्व पदार्थांचा जो आधार, म्हणजे हा संसार, या संसारात लक्ष्मी प्राप्त करतात. ॥18॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O learned person, Bharati, the speech, uttered through breath, Saraswati, the speech full of wisdom, and Ida, the speech enriched with wealth, and the performer of yajna, occupy the householders. These three divine forms of speech, heighten the might of the lustrous and protecting soul. For gain of wealth they are cherished by the householders, Aspire after them and may thou master them.
Meaning
Three divine powers serve, strengthen and elevate Indra, the human soul, their master and servant both, with three sacred processes of action: Bharati, the speech and light of sattva, with the energy of the Rudra pranas, reaches the light of heaven. Sarasvati, the speech and currents of nature’s dynamics, with sacred chants through fire and wind, expands the yajna and refines the business of living. And Ida, the earth and holy libations, bear worldly wealth and bless the homes with prosperity. Thus the three divinities bring down the riches of the Divine Giver into the life of humanity, the receiver, on earth through yajna. Hota, devotee of yajna, carry on the yajna in tune with Ida, Sarasvati and Bharati.
Translation
The divinities three, the three divinities (tisro-devih) exalt the aspirant, their master. The divine culture touches the heights of the heaven; the divine speech, in company of the adult sages, spreads the sacrifice; and the divine intellect, full of riches, fills our homes. At the time of the distribution of wealth, may they procure the store of wealth for us. Offer sacrifice. (1)
Notes
Divam aspṛkşat, touches the heights of heaven. Rudrail, in company of adult sages. Bharati divain, Sarasvati yajñain and Iḍā grhän asprkṣat.
बंगाली (1)
विषय
পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ–হে বিদ্বন্! যে (রুদ্রৈঃ) প্রাণসমূহ দ্বারা (ভারতী) ধারণকারিণী (দিবম্) প্রকাশকে (সরস্বতী) বিজ্ঞানযুক্ত বাণী (য়জ্ঞম্) সঙ্গতির যোগ্য ব্যবহারকে (বসুমতী) বহু দ্রব্য যুক্তা (ইডা) প্রশংসার যোগ্য বাণী (গৃহান্) গৃহসকল বা গৃহস্থসকলকে ধারণ করিয়া (দেবীঃ, তিস্রঃ) (তিস্রঃ, দেবীঃ) তিন দিব্য ক্রিয়া ॑এখানে পুনরুক্তি আবশ্যকতা বুঝাইতে ব্যবহৃত হইয়াছে । ॑ (পতিম্) পালনকারী (ইন্দ্রম্) সূর্য্যের তুল্য তেজস্বী জীবকে (অবর্ধয়ন্) বৃদ্ধি করে । (বসুধেয়স্য) ধনকোষের (বসুবনে) ধনদানে গৃহসমূহকে (ব্যন্তু) প্রাপ্ত হউক, তাহাদেরকে আপনি (য়জ) প্রাপ্ত হউন এবং আপনি (অস্পৃক্ষৎ) অভিলাষা করুন ॥ ১৮ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–যেমন জল অগ্নি ও বায়ুর গতি উত্তম ক্রিয়াসকল এবং সূর্য্যের প্রকাশকে বৃদ্ধি করে সেইরূপ যে সব মনুষ্য সকল বিদ্যা ধারণ করিবার সকল ক্রিয়ার হেতু এবং সকল দোষ গুণকে নির্দেশকারিণী তিন প্রকারের বাণীকে জানে, তাহারা এই সব দ্রব্যের আধার সংসারে লক্ষ্মীকে প্রাপ্ত হইয়া যায় ॥ ১৮ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
দে॒বীস্তি॒স্রস্তি॒স্রো দে॒বীঃ পতি॒মিন্দ্র॑মবর্ধয়ন্ । অস্পৃ॑ক্ষ॒দ্ ভার॑তী॒ দিব॑ꣳ রু॒দ্রৈর্য়॒জ্ঞꣳ সর॑স্ব॒তীডা॒ বসু॑মতী গৃ॒হান্ ব॑সু॒বনে॑ বসু॒ধেয়॑স্য ব্যন্তু॒ য়জ॑ ॥ ১৮ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
দেবী ইত্যস্যাশ্বিনাবৃষী । ইন্দ্রো দেবতা । অতিজগতী ছন্দঃ ।
নিষাদঃ স্বর ॥
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