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  • अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 9/ मन्त्र 15
    सूक्त - काङ्कायनः देवता - अर्बुदिः छन्दः - त्र्यवसाना सप्तपदा शक्वरी सूक्तम् - शत्रुनिवारण सूक्त

    श्वन्वतीरप्स॒रसो॑ रूपका उ॒तार्बु॑दे। अ॑न्तःपा॒त्रे रेरि॑हतीं रि॒शां दु॑र्णिहितै॒षिणी॑म्। सर्वा॒स्ता अ॑र्बुदे॒ त्वम॒मित्रे॑भ्यो दृ॒शे कु॑रूदा॒रांश्च॒ प्र द॑र्शय ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श्व᳡न्ऽवती: । अ॒प्स॒रस॑: । रूप॑का: । उ॒त । अ॒र्बु॒दे॒ । अ॒न्त॒:ऽपा॒त्रे । रेरि॑हतीम् । रि॒शाम् । दु॒र्नि॒हि॒त॒ऽए॒ष‍िणी॑म् । सर्वा॑: । ता: । अ॒र्बु॒दे॒ । त्वम् । अ॒मित्रे॑भ्य: । दृ॒शे । कु॒रु॒ । उ॒त्ऽआ॒रान् । च॒ । प्र । द॒र्श॒य॒ ॥११.१५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    श्वन्वतीरप्सरसो रूपका उतार्बुदे। अन्तःपात्रे रेरिहतीं रिशां दुर्णिहितैषिणीम्। सर्वास्ता अर्बुदे त्वममित्रेभ्यो दृशे कुरूदारांश्च प्र दर्शय ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    श्वन्ऽवती: । अप्सरस: । रूपका: । उत । अर्बुदे । अन्त:ऽपात्रे । रेरिहतीम् । रिशाम् । दुर्निहितऽएष‍िणीम् । सर्वा: । ता: । अर्बुदे । त्वम् । अमित्रेभ्य: । दृशे । कुरु । उत्ऽआरान् । च । प्र । दर्शय ॥११.१५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 9; मन्त्र » 15

    पदार्थ -
    (अर्बुदे) हे अर्बुदि ! [शूर सेनापति राजन्] (श्वन्वतीः) वृद्धिवाली (उत) और (अप्सरसः) प्रजाओं में व्यापनेवाली (रूपकाः) सुन्दरताएँ जतानेवाली क्रियायों को [मित्रों के लिये] (अन्तःपात्रे) भीतरले पात्र [अन्तःकरण] में (रेरिहतीम्) अत्यन्त युद्ध करनेवाली (दुर्णिहितैषिणीम्) दुष्ट प्रयोजन को खोजनेवाली (रिशाम्) पीड़ा को, (ताः सर्वाः) उन सब [पीड़ाओं] को, (अर्बुदे) हे अर्बुदि ! [शूर सेनापति राजन्] (त्वम्) तू (अमित्रेभ्यः दृशे) अमित्रों के लिये देखने को (कुरु) कर, (च) और [हमें अपने] (उदारान्) बड़ें उपायों को (प्र दर्शय) दिखादे ॥१५॥

    भावार्थ - राजा को योग्य है कि शिष्टों के साथ उनके श्रेष्ठ व्यवहारों के अनुसार श्रेष्ठ व्यवहार करे और दुष्टों को खोजकर उनकी दुष्टता के अनुसार दण्ड देवे, जिससे राजा की उत्तम नीति का प्रभाव सबको विदित हो जावे ॥१५॥मन्त्र के अन्तिम भाग के लिये मन्त्र १ तथा २२ और २४ देखो ॥

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