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  • यजुर्वेद - अध्याय 18/ मन्त्र 51
    ऋषिः - शुनःशेप ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - स्वराडार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    अ॒ग्निं यु॑नज्मि॒ शव॑सा घृ॒तेन॑ दि॒व्यꣳ सु॑प॒र्णं वय॑सा बृ॒हन्त॑म्। तेन॑ व॒यं ग॑मेम ब्र॒ध्नस्य॑ वि॒ष्टप॒ꣳ स्वो रुहा॑णा॒ऽअधि॒ नाक॑मुत्त॒मम्॥५१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्निम्। यु॒न॒ज्मि॒। शव॑सा। घृ॒तेन॑। दि॒व्यम्। सु॒प॒र्णमिति॑ सुऽप॒र्णम्। वय॑सा। बृ॒हन्त॑म्। तेन॑। व॒यम्। ग॒मे॒म॒। ब्र॒ध्नस्य॑। वि॒ष्टप॑म्। स्वः॑। रुहा॑णाः। अधि॑। नाक॑म्। उ॒त्त॒मम् ॥५१ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निँयुनज्मि शवसा घृतेन दिव्यँ सुपर्णँवयसा बृहन्तम् । तेन वयङ्गमेम ब्रध्नस्य विष्टपँ स्वो रुहाणा अधि नाकमुत्तमम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निम्। युनज्मि। शवसा। घृतेन। दिव्यम्। सुपर्णमिति सुऽपर्णम्। वयसा। बृहन्तम्। तेन। वयम्। गमेम। ब्रध्नस्य। विष्टपम्। स्वः। रुहाणाः। अधि। नाकम्। उत्तमम्॥५१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 18; मन्त्र » 51
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    Meaning -
    I yoke with fulness of life and strength-giving butter, thee, fire, mighty, divine, and efficient in protection. Through that yajna fire may we obtaining happiness, attain to the loftiest nature of God free from suffering and full of effulgence.

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